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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसंधान
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
Now
३०
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
2004
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
| ३०
सम्पादकः विजयशीलचन्द्रसूरि
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद डिसेम्बर २००४
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आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
संपर्क :
अनुसन्धान ३०
प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ
अमदावाद - ३८०००७
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद - ३८०००७
मुद्रक :
मूल्य : Rs. 50-00
(२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अमदावाद - ३८०००१
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ (फोन : ०७९-२७४९४३९३)
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अनुक्रम
१. महो० मेघविजयजी प्रणीत नवीन एवं दुर्लभ ग्रन्थ धर्मलाभशास्त्र
२. वाचक प्रमोदचन्द्र भास
३. श्रीसकलचन्द्रवाचककृत श्री वासुपूज्य जिन पुण्य प्रकाश - स्तवन
४. ट्रंक नोंध
५.
(१) उपधान-प्रतिष्ठा - पञ्चाशक विषे (२) 'कन्धारान्वय' विषे
विहंगावलोकन
६. स्वाध्यायः
'विशेषावश्यक भाष्य'नो स्वाध्याय करतां सूझेल सुधारानी नोंध
पत्रचर्चा
म. विनयसागर
सं. म. विनयसागर
मुनि भुवनचन्द्र
सं. डॉ. शोभना आर. शाह 15
मुनि भुवनचन्द्र
1
11
62
64
66
72
79
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म. विनयसागर
राजस्थान - धरा के अलंकार, विविध विधाओं के ग्रन्थ-सर्जक महोपाध्याय मेघविजयजी १८वीं शताब्दी के अग्रगण्य विद्वान् हैं । ये तपागच्छ परम्परा के श्रीकृपाविजयजी के शिष्य थे और तत्कालीन गच्छनायक श्रीविजयप्रभसूरि के अनन्य चरण- सेवक और भक्त कवि थे । इनके सम्बन्ध में खोज करते हुए एक विशद लेख मैंने सन् १९६८ में लिखा था । इस लेख में मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार किया था । इसमें मैंने इनके द्वारा सर्जित महाकाव्य, पादपूर्ति - साहित्य, चरित्रग्रन्थ, विज्ञप्तिपत्र - काव्य, व्याकरण, न्याय, सामुद्रिक, रमल, वर्षाज्ञान, टीकाग्रन्थ, स्तोत्रसाहित्य एवं स्वाध्यायसाहित्य पर संक्षिप्त विचार करते हुए ग्रन्थों का परिचय दिया था । यह मेरा लेख " श्री मरुधरकेसरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ" में सन् १९६८ में प्रकाशित हुआ था ।
महो० मेघविजयजी प्रणीत नवीन एवं दुर्लभ ग्रन्थ धर्मलाभशास्त्र
गत वर्षों में शोध करते हुए मुझे धर्मलाभशास्त्र / सामुद्रिकप्रदीप की प्रति भी प्राप्त हुई । इस प्रति का परिचय निम्न है साईज २५.५ X ११ सेमी., पत्रसंख्या ३९, प्रतिपृष्ठ पंक्तिसंख्या १९, प्रतिपंक्ति अक्षरसंख्या ५५ हैं । १०वाँ पत्र खण्डित एवं आधा अप्राप्त है । लेखन - पुष्पिका नहीं है, लेखनप्रशस्ति न होने पर भी रचनाकाल के निकट की ही प्रतीत होती है । प्रति शुद्ध एवं संशोधित है और टिप्पणयुक्त है । टिप्पण पर्यायवाची न होकर ग्रन्थ के विचारों को परिपुष्ट करने वाले है ।
ग्रन्थ नाम ग्रन्थ के प्रत्येक अधिकार और पुष्पिका में 'धर्मलाभशास्त्रे" लिखा गया है, किन्तु १४वें अधिकार की पुष्पिका में 'धर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे" प्राप्त है । वैसे धर्मलाभ शब्द समस्त श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनियों का आशीर्वादवाक्य है । यह ग्रन्थ प्रश्नशास्त्र से सम्बन्ध रखता है | मंगलाचरण श्लोक १७ के आधार से प्रश्नकर्ता के प्रश्न पर कुण्डली बना कर फलादेश लिखा गया है । अनिष्टनिवारण के लिए
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अनुसंधान-३०
