Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 83
________________ वर्ष 1998 के अर्हत् वचन पुरस्कारों का वितरण कर रहा है। तीसरी सहस्राब्दी में प्रवेश करने के लिये अभी कुछ ही महीने शेष हैं। वैसे तो गत प्रथम जनवरी को हमनें ब शताब्दी को बड़े जोर - शोर के साथ बिदा किया है और इसवी सन् 2000 का स्वागत किया है। यह अत्यंत खेद का विषय है कि भारत अनेक प्राचीन संस्कृतियों का उद्गम स्थल होने के बावजूद उसी पाश्चात्य संस्कृति की अंधश्रद्धा और गुलामगिरी के अंधानुकरण की भावना से निजात नहीं पा सका है। आप सभी महानुभावों को याद तो होगा ही कि हम जैन मतावलम्बियों द्वारा लगभग 26-27 वर्ष पूर्व ही भगवान महावीर का 2500 वाँ निर्वाण दिवस धूमधाम से मनाया था। याने कि हमारी स्वयं की मान्य कालगणना थी। उसकी केवली प्रणीत विशिष्ट अवधारणा है। बीस कोड़ाकोड़ी सागर वर्ष प्रमाण के समय को एक कल्पकाल तथा प्रत्येक कल्पकाल के समान समय का एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी काल। समय के निरन्तर गति के साथ - साथ विकास तथा अवनति काल के रूप में अविचलित बदलते विश्व में भगवान ऋषभदेव द्वारा उद्घाटित मानव संस्कृति और सम्यकज्ञान को आज विश्व को फिर से अवगत कराने का समय आया है।' 'जैन संस्कृति और जैन परम्पराओं के बारे में अनेक प्रकार की भ्रांतिमूलक अवधारणाएँ आज भी भारतीय समाज तथा विद्वान मनीषियों में विद्यमान हैं, पूर्व में भी थीं। आज इसी सन्दर्भ में मुझे प्रसिद्ध जैन विद्वान, चिंतक, मनीषी डॉ. कामताप्रसादजी जैन द्वारा 1989 में प्रकाशित कल्याणश्री (जुलाई-अगस्त 89 अंक) के एक वक्तव्य की याद आ रही है। वक्तव्य की कुछ लाइनें इस प्रकार हैं - "मुझे तो यह कहने में भी संकोच नहीं है कि अब तक जो कुछ भी भ्रांत किंवदन्तियाँ जैन धर्म के विषय में प्रचलित हुई हैं या होती हैं उन सबका दोष हम जैनियों के सिर पर है। क्योंकि हम भी अपने धर्मग्रन्थों को विधर्मी सज्जनों के हाथों तक पहुँचाने में हिचक रहे हैं। प्राचीन शास्त्रों के उद्धार करने के स्थान पर उन्हें ताले में बन्द रखना ही अधिक उत्तम समझते हैं अथवा इनमें व्यापारिक स्पर्धा का आस्वाद न लेना अपना कर्तव्य समझते हैं। यह परिस्थिति अवश्य ही हमारे लिये लज्जास्पद है। यदि विधर्मी विद्वानों के निकट संस्कृत, अंग्रेजी आदि किसी भाषा में ग्रन्थ पहुँचाने से धर्म के सम्बन्ध में प्रचलित झूठे विचार दूर होते हैं तो अवश्य ही इस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये, क्योंकि धर्म के विषय में प्रचलित कुत्सित विचारों को दूर करना ही धर्म प्रभावना है।" 'कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का आज का यह पुरस्कार वितरण समारोह धर्म प्रभावना के लिये ठोस कदम साबित हुआ है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के संस्थापक, संरक्षक तथा कार्यकर्तावृन्द कोटि - कोटि साधुवाद के लिये प्रशंसनीय हैं। मैं उनको धन्यवाद देते हुए भविष्य के लिये मंगल कामना करता हूँ।' आभार माना प्रो. नवीन सी. जैन ने। कार्यक्रम में सैकड़ों श्रद्धालुजनों के अतिरिक्त प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल - मेरठ, डॉ. टी. वी. जी. शास्त्री - सिकन्दराबाद, प्रो. गोकुलचन्द्र जैन - आरा. डॉ. स्नेहरानी जैन - सागर, प्रो. सी. के. तिवारी, प्रो. जे. सी. उपाध्याय, प्रो. महेश दुबे, श्री सूरजमल बोबरा, डॉ. सरोज कोठारी, डॉ. सरोज चौधरी (सभी इन्दौर) आदि अनेक विद्वान उपस्थित थे। ___ कार्यक्रम का संचालन किया डॉ. अनुपम जैन ने एवं आभार माना प्रसिद्ध समाजसेवी श्री अजितकुमारसिंह कासलीवाल ने। * सम्पदक - सन्मति वाणी 201, अमित अपार्टमेन्ट, 1/1, पारसी मोहल्ला, छावनी, इन्दौर - 452 001 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000

Loading...

Page Navigation
1 ... 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104