Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 6
________________ म. विनयसागर राजस्थान - धरा के अलंकार, विविध विधाओं के ग्रन्थ-सर्जक महोपाध्याय मेघविजयजी १८वीं शताब्दी के अग्रगण्य विद्वान् हैं । ये तपागच्छ परम्परा के श्रीकृपाविजयजी के शिष्य थे और तत्कालीन गच्छनायक श्रीविजयप्रभसूरि के अनन्य चरण- सेवक और भक्त कवि थे । इनके सम्बन्ध में खोज करते हुए एक विशद लेख मैंने सन् १९६८ में लिखा था । इस लेख में मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार किया था । इसमें मैंने इनके द्वारा सर्जित महाकाव्य, पादपूर्ति - साहित्य, चरित्रग्रन्थ, विज्ञप्तिपत्र - काव्य, व्याकरण, न्याय, सामुद्रिक, रमल, वर्षाज्ञान, टीकाग्रन्थ, स्तोत्रसाहित्य एवं स्वाध्यायसाहित्य पर संक्षिप्त विचार करते हुए ग्रन्थों का परिचय दिया था । यह मेरा लेख " श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ" में सन् १९६८ में प्रकाशित हुआ था । महो० मेघविजयजी प्रणीत नवीन एवं दुर्लभ ग्रन्थ धर्मलाभशास्त्र गत वर्षों में शोध करते हुए मुझे धर्मलाभशास्त्र / सामुद्रिकप्रदीप की प्रति भी प्राप्त हुई । इस प्रति का परिचय निम्न है साईज २५.५ X ११ सेमी., पत्रसंख्या ३९, प्रतिपृष्ठ पंक्तिसंख्या १९, प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ५५ हैं । १०वाँ पत्र खण्डित एवं आधा अप्राप्त है । लेखन - पुष्पिका नहीं है, लेखनप्रशस्ति न होने पर भी रचनाकाल के निकट की ही प्रतीत होती है । प्रति शुद्ध एवं संशोधित है और टिप्पणयुक्त है । टिप्पण पर्यायवाची न होकर ग्रन्थ के विचारों को परिपुष्ट करने वाले है । ग्रन्थ नाम ग्रन्थ के प्रत्येक अधिकार और पुष्पिका में 'धर्मलाभशास्त्रे" लिखा गया है, किन्तु १४वें अधिकार की पुष्पिका में 'धर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे" प्राप्त है । वैसे धर्मलाभ शब्द समस्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनियों का आशीर्वादवाक्य है । यह ग्रन्थ प्रश्नशास्त्र से सम्बन्ध रखता है | मंगलाचरण श्लोक १७ के आधार से प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर कुण्डली बना कर फलादेश लिखा गया है । अनिष्टनिवारण के लिए 44 44 Jain Education International — For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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