सर्वतोभद्र यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, राशिगत तीर्थंकर आदि की साधना, उपासना विधि के द्वारा मनोभिलषित सिद्धि अर्थात् धर्म का लाभ, वृद्धि आदि प्राप्ति का इसमें विधान किया गया है । धर्मलाभ अंगी बन कर और समस्त साधनों को अंग मानकर इसकी सिद्धि का विवेचन होने से "धर्मलाभशास्त्र" नाम उपयुक्त प्रतीत होता है । "सामुद्रिक प्रदीप" नाम पर विचार करें तो सामुद्रिक शब्द मान्यतया हस्तरेखा-ज्ञान का द्योतक है । सामुद्रिक शब्द के विशेष और व्यापक अर्थ पर विचार किया जाये तो सामुद्रिकप्रदीप नाम भी युक्तिसंगत हो सकता है । इसमें प्रचलित सामुद्रिक अर्थात् हस्तरेखा शास्त्र का विवेचन/विचार नहीं के समान है । अत: कर्ता का अभिलषित नाम धर्मलाभशास्त्र ही उपयुक्त प्रतीत होता है । महो० मेघविजयजी -
इनका साहित्यसर्जनाकाल १७०९ से १७६० तक का तो है ही। ये व्याकरण, काव्य, पादपूर्ति-साहित्य अनेकार्थीकोश आदि के दुर्घर्ष विद्वान् थे । इन विषयों के विद्वान् होते हुए भी ये वर्षा-विज्ञान, हस्तरेखा-विज्ञान फलित-ज्योतिष-विज्ञान और मन्त्र-तन्त्र यन्त्र साहित्य के भी असाधारण विद्वान् थे ।
कवि ने इस ग्रन्थ में रचना-संवत् और रचनास्थान का उल्लेख नहीं किया है । हाँ, रचना-प्रशस्ति पद्य ३ में आचार्य विजयप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य विजयरत्नसूरि का नामोल्लेख किया । “पट्टावली समुच्चय भाग १" पृष्ठ १६२ और १७६ में इनका आचार्यकाल १७३२ से १७७३ माना है, जबकि डॉ. शिवप्रसाद ने "तपागच्छ का इतिहास" में इनका आचार्यकाल १७४९ से १७७४ माना है । इस ग्रन्थ में अधिकांशत: संवत् १७४५ वर्ष
की ही प्रश्न-कुण्डलिकाएँ है, इसके पश्चात् की नहीं है । अतः इसका निर्माणकाल १७४५ के आस-पास ही मानना समीचीन होगा ।
छठा अधिकार राजा भीम की प्रश्न-कुण्डली से सम्बन्धित है । पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भीमसिंह हुए है । सीसोदिया राणा भीमसिंह, महाराणा अमरसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा भीमसिंह और जोधपुर के महाराजा, कोटा के महाराजा, बागोर के
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महाराज, सलुम्बर के महाराणा भी हुए है । गौरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा लिखित "उदयपुर राज्य का इतिहास" के अनुसार महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह ही इनका समकालीन है । महाराणा राजसिंह का देहावसान विक्रम संवत् १७३७ में हुआ था और उनके गद्दीनसीन महाराणा जयसिंह हुए थे । भीमसिंह चौथे नं० के पुत्र थे, अतः महाराणा की पदवी इनको प्राप्त न हो कर जयसिंह को प्राप्त हुई थी। ये भीमसिंह बड़े वीर थे। विक्रम सं. १७३७ में इन्होंने युद्ध में भी भाग लिया था । सम्भव है ये भीमसिंह समकालीन होने के कारण मेघविजयजी के भक्त, उपासक हों और १७४५ में कुण्डलिका के आधार से इनका भवष्यकाल भी कहा हो ।
अधिकार ४, ५, ६, ९, १०, ११ में क्रमशः उत्तमचन्द्र, मंत्री राजमल्ल, सोम श्रेष्ठि जयमल्ल, मूलराज, छत्रसिंह के नाम से भी प्रश्नकुण्डली बना कर फलादेश दिये गये है । ये लोग कहाँ के थे ? इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती हैं । महोपाध्यायजी का जनसम्पर्क अत्यन्त विशाल था । इसलिए यह नाम कल्पित तो नहीं है । सम्भवतः उनके विशिष्ट भक्त उपासक हो, अतः ये सारे नाम अन्वेषणीय हैं।
अधिकार ७वाँ महोपाध्याय मेघविजयजी से सबन्धित है । इसके मंगलाचरण में महोपाध्याय पद-प्राप्ति के उल्लेख पर टिप्पणीकार ने लिखा है - "हे श्रीशंखेश्वरपार्श्व ! श्रिया कान्त्या महान् यः उपाधिर्धर्मचिन्तनरूपस्तत्र अभिषिक्तः व्यापारितो मेघो येन तत् सम्बोधनं, हे प्रभो ! तव भास्वदुदयज्योतिभरैर्मया प्रकाशे प्राप्ते विजयस्य अधिकारो वक्तव्यः" । इसके साथ विक्रम संवत् १७३१ भादवा सुदि तीज की प्रश्नकुण्डली पर विचार किया' है, अतः यह स्पष्ट है कि मेघविजयजी को विक्रम संवत् १७३१ या उसके पूर्व ही महोपाध्यायपद प्राप्त हो चुका था ।।
इस ग्रन्थ में हस्तसंजीवन और उसकी टीका, ज्ञानसमुद्र और केशवीय ज्योतिष् ग्रन्थों आदि के उल्लेख भी प्राप्त होते है ।
श्रीमेघविजयजी जगन्मान्य वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा अधिष्ठापित, पूजित और वन्दित भगवान् शंखेश्वरपार्श्वनाथ के अनन्य भक्त हैं और उन्हीं के कृपाप्रसाद के समस्त प्रकार के धर्मों का लाभ प्राप्त होता है।
