Book Title: Apbhramsa Bharti 2007 19
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 9
________________ काव्य में शब्द - विन्यास सुन्दर रूप में है और भाषा प्रांजल एवं सुष्ठ है। उसमें सूक्तियों, कहावतों एवं मुहावरों का सुन्दर प्रयोग हुआ है, जिनसे भाषा और भावों में सजीवता आ गई है। यह रचना काव्य-कला की दृष्टि से अपभ्रंश के प्रेमाख्यानक काव्यों में उत्कृष्ट है और कथानक रूढ़ियों के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भाव, भाषा एवं शैली की दृष्टि से यह अत्यन्त सम्पन्न तथा प्रसाद गुण से युक्त काव्य है । यद्यपि प्रायः सभी रसों की संयोजना इस काव्य में हुई है किन्तु मुख्यरूप से विप्रलंभ श्रृंगार का प्राधान्य है। काव्य- कथा की विशेषताओं को देखते हुए यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि वास्तव में यह कवि अपनी इस सुन्दर कृति के द्वारा अमर हो गया । किसी भी भाषा की अभिवृद्धि में शब्दों के पर्यायवाची का बहुत महत्त्व होता है। वस्तुतः वे शब्द भाषा के विपुल वैभव को प्रकट करते हैं। एक ही अर्थ के वाचक अनेक शब्द, जिनका समान भाव हो, पर्यायवाची शब्द कहलाते हैं। महाकवि स्वयंभू द्वारा रचित महाकाव्य 'पउमचरिउ' रामकथात्मक काव्य है। इसमें संज्ञा शब्दों के प्रयुक्त पर्यायवाची शब्दों से कवि की भाषा-संपदा का पता चलता है। चर्यापदों के अन्तर्गत समकालीन समाज की स्थिति, उसके सदस्यों की मनोवृत्ति, रहन-सहन, प्रथाओं तथा मनोरंजन के साधनों के बारे में भी संकेत मिलते हैं। संस्कृत के महाकवि भास की रचना 'अविमारकम्' में प्राकृत भाषा के अव्ययों का भरपूर प्रयोग किया गया है। अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा अपभ्रंश भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए शोधपत्रिका ‘अपभ्रंश भारती' प्रकाशित की जाती है; अपभ्रंश भाषा के अध्ययन-अध्यापन को सुगम बनाने के लिए अपभ्रंश व्याकरण की पुस्तकें प्रकाशित हैं; अपभ्रंश से सम्बन्धित शोध-खोज व लेखन के प्रोत्साहन के लिए 'स्वयंभू पुरस्कार' प्रदान किया जाता है, इनके साथ ही अपभ्रंश भाषा की पाण्डुलिपियों का सम्पादन- अनुवाद करवाना और उनका प्रकाशन कराना भी अकादमी की एक प्रमुख योजना है। पिछले अंकों में लघु-रचनाओं व काव्यांशों का प्रकाशन किया जा रहा है, उसी क्रम में इस अंक में 'मुणिसुव्रतानुप्रेक्षा' तथा 'सुप्पय दोहा' इन दो लघु रचनाओं का हिन्दी अर्थसहित प्रकाशन किया जा रहा है। 'मुनिसुव्रतानुप्रेक्षा' के रचनाकार हैं पण्डित जोगदेव, इसका सम्पादन तथा हिन्दी - अर्थ किया है श्रीमती शकुन्तला जैन ने । सुश्री प्रीति जैन द्वारा सम्पादित व हिन्दी - अर्थ युक्त 'सुप्पय दोहा' के रचनाकार हैं आचार्य सुप्रभ । हम इनके आभारी हैं। जिन विद्वान् लेखकों ने अपने लेख भेजकर इस अंक के प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया उनके प्रति आभारी हैं। संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी सम्पादक व कार्यकर्ताओं के भी आभारी हैं। मुद्रण के लिए जयपुर प्रिन्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर धन्यवादाह है। (viii) - डॉ. कमलचन्द सोगाणी

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