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- अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर,
वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 37 - 40 ज्ञान विज्ञान का आविष्कारक - भारत
- आचार्य कनकनन्दी*
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दिनांक 23.11.99 को झाडोल (सागवाड़ा) में सम्पन्न सर्वोदय शिक्षा मनोविज्ञान संगोष्ठी में आचार्य श्री कनकनंदीजी द्वारा दिया गया प्रवचन, जिसे सुनकर उपस्थित वैज्ञानिक, प्राध्यापक, न्यायविद्, प्राचार्य, शोधार्थीगण, पत्रकार रोमांचित एवं गौरव से अभिभूत
हुए। यह प्रेरणादायी उद्बोधन यहाँ प्रस्तुत है - जिस प्रकार वृक्ष के लिये बीज, उसी प्रकार भूतकालीन सभ्यता, संस्कृति हर राष्ट्र या समाज के लिये जरूरत है क्योंकि उन घटनाओं व परम्पराओं से शिक्षा लेकर के हम आगे बढ़ सकते हैं। केवल इतिहास पढ़ लेना यह तो केवल सड़े- गले शव को उखाड़ना है। इतिहास उसे कहते हैं जिसमें महापुरुष के बारे में वर्णन किया गया हो, जिससे हमें प्रेरणा मिले। एक मराठी कवि ने कहा है -
महापुरुष होउनगेले त्यांचे चारित्र पहाजरा।
आपण त्यांचे समान ह्वावे यांचे सापडे बोध खरा। हम इतिहास, पुराण आदि पढ़ते हैं वह क्या मनोरंजन, गुणगान या समय व्यतीत करने के लिये? नहीं। बल्कि केवल जो महापुरुष हो गये हैं उनके चरित्र क करने के लिये, उसको पढ़कर उनके आदर्शों को जीवन में अपनाकर, उनके समान बनकर राष्ट्र को विश्वगुरु के रूप में प्रतिस्थापित करने के लिये।
हमारा भारत कभी विश्वगुरु था क्योंकि हमारे भारत में आधुनिक विज्ञान की हर शाखा थी। ऐसा कहा गया है कि -
कला बहत्तर नरन की, यामें दो सरदार।
एक जीवन की जीविका, एक जीव उद्धार । कलायें बहत्तर होती हैं। उन बहत्तर कलाओं में दो कलायें सर्वश्रेष्ठ हैं। एक कला है जीव की जीविका 'शरीर माद्यम् खलु धर्म साधनम्। जीव की जीविका के अन्तर्गत वाणिज्य, शिल्प कला, व्याकरण, इतिहास, पुराण आते हैं। दूसरी कला है - जीव उद्धार। इन बहत्तर कलाओं में समस्त विद्यायें, परा विद्याएँ हमारे भारत में किस प्रकार थी उन सभी के बारे में मैं यहाँ संक्षिप्त में प्रकाश डालंगा। सर्वप्रथम मैं यह बताना चाहँगा कि जिस प्रकार सम्पूर्ण सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, ब्रह्माण्ड आकाश में गर्भित हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान - विज्ञान का उदय विकास केवली तीर्थंकर से हुआ है। इसलिये सम्पूर्ण ज्ञान - विज्ञान के सम्पादक आविष्कारक प्रवक्ता केवली भगवान हैं।
य: सर्वाणि चराचराणि विधि- वद, द्रव्याणि तेषां गुणान्। पयार्ययानपि भूत - भावि - भावित; सर्वान् सदा सर्वदा। जानीते युगपत - प्रतिक्षण - मत: सर्वज्ञ इत्युच्यतेः ।
सर्वज्ञाव जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नमः॥ आइंस्टिन ने कहा है -
'We can only know the relative truth. The real truth is known only to the Universal Observer.'
*दि. जैन श्रमण परम्परा में दीक्षित आचार्य।