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अनुसंधान-३०
प्रश्नकुण्डलिकाओं पर आधारित यह धर्मलाभशास्त्र ग्रन्थ अभी तक अप्राप्त रहा है । फलित-ज्ञान और ज्योतिर्विज्ञान की दृष्टि से यह ग्रन्थ अध्ययन योग्य है, अत्यन्त उपयोगी है और प्रकाशन योग्य है ।
इस ग्रन्थ का आद्यन्त भाग प्रत्येक अधिकार के साथ प्रस्तुत है :ग्रन्थ का मंगलाचरण - प्रथम अधिकार
औं नमः सिद्धरूपाय, श्रीनाभितनुजन्मने ।। अर्हते केवलज्ञाय, पुरुषोत्तमतेजसे ॥१॥ औंकाररूपध्येयो-ऽर्हशङ्केश्वरप्रतिष्ठितः । श्रीपार्श्वः केशवैश्चक्र-धरैः पूज्यः श्रियेऽस्तु सः ॥२॥ दशावतारैर्यो गेयः श्रेयः श्रीपरमेश्वरः ।। इष्टः श्रीधर्मलाभाय भूयाद्भव्यतनूभृताम् ॥३॥ श्रीसहस्रांशुना न्यस्तं यथा ज्योतिर्गणाधिपे । तथा श्रीपार्श्वपूजो स्वं ज्योतिः स्फुरति केशवे ॥४॥ दशावतारस्तेनैव श्रीकृष्णस्त्रिजगतप्रियः । अश्वसेनाभिनन्दी च भविष्यति जिनेश्वरः ॥५॥ श्रीवर्धमानस्तेजोभि-वर्धमानः शिवाय नः । यद्धर्मलाभाद्वर्षर्तु-मासपक्षदिनाः सुखाः ॥६॥ यस्य सेवार्चनध्यानै-र्ग्रहाश्चन्द्रार्यमादयः । ज्योतिर्युक्ता राशिबद्धा नृणां वश्या इव श्रिये ॥७॥ अम्भोधिर्बोधिवारीणां गौतमस्तमसां भिदे । गणाधिनायको जीयाद् गर्जगजमहाध्वनिः ॥८॥ जीयासुस्ते तपागच्छे श्रीपूज्या विजयप्रभाः । यैः कृपाधर्मविजयैः कृताऽर्हच्छासनोन्नतिः ॥९॥ ये पूर्वं लब्धजन्मानः पूज्या श्रीउदयप्रभाः ।। दैवज्ञां केशवाद्याश्च ते प्रसीदन्तु भूसुराः ॥१०॥ केशवा रसिकाग्रण्यः केशवास्ताकिकेश्वराः । केशवा ज्योतिषे साक्षाज्ज्योतिष्मन्तस्तमोहराः ॥११॥
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स्याद्रूपं लक्षणं भावश्चात्य प्रकृतिरीतयः । सहजो रूपतत्त्वं च धर्मः सर्गो निसर्गवत् ॥१२॥ शीलं सतत्त्वसंसिद्धिरित्याद्यैर्नामभिः स्मृतः । धर्मस्वभावस्तल्लाभस्ततः स भव उच्यते ॥१३।। त्रिपद्यामपि तत्पूर्वमुत्पादः प्रतिपादितः । श्रीचतुर्दशपूर्वेषु तथा भगवताऽर्हता ॥१४॥ पञ्चमांगे चतुःपद्यां पूर्वमुत्पादसूचनम् । तज्जन्मपत्रात् सर्वस्य स्वभावः प्रकटीभवेत् ॥१५॥ चिदानन्दमयं सौख्यमक्षयं लभ्यतेऽङ्गिभिः । यद्धर्मलाभात् सुगमं तन्नृजन्माऽत्र साध्यते ॥१६॥ वर्षर्तुमासपक्षाहस्तिथिवारोडुनाडिका । लग्नराशियुजः खेटा ज्ञेया द्वारैः पुरागतैः ॥१७॥ वर्षं मासः पक्षतिथी घटीत्यावर्षकं मतम् । पञ्चकं धर्मलाभज्ञैः शेषं तु परिशेषतः ॥१८॥ दिनमानं विनिर्णीय पूर्वं लग्नं प्रसाधयेत् । षड्वर्गशुद्धेनानेन धर्मलाभो ध्रुवं भवेत् ॥१९।। यः स्याज्ज्योतिःशास्त्र-चूडामणि-सामुद्रिकादिषु । वेत्ता प्राज्ञस्तथाभ्यासी धर्मलाभोऽस्य निश्चितः ॥२०॥ क्रियाजप-तप:सक्तो व्यक्तो रक्तः सुरार्चने । इष्टं स्मरन् गुरुं ध्यायेत् धर्मं स लभते सुधीः ॥२१॥ . प्रश्ने भूतभवद्भावि-दिनत्रयं विलिख्यते । वर्तमानतिथिर्वारभयोगघटिकान्वितम् ॥२२॥ लेख्या वेलार्कसंक्रान्तेरुद्भवस्य घटीपलैः । . भुक्ता भोग्यास्तदीयांशाः स्पष्टतांशादिका विधोः ॥२३॥ सर्वतोभद्रयन्त्रस्य स्पर्शः कार्योऽत्र नाणकैः । फलनामापि च ग्राह्य धार्यं चित्तेऽवधानतः ॥२४॥
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अनुसंधान-३०
श्रीशलेश्वरपार्हिन् विवस्वानेष शाश्वतः ।
यत्प्रभावाद्धर्मलाभेऽधिकारः प्रथमोऽभवत् ॥२५॥ प्रथमाधिकार पुष्पिका
इति श्रीधर्मलाभे महोपाध्यायमेघविजयगणि-प्रकटीकृते प्रथमोऽधिकारः सम्पूर्णः ॥ (७ ए) द्वितीयाधिकार मंगलाचरण
नत्वा श्रीपरमं ज्योतिःस्वरूपं पार्श्वमीश्वरम् । अज्ञातजन्मनः पुंसो धर्मलाभं निदर्शये ॥१॥ हस्तसंजीवनग्रन्थ-वृत्तौ श्लोकचतुष्टयम् ।
इष्टोपदिष्टं तद्व्याख्या सोदाहरणमुच्यते ॥२।। द्वितीयाधिकार प्रशस्ति
इत्येवं भुवनेश्वरस्य भगवत्पार्श्वस्य नाम्नः स्फुरत्सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया ॥ मन्त्राध्यक्षवणिक्षु पारस इति ख्यातस्य लक्ष्मीपतेस्तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुर्द्वितीयः श्रिये ॥१॥
इति श्रीधर्मलाभे शास्त्रे महोपाध्यायमेघविजयगणिना प्रकटीकृते द्वितीयोऽधिकारः ॥ (१२ बी) तृतीयाधिकार मंगलाचरण
