Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 33
________________ अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 2, अप्रैल 2000, 31 - 35 ऋषभ निर्वाण भूमि - अष्टापद - उषा पाटनी* शपा। 'अष्टापद कैलाश शिखर पर्वत को वंदू बारम्बार। ऋषभदेव निर्वाण धरा की गूंज रही है जय-जयकार॥ बाली महाबाली मुनि आदिक मोक्ष गये श्री नामकुमार। इस पर्वत की भाव वन्दना कर सुख पाऊँ अपरम्पार॥ भगवान ऋषभदेव भारत वर्ष के महाकाश में सदैव चमकने वाले जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। वे एक ऐसे ज्योतिपुंज हैं, जिन्होंने समस्त वसुन्धरा को अपने तप की तेजस्विता से दैदीप्यमान किया। भारतीय परम्परानुसार ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर हुए जिन्होंने अनादि निधन आत्मधर्म को स्वयं अंगीकार कर वीतराग भाव से उसकी पुनर्व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने आत्म साधना के विशुद्ध मार्ग पर चलकर मानव को स्वानुभूति के प्रतिष्ठित मार्ग पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया। आधुनिक खोजों से यह सिद्ध हो गया है कि विश्व की अनेक संस्कृतियों में ऋषभदेव किसी न किसी रूप में पूज्य माने गये हैं। चैत्र बदी नवमी को महाराज नाभिराय के राजमहल में माता मरूदेवी के गर्भ से उत्पन्न ऋषभदेव हमारे प्रथम तीर्थंकर थे जिनका जन्म अयोध्या में हुआ था। पंचकल्याणक विभूति से विभूषित ऋषभदेव के गर्भ में आने से पूर्व माता मरूदेवी ने सोलह शुभ स्वप्न देखे, तब देवों द्वारा अयोध्या नगरी की सुन्दरतम रचना हुई। जन्म होने के पश्चात् देवों द्वारा भगवान का अभिषेक कर देवोपनीत वस्त्र पहनाये गये। वज्र वृषभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्त्र संस्थान के धारी ऋषभदेव का रूप अनुपम था। 1008 लक्षणों से युक्त अनंत चतुष्टय के धारी ऋषभदेव 34 अतिशय से सम्पन्न थे। ऋषभदेव की दो रानियाँ थीं जिनसे उत्पन्न 100 पुत्र व 2 पुत्रियाँ थीं। कर्मयुग के प्रणेता श्री ऋषभदेव को नर्तकी नीलांजना की मत्य को देखकर वैराग्य हो उन्होंने अपने पुत्रों को राज्य भार सौंपकर जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार की एवं कठोर साधना का पथ अंगीकार किया। निराहार रहकर छह मास तक तपस्या करने का नियम पूर्ण होने पर ऋषभदेव आहार के लिये निकले, परन्तु आहार विधि का ज्ञान न होने से प्रजाजन चाहकर भी भगवान को आहार नहीं दे पाये। छह माह व्यतीत होने के पश्चात् हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस के यहाँ उनका प्रथम आहार हुआ। कठोर तप साधना करते हुए पुरिमताल नगर के शकरास्य उद्यान में पद्मासन धारण कर उन्होंने शुक्ल ध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी में आरोहण किया, चारों घातिया कर्मों को नष्ट कर उनकी आत्मा केवलज्ञान से मंडित हो गई, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के निर्देशन में देवों ने समवसरण की रचना की जहाँ भगवान की लोक कल्याणकारी दिव्य - ध्वनि खिरी। भगवान ने सम्पूर्ण देश में एक हजार वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्षों तक धर्म विहार किया। जब उनकी आयु के चौदह दिन शेष रहे तब वे श्री शिखर और सिद्ध शिखर के बीच स्थित कैलाश पर्वत पर पहुँचे एवं योग - निरोध के लिये ध्यानस्थ हो गये। माघ कृष्णा चतुर्दशी को भगवान ने सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति नामक तृतीय शुक्ल ध्यान द्वारा तीन योगों का निरोध किया तथा व्युपरतक्रियानिवृति नामक चौथे शुक्ल ध्यान के द्वारा शेष अघातिया कर्मों का नाश किया और सिद्धत्व को प्राप्त कर जन्म - मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष महल में अपने कदम रखे। * सह - सम्पादिका - ऋषभदेशना, 365, कालानी नगर, इन्दौर।

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