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अपभ्रंश भारती 19
गुलेरी ने तो जोर देकर कहा था कि अगर साहित्य के रूप में प्रयुक्त अपभ्रंश भाषा को कोई हिन्दी नहीं मानता तो ब्रजभाषा को भी हिन्दी नहीं मानना चाहिए तथा तुलसीदास की उक्तियों को भी हिन्दी नहीं कहना चाहिए। ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास' नामक पुस्तक में हजारीप्रसादजी का अपभ्रंश विषयक विवेचन भी देखा जा सकता है। रचनात्मक दृष्टि से (साहित्यिक और ऐतिहासिक) उत्तरकालिक अपभ्रंश को हिन्दी के साहित्य से जोड़कर देखा जा सकता है। हजारीप्रसादजी का मानना है - “जहाँ तक परम्परा का प्रश्न है, निस्सन्देह हिन्दी का परवर्ती साहित्य अपभ्रंश साहित्य से क्रमशः विकसित हुआ है।" लेकिन एक प्रश्न यहाँ पर पुनः उठ खड़ा होता है कि अपभ्रंश साहित्य अपने पूर्वकालिक रूप में किस तरह से प्रचलित था क्योंकि 'हिन्दी साहित्य के अतीत' में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का मानना है -
"इतिहास की दृष्टि से अपभ्रंश वाङ्मय का पृथक् ही विवेचन करने की आवश्यकता है। प्राकृत साहित्य की भांति अपभ्रंश साहित्य भी कई दृष्टियों से हिन्दीसाहित्य से पृथक् है। उसका विचार संस्कृत-प्राकृत के साहित्यों की भाँति पूर्व पीठिका के रूप में ही होना उचित है।....वह स्वयं संस्कृत-साहित्य से भले प्रभावित हो, पर उसने परवर्ती हिन्दी साहित्य को प्रभावित नहीं किया। जो कहते हैं कि तुलसीदास ने स्वयंभू का अनुधावन किया है वे स्वयं भ्रम में हैं और दूसरों को भ्रम में डालना चाहते
आचार्य मिश्र की इन पंक्तियों में हजारीप्रसादजी एवं राहुलजी से स्पष्ट असहमति दिखाई दे रही है। अपेक्षाकृत नये आचार्यों (यथा शिवप्रसादसिंहजी, नामवरसिंहजी) ने भी अपनी महत्वाकांक्षी कृतियों में इसे सामने रखकर किसी एक निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाया। इतिहास की अपनी बाध्यताएँ होती हैं। सर्जक जब उसमें से कुछ-कुछ निकालना चाहता है तब उसे कुछ का कुछ बनाना होता है। उसे भविष्य की चिन्ता होती है पर इस कुछ का कुछ करने से आसन्न खतरे भी भविष्य को ही उठाने पड़ते हैं। डॉ. गोपाल राय जब यह कहते हैं कि -
“आज अपभ्रंश का जो भी साहित्य मुद्रित रूप में उपलब्ध है वह देवनागरी लिपि में है। आधुनिक देवनागरी लिपि का स्वरूप भी दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ और अपभ्रंश साहित्य का काफी बड़ा हिस्सा उसके पूर्व का है। अतः देवनागरी लिपि में उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य अपभ्रंश की ध्वनियों का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व करता है, यह पूर्ण विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।'4 तो फिर और क्या कहा जाय। गोपालराय ने अपभ्रंश के नामकरण का एक नया आधार तलाशने की कोशिश भी की है। इन शब्दों में वे यही कहने की कोशिश करते हैं -