अथाधिकारः पुरुषोत्तमस्य प्रारभ्यते केशवलभ्यनाम्ना ।
पार्श्वप्रभोः शाश्वतभास्वतोऽस्मिन् शङ्केश्वरस्य प्रणिधानधाम्ना ॥१॥ तृतीयाधिकार प्रशस्ति
इत्येवं पुरुषोत्तमस्य भगवत्पार्श्वस्य शकेश्वरस्याह्वानस्य निवेशनेन विदितः श्रीकेशवस्याप्ययम् ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुस्तृतीयः श्रिये ॥१॥ (१६ ए) चतुर्थाधिकार मंगलाचरण
अथाधिकारः प्रारभ्यः श्रीपार्श्वेशप्रभावतः । श्रीमदुत्तमचन्द्रस्य वाङ्मयाचिर्बलान्मया ॥१॥
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चतुर्थाधिकार प्रशस्ति
नाम्नेत्युत्तमचन्द्रकस्य भगवत्पार्श्वस्य शङ्केश्वरस्याह्वानस्य निवेशनेन विदितः श्रीकेशवस्याप्ययम् ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुश्चतुर्थः श्रिये ॥१॥ (१८ बी) पंचमाधिकार मंगलाचरण
श्रीकेशवस्थापितमूर्तितेजः-प्रौढस्य शकेश्वरपार्श्वभानोः ।
प्रभाभरान् मन्त्रिणि राजमल्ले-ऽधिकाधिकारप्रतिपत्तिरस्तु ॥१॥ पंचमाधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरचारुरूपभगवत्पार्श्वस्य भास्वत्प्रभोः, शुश्रूषो भुवि राजमल्ल विलसन् नाम्नि श्रिया केशवे ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रिये पञ्चमः ॥ (२१ बी) षष्ठोधिकार मंगलाचरण
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वस्य भास्वतः तेजसांजसा । श्रीकेशवार्चितस्यौच्चैः प्रकाशः शाश्वतोऽस्तु मे ॥ इह भीमभुजौजसा जगविजयख्यातिधरक्षमापतेः ।
प्रकटीकृतधर्मलाभधीरधिकारः प्रतिपाद्यतेऽधुना ॥ षष्ठोधिकार प्रशस्ति
श्रीशकेश्वरचारुरूपभगवत्पाāश भास्वत् प्रभो । शुश्रूषोस्तव साधुभीमविजयख्याते श्रिया केशवे ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया ।
तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुःश्रिये षण्मितः ॥ (२५ बी) सप्तमोधिकार मंगलाचरण
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वभास्वदुदयज्योतिर्भरैः श्रीमहो-- पाध्यायाद्यभिषिक्तमेघविजयस्यात्राधिकारस्तव । मिथ्याज्ञानतमोविनाशनकृते प्राप्ते प्रकाशे मया, वक्तव्यः शुचिनव्यभव्यसुमनोऽम्भोजन्मबोधाशया ॥
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सप्तमोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्खेश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः । शुश्रूषोस्तव वर्णमेघविजयस्यौन्नत्यभावो भुवि ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रिये सप्तमः ॥ ( २८ बी)
अष्टमोधिकार मंगलाचरण
अनुसंधान- ३०
नेत्रानन्दनकारिणा भगवता पार्श्वेन शङ्खेश्वरे
त्याह्वानेन कलाभरैः कुवलयोल्लासं सदा कुर्वता । त्रैलोक्ये प्रतिभासिते समुचितः सोमाधिकारोधुना, प्रारभ्यः किल सभ्यकेशवप्रिया श्रीधर्मलाभाप्तये ॥ ( २८ बी) अष्टमोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्खेश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः ।
शुश्रूषोस्तव भक्तमेघविजय श्रीसोमनाम्नः सदा ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया तत्राभूदधिकार एष यशसां हेतुः श्रियेऽप्यष्टमः ॥ (३२ ए) नवमधिकार मंगलाचरण
श्रेष्ठा ज्येष्ठामल्लधर्मानुभावो, भावायैषां भाव्यते केशवार्च्यः । पार्श्वो भास्वानेव शङ्खेश्वराख्य-स्तस्माद्विश्वे शाश्वतोऽस्तु प्रकाश: ॥ (३२ ए) नवमधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्खेश्वरपार्श्वशाश्वतरवेः श्रीकेशवार्चाभृतः ।
शुश्रूषोस्तव भक्तमेघविजय ज्येष्ठादिमल्लस्य सः ॥ सम्बन्धात् समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभो मया तत्राभूदधिकार एष नवमो हेतुर्यशः सम्पदाम् ॥ (३५ बी) दशमोधिकार मंगलाचरण
अथ श्रीमूलराजस्य पार्श्वभास्वत्प्रसादतः ।
साध्यते धर्मलाभोऽयं केशवाभ्युदिताऽध्वना ॥ (३५ बी) दशमोधिकार प्रशस्ति
प्रभास्वत्केशवार्चस्य श्रीमेघविजयद्युतेः ।
मूलराज धर्मलाभः प्रोक्तः श्रीपार्श्वभास्वत: ॥ (३६ ए)
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एकादशोधिकार मंगलाचरण
अथोच्यते धर्मलाभ-श्छत्रसिंहस्य तेजसा । .
