Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 25
________________ लघुत्वं चैति पंचैते, पिच्छिकायां गुणा मता: 147 अर्थात् पसीना और धूलि को ग्रहण न करना, मृदुता, सुकुमारता और लघुता ये पाँच गुण पिच्छिका में माने गये हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की रक्षा हेतु ही यह पिच्छिका समस्त दिगम्बर जैन आम्नाय के साधु-साध्वियों को ग्रहण करना आवश्यक होता है। अर्थात् उनका चिन्ह ही पिच्छिका होती है, उसके बिना 'साधु' संज्ञा प्राप्त नहीं होती है क्योंकि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी 'गिप्पिच्छे णत्थि जिव्वाणं' 48 पद से यही भाव प्रगट किया है। इस प्रकार अनेक प्रकरणों से समन्वित यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण पठनीय है। इसकी संस्कृत - हिन्दी टीका हो जाने पर निश्चित ही यह एक "मूलाचार' ग्रन्थ की भाँति साधुओं की संहिता के रूप में प्रचलित हो जाएगा। ग्रन्थ पर संस्कृत टीका लिखने की मेरी तीव्र अभिलाषा है, पूज्य माताजी के आशीर्वाद से मुझ में यह शक्ति जागृत हो यही मंगल भावना है। नियमसार की स्याद्वादचन्द्रिका टीका अध्यात्मजगत को अमर देन - आचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी का नियमसार ग्रन्थ आपकी विशेष अभिरूचि का पात्र प्रतीत होत है क्योंकि सन् 1977 में नियमसार की मूल गाथाओं का पद्यानुवाद किया एवं श्रीपद्मप्रभमलधारी देवकृत उसकी संस्कृत टीका का भी हिन्दी में अनुवाद किया जो फरवरी सन् 1985 में प्रकाशित हो चुका है। ___ इतना कार्य होने के बाद भी शायद आपको पूर्ण सन्तुष्टि नहीं हुई अत: कुन्दकुन्द के भावों को सरलतापूर्वक जनसाधारण को समझाने हेतु सन् 1978 में उन गाथाओं पर संस्कृत टीका लिखने का भाव बनाया और लगभग 62 ग्रन्थों के उद्धरण आदि के साथ नयव्यवस्था द्वारा मुणस्थान आदि के प्रकरण स्पष्ट करते हुए नवम्बर सन् 1984 में वह 'स्याद्रादचन्द्रिका" टीका लिखकर पूर्ण की है। टीका का हिन्दी अनुवाद भी आपने स्वयं ही किया है तथा प्रसंगोपात्त विशेषार्थों से ग्रन्थ में चार चाँद लग गए हैं। सन् 1985 में यह ग्रन्थ प्रकाशित होकर विद्वान पाठकों तक पहुँच मया।50 इस टीका में 6 वर्ष लगने का कारण माताजी ने स्वयं "आद्यउपोद्घात' में बताया है कि 74 गाथाओं की टीका एक वर्ष में हो गई थी पुन: सन् 1979 में सुमेरूपर्वत की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के बाद मैंने दिल्ली की ओर विहार कर दिया अत: लेखन बन्द हो गया पुन: अन्य अनेक लेखन कार्य आदि में व्यासंग से उसकी ओर ध्यान ही नहीं गया। सन् 1984 के चातुर्मास में जब उसका वाचन करने के लिए हस्तलिखित टीका पृष्ठ निकाले गये तो संघस्थ कु. माधुरी (वर्तमान में आर्यिका चन्दनामती माताजी) के निवेदन पर मैंने पुन: टीकालेखन प्रारंभ किया और 24 नवम्बर सन् 1984 को पूर्ण कर दिया। इस प्रकार पहले 11 माह तक पुन: 8 माह तक इसका लेखन करके कुल 19 माह में इसकी संस्कृत और हिन्दी दोनों टीकाएं लिखकर पूर्ण की हैं। इस नियमसार ग्रन्थ में कुल 187 गाथाएं हैं। तीन महाधिकार और सैंतीस अंतराधिकारों में माताजी ने ग्रन्थ का विभाजन किया है। इसकी प्रस्तावना में डा. लालबहादुर जैन शास्त्री-दिल्ली ने लिखा है कि "यदि इस टीका को नारी जगत के मस्तक का टीका कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी क्योंकि किसी महिला साध्वी के द्वारा की गई वह पहली ही टीका है जो शब्द, अर्थ और अभिप्रायों से सम्पन्न है।" 51 आचार्य श्रीकुन्दकुन्द ने जिस प्रकार समयसार आदि ग्रन्थों में अध्यात्मतत्व का विशेष वर्णन किया है उसी प्रकार नियमसार में मुनियों के व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय का वर्णन अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 23

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