Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 44
________________ में भी प्राप्त नहीं होते हैं। स्वयं स्वामीजी गणित के विद्वानों के सम्मुख उस परिशिष्ट की प्रति या कोई ठोस आधार आगामी गवेषणा हेतु प्रस्तुत नहीं कर सके। सूत्रों की भाषा भी वैदिककालीन नहीं है। यह गहन चिन्तन का विषय है कि उनके जैसा विद्वान और पुनीत हृदय सन्त क्यों इन सूत्रों को वैदिक बताना चाहता है? इस संबंध में मंजुला त्रिवेदी के अभिकथन पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। उनके अनुसार स्वामीजी कहा करते थे कि उन्होंने प्रत्येक सूत्र के लिये अलग - अलग खण्ड लिखे हैं। परन्तु उनकी पाण्डुलिपियाँ पूर्ण रूप से विनष्ट हो गयीं। वैदिक गणित की कृति को उन्होंने एकान्तवास के वर्षों बाद स्मृति के आधार पर लिखा। कहीं वह युक्ति भी उन पाण्डुलिपियों के साथ विनष्ट तो नहीं हो गयीं, जिसके आधार पर उद्घाटित ज्ञान के सहारे इन सूत्रों का पुनर्निर्माण किया गया है। स्वामीजी का अध्ययन क्षेत्र बहुत व्यापक था। वेदों सहित सारे वैदिक साहित्य और तत्सामयिक शैली का उन्हें ज्ञान था। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय गणित का भी उन्हें बहुत ज्ञान होगा, ऐसा लगता है। गणित में स्वयं एम.ए. होने से उन्हें उनके समय के प्रचलित गणित का भी ज्ञान था। गणित के पाश्चात्य इतिहास से स्वामीजी अवगत थे, यह तथ्य राहुल सांकृत्यायन द्वारा उद्घाटित होता है। राहुलजी स्वामीजी के जेल के साथी थे, जहाँ स्वामीजी उन्हें गणित पढ़ाते - पढ़ाते पश्चिम के गणितज्ञों की कथायें भी सुनाया करते थे। मुंगेर में राजनीतिक भाषण देने के लिये 1923 में एक वर्ष की सजा सुनाकर स्वामीजी को बक्सर और हजारीबाग की जेलों में रखा गया था। भारतीय साहित्य में लाघव का महत्वपूर्ण स्थान है, जिसे गणित एवं विज्ञान में विशेष रूप से मूल्यवान समझा जाता था। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में लेखन सामग्री से लेकर अध्यापन प्रणाली तक लाघव पाया जाता है। __ ऐसा लगता है सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का ज्ञान, गणित का व्यापक ज्ञान और लाघव स्वामीजी को वह युक्ति खोजने में सहायक हुए हों, जिसके आधार पर इन सूत्रों को विकसित किया गया है। यदि ऐसा है, तो इन सूत्रों की गणित के एक विधा में खोज हुई है, जिसका श्रेय स्वामीजी को जाता है। अब यह भी संभव है कि नि:स्वार्थ महान संत स्वामीजी ने श्रेय स्वयं नहीं लेकर उन अज्ञात पूर्वजों को देना उचित समझा, जिनके साहित्य के आधार पर वे ऐसा कर पाये। स्वामीजी के पहले भी भारत और विदेशों में द्रुतगति से परिणाम देने वाली विधियों का विकास किया गया है। नवमी शताब्दी के जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने भी गुणा करने की एक से अधिक विधियों का वर्णन किया है। वर्ग करने की विशिष्ट रीति का भी उल्लेख किया है। स्वामीजी की विधियाँ उनके पूर्व के भारतीय गणितज्ञों की विधियों से या समानता रखती हैं या फिर तनिक नवीनता। अठारहवीं शताब्दी की फ्रांसीसी गणितज्ञा माक्र्वी एमिली दु शातले में भी त्वरित गणन शक्ति थी। सन् 1888 में जन्में रशियन इंजिनीयर जेकाऊ ट्रेचटनबर्ग ने भी द्रुतगति से परिणाम देने वाली विधियों का स्वयं विकास किया था। यह कार्य उन्होंने हिटलर के राजनैतिक कैदियों के शिविर में रहते हुए किया। स्वामीजी की द्रुतगति से परिणाम देने वाली विधियों की प्रमुख विशेषता यह है कि इन विधियों को सोलह सूत्रों के अधीन लाया गया है। यही अप्रतिम विशेषता उनको | अर्हत् वचन, अप्रैल 2000

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