श्रीपार्श्वभास्वतोऽय॑स्य केशवेनोदितश्रिया ।। (३६ ए) एकादशोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वस्य भास्वत: केशवार्चनात् ।
प्रभावाद्धर्मलाभोत्राऽसाधि साधुरसाधिकः ॥ (३६ ए) द्वादशोधिकार मंगलाचरण
अथ केशवसेव्यस्य प्रभावात् पार्श्वभास्वतः ।।
धर्मलाभः कन्यकायाः कन्यते धन्यया धिया ॥ (३६ बी) द्वादशोधिकार प्रशस्ति
एवं केशवपूज्यस्य प्रभोः पार्श्वस्य तेजसा ।
असाधि साधिकधिया धर्मलाभोऽधुना स्त्रियाः ॥ (३७ ए) त्रयोदशोधिकार मंगलाचरण
श्रीकेशवस्थापितपार्श्वभर्तुः प्रभाकृतः शुद्धमहःप्रकाशात् । सत्या युवत्या अपि धर्मलाभ: श्राद्ध्याः प्रसाध्योऽथ गुणाभिधायाः ॥
(३७ ए) त्रयोदशोधिकार प्रशस्ति
जीयात् शङ्केश्वरः पार्यो भास्वानिव सदोदयी ।
प्रभावाद्धर्मलाभोऽत्र द्वितीयः साधितः स्त्रियाः ॥१३।। (३८ ए) चतुर्दशोधिकार मंगलाचरण
प्रणम्य शकेश्वरपार्श्वभर्तुः मूर्ति सदा केशवपूजनीया । स्त्रियास्तृतीयोप्यथ धर्मलाभः प्रकाश्यते सुप्रभयैव भानोः ॥१३॥
(३८ ए) चतुर्दशोधिकार प्रशस्ति
श्रीशङ्केश्वरपार्श्वभास्वदुदितप्रौढ़प्रभोल्लासतः, कामिन्याः समसाधि साधिकधिया श्रीधर्मलाभोदयः ।
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चातुर्येण चतुर्दशोऽयमभवत् तत्राधिकारः शुभः,
ग्रन्थे केशव एव तद् विजयतां मौलोऽत्र हेतुः श्रिये ॥१४॥ (३९ ए)
रचना प्रशस्ति
मत्वैवं भुवि धर्मलाभवचनं धीरैः परं दुर्लभं तत्प्राप्तावपि धर्मलाभविधिना साध्यं शिवोपार्जनम् । सम्यग्दर्शनबोधसाधुचरणान्यस्यायनं संस्मृतं सर्वज्ञैः जिनभास्करैः समुदितैः सिद्धिप्रतिष्ठाधरैः ॥२॥ जीयासुर्विजयप्रभाः, सुगुरवः श्रीमत्तपागच्छपास्तत्पट्टे विजयादिरत्नगणभृत् सूर्याश्च सूर्यादिमाः । तद्राज्ये कवयः कृपादिविजयास्तेषां सुशिष्यो व्यधात् शास्त्रं बालहिताय मेघविजयोपाध्यायसंज्ञः श्रिये ॥३॥ यदत्र किञ्चिल्लिखितं प्रमादा-दुत्सूत्रमास्थाय बलं स्वबुद्धेः । तज्जैनभक्तैः परिशोध्य साध्यः सद्धर्मलाभो ह्यनया दिशैव ॥४॥
उपाध्यायैरेवं ननु विरचितं मेघविजयैस्तपागच्छे स्वच्छे रसमयमिदं वाङ्मयमिह । बहूनां लोकानामुपकृतिविधौ तत्परतरैरमुष्मान्नैपुण्यात्समवहितपुण्याद् विजयताम् ॥५॥
द्वे सहस्त्रे पञ्चशतान्यस्य मानमनुष्ठुभाम् । श्रीधर्मलाभशास्त्रस्य ज्ञातव्यं भव्यधीधनैः ||६|| सूर्याचन्द्रमसौ यावद् यावन्मेरुर्महीधरः । श्रीजैनं शास्त्रं यावत् तावद् ग्रन्थः प्रवर्तताम् ॥७॥
अनुसंधान - ३०
इतिश्रीधर्मलाभशास्त्रे सामुद्रिकप्रदीपे महोपाध्याय श्रीमेघविजयगणिप्रकटिते चतुर्दशोऽधिकारः पूर्णः ।
पूर्णे च तस्मिन् ग्रन्थोपि पूर्णः ||श्रीः ||
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वाचक प्रमोदचन्द्र भास
सं. म. विनयसागर
संग्रहगत स्फुट पत्रों में यह एक-पत्रात्मक कृति प्राप्त है । साईज २४ x १० x ५ से.मी. है । पंक्ति १५ है और अक्षर ४३ से ४६ है । प्रति का लेखन सं. १७४५ है । इस कृति के कर्ता करमसीह हैं, जो सम्भवतः वाचक प्रमोदचन्द्र के शिष्य हो या भक्त हो । इस कृति का महत्त्व इसलिए अधिक है कि वाचक प्रमोदचन्द्र का स्वर्गवास वि. संवत् १७४३ में हुआ था और यह पत्र १७४५ में लिखा गया है । सम्भवतः लेखक का वाचकजी के साथ सम्बन्ध भी रहा हो । इस भास का सारांश निम्नलिखित है :
भासकार करमसीह जिनेन्द्र भगवान् और प्रमोदचन्द्र वाचक को नमन कर कहता है कि इनके नाम से पाप नष्ट हो जाते हैं और निस्तार भी हो जाता है । वाचक प्रमोदचन्द्र का जीवनवृत्त देते हुए लेखक लिखता है - मरुधर देश में रोहिठ नगर है, जहाँ ओसवंशीय तेलहरा गोत्रीय साहा राणा निवास करते हैं और उनकी पत्नी का नाम रयणादे है । इनके घर में विक्रम संवत् १६७० में इनका जन्म हुआ और माता-पिता ने इस बालक का नाम पदमसीह रखा । श्रीपूज्य जयचन्द्रसूरि वहा पधारे । साहा राणा ने अपने पुत्र प्रमोदसीह के साथ विक्रम संवत् १६८६ में दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा का महोत्सव जोधपुर नगर में हुआ । निरतिचार पञ्च महाव्रत का पालन करते हुए राणा मुनि का स्वर्गवास वि.सं. १७०० में हुआ । पदमसीह मुनि श्रीजयचन्द्रसूरि के शिष्य थे । सम्भवतः इनकी माता ने भी दीक्षा ग्रहण की और लखमा नाम रखा गया । मुनि पदमसीह वि.सं. १६३१ में वाचक बने, वि.सं. १७४३ में मुनि पदमसीह अन्तिम चातुर्मास करने के लिए जोधपुर आए और उन्होंने अनशन ग्रहण किया । ढाई दिन का अनशन पाल कर पोष दशमी सम्वत् १७४३ में इनका स्वर्गवास हुआ । देवलोक का सुख भोगकर अनुक्रम से भव-संसार को पार करेंगे। प्रमोदचन्द्र १६ वर्ष गृहवास में रहे, ४५ वर्ष ऋषिपद में रहे और १२ वर्ष तक वाचकपद को शोभित किया । इनकी पूर्ण आयु ७३ साल थी । इन्हीं के चरण सेवक करमसीह
