Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 12
________________ अपभ्रंश भारती 19 “हिन्दुस्तान की भाषा के लिए 'जबाने हिंद' नाम तो अरबी में दसवीं शताब्दी के पूर्व ही प्रचलित था पर उससे संभवतः हिन्दुस्तान की सभी भाषाओं का बोध । था। उत्तर भारत की भाषाओं के लिए 'हिंदवी' नाम का प्रयोग मुसलमानों द्वारा ही तेरहवीं शताब्दी में मिलने लगता है। औफी और अमीर खुसरो ने 'हिन्दवी', 'हिन्दी' नामों का प्रयोग उत्तर भारत की भाषाओं के लिए किया है। उस समय उत्तर भारत में साहित्यिक भाषा के रूप में अपभ्रंश का ही प्रचलन था। अतः 'हिन्दवी' अपभ्रंश का भी द्योतक हो जाती है। यदि यह माना जाए कि मुस्लिम लेखकों ने उत्तर भारत में प्रचलित बोलियों के लिए 'हिन्दवी' और 'हिन्दी' शब्दों का प्रयोग किया है तो हिन्दी क्षेत्र की बोलियों का सम्बन्ध अनायास तेरहवीं शताब्दी और उसके पूर्व की भाषित बोलियों से जुड़ जाता है।'' यह भी एक तरह की सम्भावना ही है। लेकिन एक बात तो तय है कि काव्य और शास्त्र दोनों दृष्टियों से सातवीं-आठवीं में अपभ्रंश का व्यवहार हो रहा है। दण्डी का यह कथन इस ओर संकेत करता है - __ आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंशतयोदिताः। शास्त्रेषु संस्कृतादन्यदपभ्रंश इति स्मृतम्॥ रही बात अपभ्रंश के लोक भाषा, देश भाषा, सामन्त भाषा, वीर भाषा या ग्राम्य भाषा की; तो भाषा जितने प्रकार की हो, अपभ्रंश को साहित्यिक दृष्टि से देखने में किसी भाषाविद् या साहित्यविद् को कोई आपत्ति नहीं है। 'हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास' लिखते हुए (पृ. 116 पर) सुमन राजे का यह कहना समीचीन लगता है - "भाषाओं को पूर्वापर परम्परा में देखने की आदत और प्रत्येक भाषा के पृथक्-पृथक् साहित्येतिहासों ने चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने नहीं दिया। हम कालानुक्रम में प्रभाव की बात तो सोचते हैं परन्तु समकालीन समानान्तर अन्तःसम्बन्धों को नजरअन्दाज कर देते हैं। एक छोटा-सा उदाहरण कालिदास से लिया जा सकता है। वे संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ कवि और नाटककार हैं, उनके नाटकों में प्राकृतों का प्रयोग तो है ही 'विक्रमोर्वशीय' में अपभ्रंश छन्दों का प्रयोग भी प्रासंगिक रूप से हुआ है। यह भाषाओं की आन्तरिक संचरणशीलता है।" यह आन्तरिक संचरणशीलता ही हृदयपक्ष की थाती है जो वैमत्य के घेरे को तोड़कर एक राह बनाती है जिस पर चलने के लिए वह सर्जक भी आतुर रहता है जो इसे परवर्ती या पूर्ववर्ती से जोड़कर नहीं देखना चाहता। यह आन्तरिक संचरणशीलता ही है जो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की रट लगाती रही है। डॉ. भवानीदत्त उप्रेती का मानना

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