Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 59
________________ 54 अनुसंधान-३० ३९७ धन मुझ पुर धन हूं प्रभु पूर मुझ करि घरि आज पवित्र । तस घरि परमान्न लीउ जब उत्सव होइ विचित्र रे ॥९॥ लोगो वा० । ३९८ पंच दिव्य देवइ तिहां कीधां श्रीजिनपारण-ठामि । रयणपीठ राजा बंधावति प्रभु विचरति बहु गामि ॥१०|| लोगो वा० ।। चालो रे भविका जिन भाव धरी नई-ढाल ३९९ वासुपूज्य जिन वाववपूजित अनुपम संयमधारी रे । अनुपम उपशमरस रयणायर सुमति गुपतिनो धारी रे ।अनुपम० ॥१॥ ४०० त्रिभुवन जन उपगारी दरिशन दुरित निवारी रे । अनुपम त्रिभुवन हितकारी गतप्रतिबंध विहारी रे ॥२॥ ४०१ विहार करता त्रिभुवनतारक चंपापुरीइं पधारि रे । पाडलि-तरुतलि प्रभु परिवसिओ तिहां प्रभु ध्यान वध्यावि रे ॥३॥ ४०२ क्षिपकश्रेणि नीसरणी चढीओ घनघाती मल झडीओ रे । केवलनाण-महोदधि जडीओ अमरिं तीन गढ घडीउ रे ॥४॥ ४०३ माघ मासि शुदि दुतीया दिनमा जिम जगि चंद्र प्रकाश्यो रे । तिणि दिन वासुपूज्य जिन कीनो केवलनाणिं वासो रे ॥५॥ सुणि जिन त्रिभुवन वेद्य-ए ढाल । ४०४ रूप-कनक-मणि तीन समवसरणि घडीइ । सिंहनाद सुर मूंकताए ॥१॥ ४०५ अशोकतरुतलि पीठ सुरमणि छंदमां । सिंहासन मणि रयणनूं ए ।२।। ४०६ छत्र त्रयनी श्रेणि चामर धोरणी धर्मचक्र धज झगमगइ ए ॥३।। ४०७ कनककमल प्रभु पाय ठवतो आवीय अशोक दिइ प्रदक्षणा ए ||४|| ४०८ वासुपूज्य जिनराय लालमणी समरूपे अनंतो शोभतो ए ॥५॥ ४०९ प्रभु प्रतिबिंबा तीन परषद बार नइं प्रभुपरि तनु मनमोहतां ए ॥६|| ४१० जिनपति योजनि धर्मुपदेश देतो त्रिभुवन मन संशय हरइए ॥७॥ ४११ समवसरणि नवि होए प्रभुनी द्रष्टइं ए कुण नइ नवि भय यंत्रणा ए ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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