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अनुसंधान-३०
ने यह भास लिखा है।
नागपुरीय तपागच्छ पट्टावली के अनुसार भगवान् महावीर से ६२वें पट्टधर श्रीजयचन्द्रसूरि हुए । यह बीकानेर निवासी ओसवाल जेतसिंह और जेतलदे के पुत्र थे । वि.सं. १६७४ में राजनगर में इन्हें आचार्यपद मिला था और वि.सं. १६९९ आषाढ़ सुदि पूनम को जयचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हुआ था ।
इस पट्टावली के अनुसार यह निश्चित है कि वाचक प्रमोदचन्द्र ऋषि नागपुरीय तपागच्छ/पार्श्वचन्द्रगच्छीय थे और श्रीजयचन्द्रसूरि के शिष्य थे । श्रीजयचन्द्रसूरि के पट्टधर श्रीपद्मचन्द्रसूरि (आचार्य पद १६९९ और स्वर्गवास १७४४) ने ऋषि पदमसीह को सम्वत् १७३१ में आचार्य पद प्रदान किया था ।
वाचक प्रमोदचन्द्र की कोई रचना प्राप्त नहीं है। इनके सम्बन्ध में और कोई जानकारी प्राप्त हो तो पार्श्वचन्द्रगच्छीय मुनिराजों से मेरा अनुरोध है कि वे उसे प्रकाशित करने का कष्ट करें ।
इस भास के दूसरी और मिष्टान्नप्रिय जोध नामक यति ने नागौर की प्रसिद्ध मिठाई पैडा का गीत १५ पद्यों में लिखा है ।
॥ ढाल-अलवेला री ॥ श्री जिन पय प्रणमी करी रे लाल । गाइस गुरु गुणसार, सुखकारी रे । श्री प्रमोदचंद वाचकवरु रे लाल । नाम थकी निसतार ॥ सु० १ ॥ श्री प्रमोदचंद पय प्रणमीयइ रे लाल । नाम थकी निसतार । सु० । सुख संपति सहितै मिलै रे लाल । दरसण दुरित पुलाई ॥ सु० २ ॥ मरुधर देस सुहामणौ रे लाल । रोहिठ नगर विख्यात । सु० । साह राणा कुल चंदलौ रे लाल । रयणादे जसु मात ॥ सु० ३॥ सौलैसै सितरै समै रे लाल । जनम दिवस सुद्ध मास । सु० । मात पिता हरखै घणुं रे लाल । उछव करै उल्हास ॥ सु० ४ ॥ बीया चंद तणी परै रे लाल । वधता बहु गुणवंत । सु० ।। पदमसीह मुख पेखता रे लाल । सजन सहु हरखंत ॥ सु० ५ ॥
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श्रीपूज्य पधार्या प्रेमसुं रे लाल । श्री जयचन्द सूरिन्द । सु० । साह रांणौ वयरागीया रे लाल । पुत्र पुत्र सु आणंद ॥ सु० ६ ॥ जोधपुर नगर सुहामणौ रे लाल । दिक्षा महोछव सार । सु० । संघ जीमावी हरखसुं रे लाल । विलसी धन विस्तार ॥ सु० ७ ॥ पंच महाव्रत पालता रे लाल । चारित्र निरतिचार | सु० । रांणै मुनि सुरगति लही रे लाल । सतरसईकै सार ॥ सु० ८ ॥
श्री पदमसीह मुनि परगडा रे लाल । श्री जयचंदसूरि सीस । सु० । सोहै लखमां साधवी रे लाल । शिख शिखणी सुं जगीस || सु० ९ ॥
महिमंडल विचरता रे लाल । तारण तरण जिहाज । सु० । सुमति गुपति व्रतधर सदा रे लाल । साधु गुणे सिरताज ॥ सु० १० ॥ नयर जोधाणै आवीया रे लाल । जांणी चरम चोमास । सु० । सतरतयाल संवछरै रे लाल । श्रीमुख अणसण जा ॥ सु० ११ ॥ पोस दिसम जगिसार । सु० ।
अनुक्रमि भवनौ पार || सु० १२॥
अढी दिवस पाली करी रे लाल सुरगति सुर सुह भोगवै रे लाल । सोल वरस गृहवास मै रे लाल । रिख पद वरस पैताल । सु० । बार वरस वाचक पदै रे लाल । सर्वायु तिहोत्तर पाल ॥ सु० १३ ॥
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धन ओसवंश अतिदीपतौ रे लाल । धन तेलहरा गोत । सु० । मात पिता धन जनमीया रे लाल । धन सुगुरु जगि जोत ॥ सु० १४ ॥ चरण कमल सेवक भणै रे लाल । प्रणमुं बे कर जोडि । सु० । करमसीह कृपा करी रे लाल । पूरौ वंछित कोडी | सु० १५ ॥
इति श्रीप्रमोदचंद्रवाचकभास सम्पूर्णः सं १७४५ वर्षे लिखतं पं. श्री आसकरण जी ।
कठिन शब्दों के अर्थ :
वाचकवरु
राणा
रयणादे
वाचक-श्रेष्ठ
प्रमोदचन्द्र के पिता का नाम
प्रमोदचन्द्र की माता का नाम
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सौलेसै सितरै
बीया चंद
सरस
सतरतयाल
रिख
तेलहरा
विक्रम संवत् १६७० द्वितीया के चंद्र के समान
अनुसंधान- ३०
संवत् १७००
संवत् १७४३
ऋषि
ओसवाल जाति का एक गोत्र
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C/o. प्राकृत भारती
१३ - ए. मेन मालवीयनगर जयपुर- ३०२०१७
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श्रीसकलचन्द्रवाचककृत श्री वासुपूज्य जिन पुण्य प्रकाश-स्तवन
सं. डो. शोभना आर. शाह
प्रस्तुत प्रत १०.५ से.मी. लांबी अने २४.५ से.मी. पहोळी छे. उपर नीचे बन्ने तरफ हांसियो आपवामां आव्यो छे. दरेक पानानी अंदर १२ थी १३ लीटीओ छे. बन्ने बाजु लखेली प्रत छे. पृष्ठ क्रमांक जमणी बाजुओ लखेला छे. ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरमांथी प्रत क्रमांक ८०६४ना आधारे आ प्रत तैयार करी छे. हांसियामां खूटता शब्दो उमेरेला छे.
