Book Title: Arhat Vachan 2000 04
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ पुन: वास्तव में ऐसा चमत्कार हुआ कि राग पर वैराग्य की विजय हुई। मेरी आराधना की शक्ति से माँ के भावों में परिवर्तन आया और मेरे द्वारा रात भर उन्हें समझाए जाने पर उन्होंने रोते हुए एक कागज पर अपनी स्वीकृति लिखकर दे दी, जिससे मुझे अगले दिन शरदपूर्णिमा को आचार्यश्री ने ब्रह्मचर्य व्रत एवं गृहत्याग व्रत प्रदान कर दिया। भारत को आजादी दिलाने में सहयोगी वीरपुरूषों की भाँति इनका त्याग सचमुच में वर्तमान की कुमारी बालसती आर्यिकाओं के लिए अनुकरणीय है कि इनके बनाये मार्ग पर आज हम चलने के लिए स्वतंत्र हो सके हैं। आपने 33 वें जन्मदिन पर पूज्य श्री द्वारा रचित यह चन्द्रप्रभस्तुति वास्तव में बनारस की घटना वाली समन्तभद्रस्वामी की चमत्कारिक स्तुति का ही स्मरण कराती है। " इसी चातुर्मास में इन्होंने आर्याछन्द के 63 श्लोकों में एक " त्रैलोक्य चैत्यवंदना 12 बनाई जिसमें तीनों लोकों के आठ करोड़ छप्पन लाख सतानवे हजार चार सौ इक्यासी अकृत्रिम जिन चैत्यालयों में विराजमान नव सौ पचीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताइस हजार, नव सौ अड़तालीस जिन प्रतिमाओं की वन्दना करते हुए मोक्ष के शाश्वतसुख की अभिलाषा व्यक्त की है। पुनः इसी सन् 1966 में इन्होंने 84 श्लोकों के द्वारा " श्रीसम्मेदशिखरवंदना 13 लिखी है। उसमें प्रत्येक कूट से मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर एवं मुनियों की गणना देकर सबको सोलापुर में ही बैठकर भावों से नमन किया है। स्तुति के अंतिम छन्दों में कैलाशपर्वत, चम्पापुर, गिरनार, पावापुर आदि अन्य निर्वाणभूमियों की भी वन्दना की है। उपर्युक्त तीनों स्तुतियों का हिन्दी पद्यानुवाद भी माताजी ने स्वयं करके जनसामान्य को उनके रसास्वादन का अवसर प्रदान कर दिया है। इस प्रकार संस्कृत साहित्य के विकास में इन्होंने सन् 1966 में 180 श्लोक तीन संस्कृत स्तुतियों के माध्यम से प्रदान किये और कुछ फुटकर हिन्दी रचनाओं के साथ सदैव संघ का अध्यापन कार्य चलता रहा जो इनके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का प्रतीक है। सोलापुर के "श्राविकाश्रम'' में किये गये इस चातुर्मास की स्मृति वहाँ आज भी नजर आती है कि वहाँ की संचालिका ब्र. सुमतिबाई जी एवं ब्र. कु. विद्युल्लता जैन शहा के आदेशानुसार वहाँ की सैकड़ों बालिकाएं पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित "उषा वंदना' 14 सामूहिक रूप से पढ़ती हैं। माताजी बताती हैं कि मेरे प्रवास काल में ही वहाँ यह उषा वंदना खूब अच्छी तरह से पढ़ी जाती थी और पण्डिता सुमतिबाईजी मेरे ज्ञान का क्षयोपशम देखकर अतीव प्रसन्न होती थीं तथा मेरे द्वारा चलाई गयी लब्धिसार एवं समयसार आदि की शिक्षण कक्षा में भी वे भाग लेती थी । उपर्युक्त स्तुतियों पर यदि विद्वानों द्वारा जाय तो कालिदास के रघुवंश आदि काव्यों की से वृद्धि हो सकती है। 34 श्लोकों की शांतिजिनस्तुति दक्षिण भारत से विहार करके ज्ञानमती माताजी राजस्थान में आचार्यश्री शिवसागर महाराज के संघ में आ रही थीं उसके मध्य इन्दौर शहर के निकट " सनावद " नामक नगर में सन् 1967 के चातुर्मास का योग आ गया। वहाँ अपने जीवन के 34 वें वर्ष के प्रवेश पर इन्होंने पृथ्वीछन्द के 34 श्लोकों में शांतिनाथ भगवान की एक स्तुति 15 रचकर अर्हत् वचन, अप्रैल 2000 15 संस्कृत - हिन्दी टीकाओं का लेखन किया भाँति इनकी लोकप्रियता में निश्चित रूप -

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104