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अपभ्रंश भारती 19
अक्टूबर 2007-2008
अपभ्रंश साहित्य : एक दृष्टि
__- डॉ. शैलेन्द्रकुमार त्रिपाठी
हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों का मानना है कि आदिकाल में कुछ रचनाएँ ऐसी हैं जिन्हें अपभ्रंश-काव्य नाम दिया गया। अपभ्रंश की इन रचनाओं में सब प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं। कोई विशेष प्रवृत्ति व्यापक नहीं है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' नामक अपने ग्रंथ में एक जगह लिखा है - "बारहवीं शताब्दी तक निश्चित रूप से अपभ्रंश भाषा ही पुरानी हिन्दी के रूप में चलती थी, यद्यपि उसमें नये तत्सम शब्दों का आगमन शुरू हो गया था। गद्य और बोलचाल की भाषा में तत्सम शब्द मूल रूप में रखे जाते थे, पर पद्य लिखते समय उन्हें तद्भव बनाने का प्रयत्न किया जाता था।"2
सच तो यह है कि अपभ्रंश का सही स्वरूप लोकभाषा का था या देशभाषा का, इसे इतिहासकारों के जिम्मे अगर छोड़ दिया जाय तो सामान्य पाठक का कुछ अहित नहीं होने वाला। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसा अधिकारी अध्येता भी यह बात अधिकार के साथ नहीं कहता कि देशी भाषा और अपभ्रंश में क्या सम्बन्ध था या अपभ्रंश विशुद्ध लोकभाषा के रूप में हमारे सामने है। हिन्दी जाति का साहित्य लिखते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने 'देशीभाषा और अपभ्रंश' शीर्षक से इस विषय पर विस्तार से लिखा है। यद्यपि इसको भी सर्वथा निर्विवाद नहीं माना जा सकता। चन्द्रधर शर्मा