प्रस्तुत प्रतमां कुल २० पृष्ठ छे. प्रतनी भाषा-जूनी गुजराती छे. तेनो लेख समय संवत् १७३८ वर्षे वैशाखवद एकम अने शुक्रवार छे. तेना लेखक वन्दावन अनहिल्लपत्तनपुरना चातुर्वेदी मोढ ज्ञातिना छे.
आ प्रतमां कुल ५९ ढाळ छे. प्रत्येक ढाळनी साथे तेना ढाळ तथा राग आपवामां आवेला छे. ढाळ देश्य भाषामां छे. कुल कडी ४८५ छे. कर्तानो परिचय :
आ स्तवनना कर्ता वाचक सकलचन्द्र गणि छे. स्तवननी छेवटनी कडीमां तेओ पोताने 'सकलमुनि' तरीके ओळखावे छे. तपागच्छमां श्रीआनन्दविमलसूरिनी पाटे विजयदानसूरि अने तेमनी पाटे हीरविजयसूरि थया, तेमना शासनमां पोते आ रचना कर्यानुं छेल्ली ढाळमां निर्देश छे. वंबावती (खंभात) नगरमां थंभण पार्श्वनाथना सांनिध्यमां वि.सं. १६२८ (वसु श्रवण हृदयांबुजे जीवं सूरो)मां आ स्तवन रच्युं छे. कर्तानो सत्ताकाल १६मा शतकनो पश्चार्ध तथा सत्तरना शतकनो पूर्वभाग हतो.
. श्रीसकलचन्द्रवाचककृत
श्री वासुपूज्य जिन पुण्यप्रकाश ॥ ॐ ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ राग गोडी ॥ ऋषभ अजित संभव जिनो । अभिनंदन सुमतीशो । पदमप्रभ सुपासोरिहो । चंद्रप्रभ सुविधीशो ॥१॥ त्रू० ॥
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२.
४
६
चंदिइ सीतल जिन सिअंसो । वासुपूज्य जिणंद रे । नमो विमल अनंत धम्र्मो सांतिनाथ मुणिंद रे । कुंथु अर जिन मल्लि सुव्रत । नमो श्री नमि नेमि रे । पास जिनवर वीर जगगुरु । त्रिविध धुरि सुमरेमि रे ॥२॥ नमी कर्मक्षय सिद्धनइ । तिम नमी आगमसिद्धा । ते गौतम प्रमुखा मुनी विभु-कुंअर तप सिद्धा
अति विसुद्धा सुद्ध बुद्धा नमी जिनना गणधरा । सिद्धि बुद्धि सुद्धि धारक प्रणमीइ मंगलकरा ॥ पंच वर आचारपालक अट्ठ गणिसंपदधरा । पुण्यदिनकर - उदयकारणि प्रणमीइ जगि गणिवरा ॥४॥ ढाल । सरसति अमृत वसइ मुखि वाणी ||
राग
केदारो ॥
श्रीजिनवर - प्रवचनना वाचक | जे जगि वरति सुविहित वाचक । श्रुत वाचक दातारो । अढीयदीपना अनोपम मुनिवर । सकल जंतुना अनोपम हितकर ।
ए पद त्रिभुवन सारो । ते प्रणमीइ त्रिकालो ॥५॥ त्रू० |
नाम गोअ सवण थविराणहो । महफल भणिअं गुणावहो । वंदणं नमणं पडिपुंछणं । बहुपातक- संतति- मोछणं ॥ ६ ॥
जइ वि सक्ति नही तपदाणनी । चरण सक्ति नही जस दाणनी ।
अनुसंधान - ३०
दृढप्रहारी तपसिद्धा ||३|| त्रू० |
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सकल सिद्धिसुखं जगि जो करइ ।
पंचमंगल कां नवि सो धरइ ॥७॥ ढाल । राग - आसाउरी
विहरमान जिन मंडलं समरीय मणि उल्हास । वासुपूज्य जिनवर तणु भणस्युं पुण्यप्रकाश ॥८॥ सशिकर सम शुचि देहना हंसगमनि श्रुतदेवि । तुं मुझ मति तुझ मयाकारी मुज वदनांबुज सेवि ॥९॥ वासुपूज्य जिन पुण्यप्रकासो सुणतां निजमति भावी । बहुभवसंचित पातक जातां माणीसि वली मनावी । सुणी पुण्य पुन्याढरायनो संयम लेई प्रतिबुद्धो ।
श्री पदमोत्तर राजऋषीसो जिनपद फासति सूद्धो ॥१०|| गाथा ॥ ११ सिरि वासुपुज्य जिनवर पुण्योदय कित्ति कुंडले सवणे ।
भविआण सुणताणं विलसति पुण्योदउ भवणे ॥११॥ राग - मालवीगोडी । १२ मंगलावती विजय राजति रत्नाकरमिव रत्नपुरं । जन तनु भूषण रयण कांतिभर रयणि विणासित तिमिर भरं ॥१२॥
मंगलावती. १३ पुष्करवर-पुष्करणि सोभित-पुष्करार्ध शुचि दीप वरे ।
तिहां बहु जीवित पुरवविदेहिं जिनघर मंगलदीप भरे ॥१३॥ १४ मेरु शिखिर सम बहु जिनवर घर पुर नरनारी प्रमोदकरं ।
वापी कूप सरोवर मंडित बहु विवाहारी रत्नघरं ॥१४॥ तिहां सिरिवासुपूज्यजिना जीवो पद्मोत्तर नरनाथ वरो ।
दुर्जनदमनपरो अति चतुरो राजनीति सुगणाण धरो ॥१५॥ १६ सरणागत जिन वत्सलदाता सूरवीर जनजन जतन करो ।
निजभुजबल-बहु-साधित-जनपद विश्व यशोभर कीर्तिधरो ॥१६॥
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अनुसंधान-३०
