Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 18
________________ शरदपूर्णिमा के दिन प्रभु चरणों में समर्पित की। अनेक रस और अलंकारों से समन्वित इस स्तुति का बीसवां छन्द दृष्टव्य है - सुभक्तिवरयंत्रत: स्फुटरवा ध्वनिक्षेपकात्। सुदूर - जिन - पार्श्वगा भगवत: स्पृशंति क्षणात्॥ पुन: पतनशीलतोऽवपतिता नु ते स्पर्शनात्। भवन्त्यभिमतार्थदा: स्तुतिफलं ततश्चाप्यते।। 20॥ अर्थात् हे भगवन्! आपकी श्रेष्ठ भक्ति ही ध्वनिविक्षेपण (रेडियो आदि) यंत्र है उससे प्रगट हई शब्द वर्गणाएं बहत ही दर तक सिद्धालय में आपके पास जाती हैं और वहाँ आपका स्पर्श करती हैं। पुन: पुदगलमयी शब्द वर्गणाएं पतनशील होने से यहाँ आकर भव्यजीवों के मनोरथ की सिद्ध कर देती हैं अतएव इस लोक में स्तुति का फल पाया जाता है अन्यथा नहीं पाया जा सकता था। इसमें उपमा अलंकार का प्रयोग करते हुए लेखिका ने जिनेन्द्रभक्ति को वायरलेस की तरह बतलाया है कि भक्तों की स्तुति के शब्द सिद्धशिला का स्पर्श करने के कारण कार्यसिद्धिकारक बन जाते हैं इसीलिए सच्चे मन से स्तुति करने वाले भक्त श्रीमानतुंगाचार्य, श्रीवादिराजमुनिराज, धनंजयकवि आदि के मनोरथ तुरन्त सिद्ध होने के उदाहरण स्पष्ट हैं। संस्कृत की इस मूलरचना के साथ ही इस चातुर्मास में माताजी ने "पात्रकेसरी स्तोत्र'' 16 का हिन्दी पद्यानुवाद एवं "आलापपद्धति' 17 नामक पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी किया जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी है। इसी प्रकार सन् 1968 के प्रतापगढ़ (राज.) के चातुर्मास में 35 श्लोकों में "पंचमेरूस्तुति' 18 की रचना हुई जो वर्तमान में "पंचमेरूभक्ति:" नाम से जिनस्तोत्रसंग्रह 19 में प्रकाशित है। पूज्य माताजी ने इस स्तुति के अन्त में प्राकृत की अंचलिका जोड़कर आचार्य श्री कुन्दकुन्द एवं पूज्यपादस्वामी द्वारा रचित दशभक्तियों के समान यह नई भक्ति बना दी है जिसे अनेक साधु - साध्वी पंचमेरू व्रतादि में पढ़ करके अतिशय प्रसन्न होते हैं। सन् 1969 के जयपुर चातुर्मास में इन्हेंने 36 श्लोकों में 'वीरजिनस्तुति" 20 बनाई और उस समय आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज के पट्ट पर आसीन तृतीय पट्टाचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज की दो स्तुतियाँ संस्कृत में लिखीं। इनमें से एक में "वसन्ततिलका" छन्द के 8 श्लोक हैं और दूसरी उपजाति के 12 छन्दों में निबद्ध है। 21 पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् 1957 से लेकर सन् 1971 तक और उसके बाद समय - समय पर अनेक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को अपने विशिष्ट ज्ञान के आधार पर संस्कृत व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, सिद्धान्त आदि का अध्ययन कराया। जिसे देख - देखकर आचार्यश्री वीरसागर महाराज, आचार्य श्री शिवसागर महाराज एवं आचार्य श्री धर्मसागर महाराज अतीव प्रसन्न होते थे। जयपुर चातुर्मास में मैं प्रथम बार पूज्य माताजी के दर्शन करने आई तो देखा कि मेंहदी चौक के मंदिर में एक आर्यिका माताजी सुबह 7 से 10 बजे तक और मध्यान्ह 11 बजे से 12 बजे तक अपरान्ह 1 बजे से 5 बजे तक अनेक साधु - साध्वियों को पढ़ाती रहती थीं। मुझे तब पहली बार ज्ञात हुआ कि ये मेरी सबसे बड़ी बहन और वर्तमान में आर्यिका ज्ञानमती माताजी हैं। उस समय अध्ययन कक्षा में आचार्य श्री के अतिरिक्त मुनि श्री बोधिसागरजी, मुनि श्री निर्मलसागरजी, मुनि श्री बुद्धिसागरजी, मुनि श्री 16 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000

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