Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

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Page 24
________________ विद्यमान हैं और साधु शब्द से सम्बोधित किये जाने वाले तो लाखों होंगे, किन्तु उन सभी में जैन संतों एवं साध्वियों की संख्या अत्यल्प है और उसमें भी दिगम्बर जैन मुनि, आर्यिका और क्षुल्लक, क्षुल्लिका के चतुर्विध संघ के साथ पैदल विहार करने वाले साधु - साध्वी मात्र भारतवर्ष की वसुन्धरा पर ही उपलब्ध होते हैं और उनकी संख्या 1000 से कम ही है। लगभग सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में सैकड़ों की यह संख्या यद्यपि नगण्य के बराबर है फिर भी उनकी चर्या अपने आप में विलक्षण और आत्मोन्मुखी मानी गई है। जैन साधु - साध्वियों की प्रत्येक चर्या एवं क्रिया में मूलरूप से अहिंसा धर्म के पालन की प्रमुखता है जिससे द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों से विरक्ति होती है। इस 'आराधना' ग्रन्थ में उपर्युक्त आठ अधिकारों में से 'चारित्राराधना' नामक तृतीय अध्याय में मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण बतलाते हुए माताजी ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का वर्णन करते हुए 'महाव्रत' शब्द की सार्थकता बतलाई है - तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादि महापुरुषसेवितम्। तस्मान्महाव्रतं ख्यातमित्युक्तं मुनिपुंगवै: ।। 55 ||" अर्थात् तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदिमहापुरुषों के द्वारा जो सेवित हैं इसलिये ये महाव्रत इस प्रकार से प्रसिद्ध हैं, ऐसा मुनिपुगंवों ने कहा है। इस विषय में श्वेताम्बर जैन परम्परा का मत है कि भगवान ऋषभदेव से लेकर पार्श्वनाथ तक चातुर्याम धर्म का प्रचलन था अर्थात् वे अहिंसा, सत्य, अचौर्य एवं अपरिग्रह ये चार महाव्रत पालते थे और अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इसमें ब्रह्मचर्य को मिलाकर पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है किन्तु दिगम्बर जैनियों की मान्यतानुसार ऐसा नहीं है। बल्कि पाँच महाव्रत तो प्राकृतिक रूप से अनादिकाल से जैन साधु- साध्वी पालन करते आ रहे हैं ऐसा वर्णन चरणानुयोग ग्रन्थों में पाया जाता है। श्री गौतमगणधरस्वामी ने भी पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्रों में महाव्रत के विषय में कहा है कि - 'पढ़मे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं उवट्ठावण ---- मंडले महत्थे महागुणे महाणुभावे महाजसे महापुरिसाणु-चिण्णे ----145 इसके हिन्दी पद्यानुवाद में पूज्य ज्ञानमती माताजी ने लिखा है - प्रथममहाव्रत में प्राणों के घात से विरती होना है। यह महाव्रत उपस्थापनामंडल प्रशस्त सव्रतारोपण है। महाअर्थ है महानुगुणमय महानुभाव महात्म्य है। महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।46 अर्थात् तीर्थंकर आदि महापुरुष भी इन महाव्रतों को एक सामायिक चारित्र रूप से धारण करते हैं इसीलिये इन व्रतों को महाव्रत की संज्ञा दी है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का पूर्ण रूप से त्याग ही महाव्रत रूप से परिणत हो जाता है तथा इन महाव्रतों का पालन करने वाले दिगम्बर साधु महाव्रती मुनि कहलाते इस आराधना ग्रन्थ के छठे अधिकार में साधुओं के संयम का उपकरण जो मयूरपंख की पिच्छिका होती है, उसके गुणों के बारे में बतलाया है - __ स्वेदधूल्योरग्रहणं, मार्दवं सुकुमारता। 22 अर्हत् वचन, अप्रैल 2000

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