Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01 Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy View full book textPage 8
________________ प्रकाशकीय भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। यहां बहुत प्राचीन काल से ही लोक-भाषामों में साहित्य लिखा जाता रहा है । जीवन के विविध मूल्यों के प्रति जनता को जागृत करने के लिए लोकजीवन के विविध पक्षों, सांस्कृतिक मूल्यों को लोकभाषा में अभिव्यक्त करना प्रावश्यक एवं महत्वपूर्ण है । लोकभाषा में ही जन-चेतना की हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति होती है। 'अपभ्रंश' भी लोकभाषा थी। ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते 'अपभ्रंश' साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए सशक्त माध्यम बन गई। 7वीं शती से 17वीं शती तक अपभ्रंश में साहित्य-रचना होती रही । अपभ्रंश एक लंबे समय तक उत्तर भारत की भाषा बनी रही । भारत के सभी वर्गों ने इसमें साहित्य लिखा किन्तु कालान्तर में वह साहित्य लुप्तप्रायः हो गया । क्यों-कसे ? कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद देश की प्रांतरिक उथल-पुथल के कारण ऐसा हुआ हो । जो कुछ साहित्य प्राज सामने है वह बड़े संघर्ष का फल है। कुछ साहित्य जैन मंदिरों और भंडारों में छिपा रह गया, कुछ तिब्बत आदि के पीठों में तो कुछ जनता के कण्ठ में । उपेक्षा ने इसके संरक्षण को संकुचित कर दिया। फिर भी नींव पक्की थी इसलिए डगमगाई जरूर लेकिन गिरी नहीं । प्राज इसमें ऐहिक साहित्य के अतिरिक्त वैष्णव, शैव, शाक्त, सिद्ध और जैन साहित्य पुष्कल मात्रा में मिलता है। अपभ्रंश का साहित्य प्रकाशित न होने के कारण इसकी ठीक-ठीक रुचि पाठकों में नहीं पनप सकी । इसके समुचित ज्ञान का प्रभाव बना रहा इसलिए इसके अध्ययन-अध्यापन की उचित व्यवस्था न हो सकी । इससे अपभ्रंश का ही नहीं, आधुनिक भारतीय भाषाओं का भी बड़ा नुकसान हुना। उनके साहित्य का प्रामाणिक इतिहास नहीं बन सका । उनकी भाषामों का सही विश्लेषण नहीं हो सका। उनके अनेक काव्यरूपों के स्रोत ज्ञात नहीं हो सके। इसका देशव्यापी परिणाम हुआ । एकीकरण की प्रक्रिया में दरार पड़ गई, देश में भाषायी विवाद उठ खड़े हुए पौर राष्ट्र विखराव की चपेट में आ गया । बोलियों औरPage Navigation
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