Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ इस जानकारी की पूर्ति तत्कालीन जैन साहित्य की खोज द्वारा नहीं हो सकी। इतनी बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह जैन धर्म के प्रबल पोषक थे और उन्हीं के प्रोत्साहन से जैन धर्मालु भाइयों ने ग्वालियर गढ़ को जैन मूर्तियों से अलंकृत करने का संकल्प किया। महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह के समय में हुई जैन सम्प्रदाय की उन्नति के इतिहास की खोज अभी शेष है और आवश्यक है। डूंगरेन्द्रसिंह के पश्चात् उनके पुत्र कीर्तिसिंह तंवर ग्वालियर गढ़ के अधिपति बने। उन्होंने जैन सम्प्रदाय को आश्रय दिया। इनके राज्यकाल में ग्वालियर की जैन प्रतिमाओं का निर्माण पूर्ण हआ। महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह कीर्तिसिंह के शासन काल में सन् 1440 ई. से 1473 ई. तक 33 वर्ष के समय में प्रतिमाएँ बनीं। इन दोनों नरेशों के राज्यकाल में जैन धर्म को प्रश्रय मिला।' 2 ग्वालियर के उरवाई गेट पर भगवान 'आदिनाथ की 57 फुट ऊँची प्रतिमा है। इस विशाल प्रतिमा के निर्माण में महाकवि रइधू (वि.सं. 1440 - 1536) के प्रभावशाली व्यक्तित्व, कमलसिंह संघवी की दानवीरता एवं धर्मप्रियता तथा तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह की जैन धर्म के प्रति उदारता का योगदान है। कहा जाता है कि अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू की साहित्य सौरभता जब फैली तो राजा डूंगरसिंह ने कविवर से कहा कि - "हे कवि श्रेष्ठ! तुम अपनी साहित्य साधना हमारे पास दुर्ग में ही रहकर करो, जिसे रइधू ने स्वीकार कर लिया। रइधू आदिनाथ का भक्त था। किले में भगवान आदिनाथ के दर्शन न होने से उसका चित्त उदास रहता था। उसने अपनी भावना अपने मित्र, सहयोगी एवं श्रेष्ठी संघवी कमलसिंह से प्रकट की। मंत्री कमलसिंह संघवी आनन्द विभोर होकर गोपाचल दुर्ग में गोम्मटेश्वर के समान आदिनाथ की विशाल खड्गासन मूर्ति के निर्माण की भावना लेकर राजा डूंगरसिंह के राजदरबार में गया और शिष्टाचार पूर्वक प्रार्थना की - 'हे राजन! मैंने कुछ विशेष धर्म कार्य करने का विचार किया है किन्तु उसे कर नहीं पा रहा हूँ। अत: प्रतिदिन यही सोचता रहता हूँ कि अब वह आपकी कृपा पूर्ण सहायता एवं आदेश एवं सहायता से ही सम्पूर्ण करूँ क्योंकि आपका यश एवं कीर्ति अखण्ड है एवं अनन्त है। मैं तो इस पृथ्वी पर एक दरिद्र एवं असमर्थ के समान हूँ। इस मनुष्य पर्याय में मैं कर ही क्या सकता राजा डूंगरसिंह कमलसिंह को जो आश्वासन देता है वह निश्चय ही भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम सन्दर्भ है। उससे डूंगरसिंयह के इतिहास प्रेम के साथ-साथ उसकी धर्म निरपेक्षता, समरसता, कलाप्रियता तथा अपने राजकर्मियों की भावनाओं के प्रति अनन्य स्नेह एवं ममता की झांकी स्पष्ट दिखाई देती है। वह कहता है - 'हे सज्जनोत्तम, जो भी पुण्य कार्य तुम्हें रूचिकर लगे, उसे अवश्य पूरा करो। यदि धर्म सहायक और भी कोई कार्य हो तो उसे हो तो उसे भी पूरा करो। अपने मन में किसी भी प्रकार की शंका मत करो, धर्म के प्रति तुम संतुष्ट रहो। जिस प्रकार राजा बीसलदेव के राज्य सौराष्ट्र (सोरट्ठ देश) में धर्म साधना निर्विघ्न रूप से प्रतिष्ठित थी, वस्तुपाल - तेजपाल ने हाथी दांतों से प्रवर तीर्थराज का निर्माण कराया था, जिस प्रकार पेरोजशाह (फिरोजशाह) की महान कृपा से योगिनपुर (दिल्ली) में निवास करते हुए सारंग साहू ने अत्यंत अनुराग पूर्वक धर्मयात्रा करके ख्याति अर्जित की थी, उसी प्रकार हे गुणाकर! धर्मकार्यों के लिये मुझसे पर्याप्त द्रव्य ले लो, जो भी कार्य करना हो उसे निश्चय ही पूरा कर लो। यदि द्रव्य में कुछ कमी आ जाये तो मैं उसे भी अपनी ओर से पूर्ण कर दूंगा। जो जो भी मांगेंगे , वही वही (मुँहमांगा) दूंगा।' राजा ने बार - बार आश्वासन देते हुए कमलसिंह को पान का बीड़ा देकर सम्मानित किया। राजा का आश्वासन एवं सम्मान प्राप्त कर कमलसिंह अर्हत् वचन, अप्रैल 2000

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104