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मंगलाष्टक स्तोत्र (अनुष्टुप के 9 श्लोक), मंगलाष्टक (अनुष्टुप के 9 श्लोक), स्वस्तिस्तवन (इन्द्रवज्रा के श्लोक), समयसार वंदना (अनुष्टुप के 10 एवं मन्दाक्रान्ता का 1 ऐसे 11 श्लोक), सोलहकारणभक्ति (उपजाति के 17 एवं अनुष्टुप का 1 ऐसे 18 श्लोक) तथा उत्तमक्षमा आदि दशलक्षण धर्म का सार को बतलाने वाली "दशधर्मस्तुति" अनुष्टुप के 54 छन्दों में निबद्ध है। 52 इन सबमें भक्तिरस, अध्यात्म, करूणा एवं शान्तरस की प्रधानता के साथ - साथ उपमा, यमक, श्लेष, अनुप्रास आदि अलंकारों का समावेश स्तुति रचयित्रि की काव्य प्रतिभा का दिग्दर्शन कराता है।
इनकी रचनाओं में कहीं भी ग्रामीण एवं अश्लील शब्दों का प्रयोग तो देखने में नहीं आता है प्रत्युत उच्चकोटि के साहित्यिक शब्दों का प्रयोग संस्कृत कोश के अध्ययन का प्रतीक है। संस्कृत रचनाओं में जैन व्याकरण के एक विशेष नियम का प्रयोग है -
इनके द्वारा रचित अनेक स्तोत्रों में पाद के अन्त में कई जगह मकार के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग है जिसे देखकर अच्छे - अच्छे संस्कृतज्ञ विद्वान इसे संस्कृत की त्रुटि मानकर वहां मकार लिखने की सलाह देने लगते हैं किन्तु इस विषय में पूज्य माताजी ने बताया कि मैंने अपनी स्तुतियों में जानबूझकर जैन व्याकरण के इस नियम को अपनाते हए ही पदांत मकार को. अनुस्वार किया है क्योंकि कातन्त्ररूपमाला में श्रीशर्ववर्म आचार्य ने व्यंजनसंधि के 92 वें सूत्र "विरामे वा' में कहा है कि "विराम में पदांत मकार का अनुस्वार विकल्प से होता है "जैसे - देवानां अथवा देवानाम्, पुरूषाणां अथवा पुरूषाणाम् देवं अथवा देवम्।53
यह वैकल्पिक नियम कातंत्रव्याकरण के अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी व्याकरण में नहीं है, सर्वत्र विराम में अनुस्वार न करने अर्थात् मकार ही रखने का विधान है। इस नियम को प्रमाण मानकर विद्वज्जन माताजी द्वारा रचित गद्य-पद्य सभी रचनाओं में पदान्त में प्रयुक्त अनुस्वार को व्याकरण की गलती न समझकर विशेष नियम का प्रयोग ही समझें। जैसे - श्रीपार्श्वजिनस्तुति के इस पृथ्वी छन्द को देखें जिसके चारों चरणों के अन्त में अनुस्वार है -
सुरासुर - खगेन्द्रवंद्य - चरणाब्जयुग्म प्रभुं। महामहिम- मोहमल्ल- गजराज-कंठीरवं॥ महामहिम - रागभूमिरुह - मूलमुत्पाटनं।
स्तवीमि कमठोपसर्गजयि - पार्श्वनाथं जिनं। 1।54
तथा पदान्त में मकार प्रयोगवाली स्तुतियाँ भी हैं, श्रीशांतिसागर स्तुति का भुजंग प्रयात छंद में निबद्ध निम्न पद्य देखें -
सुरत्नत्रयैः सद्रवतै जमान:, चतु:संघनाथो गणीन्द्रो मुनीन्द्रः। महामोहमल्लैकजेता यतीन्द्रः,
स्तुवे तं सुचारित्रचक्रीशसूरिम्।। 1।।55 षट्खण्डागम ग्रन्थ की संस्कृत टीका - सिद्धान्तचिन्तामणि -
अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के पश्चात् उनकी दिव्यध्वनि से प्राप्त अंग - पूर्वो का ज्ञान जब लुप्तप्राय: होने लगता तब ईसवी सन् 73 के लगभग श्रीधरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त - भूतबली
अर्हत् वचन, अप्रैल 2000
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