राग - गोडी ढाल - जग जीव मेलो १७ एक दिन राजसभा ठिउ अंगद सोभित बाहि ।
गयणंगणि जिम चंदलो हरि यम सुर तरु छाहि रे ॥१७॥ १८ भुजबल संसीइ राउ रे पुण्य प्रसंसीइ ।
सची विबुद्धि उपायो रे भुज बल संसीइ ॥१८॥ विमलबुद्धि मंत्री प्रतई राय भणि सुणि वात ।
नृपई अधिकं भुजबल जेणइ कीजइ रिपुपातो रे ॥१९॥ भुज० । २० वलतुं मंत्री इम भणइ सुणि तूं अम नरदेव । पुण्य विना भुज बल नही पुण्यइं सुर-नर सेवो रे ॥२०॥
__ पुण्य प्रसंसीइ । आंकणी । २१ पुण्यई लछी घरि रमइ पुण्यइ तनु नीरोग ।।
पुर्णिय इंद्रीं पडवडां पुण्यई वंछित भोगो रे ॥२१॥ पुण्य० । २२ पुण्यइं सुभोजन रसवती पुण्यई सुसीली नारी ।
पुण्यइं सुखभरि जीवीइ गज गाजि घरबारि रे ॥२२॥ पुण्य० । पुण्यई भगता सुत सुता रूप भलूं सुख भोग ।
शोक नही घरि प्रभुपणुं प्रणमइ त्रिभुवन लोगो रे ॥२३॥ पुण्य० । २४ पुण्यइं पुण्या ढो हवो जगि अतुलीबल राय ।
तस पवित्रं चरितं सुणो ते सुणतां सुख थाइ रे ॥२४॥ पुण्य० । राग - वेइराडी ॥ २५ पदमपुरं जगि जाणीइ । सुरपुर सरिखं अ ठाम रे ।
तिहां तपनो वरनायको दुरित समई जस नामई रे ॥२५॥ पद० । २६ एक धनावय सेठिउ तेणिं गज आणीइउ एक रे ।
ऐरावण सम आपीउ हरख्यो राय विवेक रे ॥२६॥ पद० ।
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२७. अरद्ध राज तस आपीउ बहु साध्या तिणि देस रे ।
नगरी महोत्सव आवीओ हस्ति दीइ उपदेसो रे ॥२७॥ पद० ।। २८ खटिकाखड लिई लिखइं गज इक भीत सिलोगं रे ।
नृप जन पुरि-जन देखतां कोइ न लहइ अनुयोग रे ॥२८॥ पद० । श्लोक २९ अविज्ञातन्नयी(त्रयी?) सत्त्वो मिथ्यासत्वो लसद्भुजः ।
हा मूढ ! शत्रु-पोषेण किं मित्राणि दूष्यसि ? ॥२९।। राग - आसाउरी ॥ ढाल - त्रिभुवन पतिजि० ॥ ३० बहु बुधजन जगि पूछिआ पणि को न लहइ तस पारो रे ।
पारो रे जन पंगु न लहइ जलधी तणो इ ॥३०॥ ३१ मंत्री एक कहइ सुणो कोइ सुगुरु मिलइ नवि जाय रे ।
भावे तेन विणु एहनु पामीइ रे ॥३१॥ ३२ नरपति गुरु तेडावीआ आणंदचंद मुणिंदो रे ।
कंदोरे सो प्रवचन-सुरशाखी तणो रे ॥३२॥ ३३ श्लोकार्थं गुरु पूछतां तिहां गज प्रणमइ गुरु पायो रे ।
थाइ रे तिहां राजसभानइं कौतुकां रे ॥३३॥ ३४ गुरु कहइ राजन सांभलो ए गज छइ चतुर विचारो रे ।
सारो रे जिम सुरपति घरि ऐरावणो रे ॥३४॥ ३५ कहइ तुझ तत्त्व मती नथी ए गज तो समकितधारी रे ।
सो रीए कह(इ) छइ मति करी आपणी रे ॥३५॥ ढाल - वइराही ३६ राजन ज्ञान धरो चित-भाई राजन ज्ञान करो । जुगि दुलहो सो हित दाई राजन दुढि ज्ञानवंतना धन जगिमाई ।
ज्ञानी शुभ गति जाई ।१।।राजन० ।
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अनुसंधान-३० ३७ अरिहा देव नमो थुणि अरिहो अरिहा सिरि करि देवो ।
अरिहा मंगल शरण करावई करि अरिहाणं सेवो ॥२॥ राज० । निस्संगी गुरु सुविहित लिंगी उपशम संयम रंगी ।
तस वंदण उपदेस सुणीनई तुं भव समकित संगी ॥३॥ राज० । ३९ संगी देव तजे तुं राजन गुरुपणि तजे संयोगी । गुरु नमि संयम योगी धर्म धरे चित्त जिनपति भाखित ।
इम समकितहो भोगी ॥४|| राजन० । ४० मिथ्यामतिउ परं तन-रोगो मिथ्यामति चित-रोगो ।
मिथ्यामति अति-अंधारुं मिथ्यामति विष सारुं ॥५॥ राजन० । तिण अवतार सफल जगि कीनो जिणइं तत्वई मति वासी । लक्षण दूषण भूषण जाणी विरति लीइ गुणरासी ॥६॥ राज० । मिथ्यामति असती जन संगति पापी पोष न कीजइ ।
पुण्यखेत धन पोषी राजन दया अनुकंपा कीजइ ॥७॥ राज० । ४३ इधणि आगि न होवति पूरो जलधि नदी नइ लेखइ ।
तिम सुखि भोग जीवन ही पूरो निजहित करि गुरु शीखइ ॥८॥ राज० । ढाल - नेमि जिनेसर राजीओ ।। राग - रामगिरि ४४ तपनो राय संवेगीउ निज चितनइं कह चेत रे ।
गज तुझ पुण्यइ रीझवी मिलिउ गुरु हित हेत रे । आव्यउ आरय खेतर शुभनइं एह ज खेत रे । ऊघाडो चित नेत रे करि तुं मुगति संकेत रे आलिं नर भव हारीओ ।
हुं अविवेकी राय रे । ॥१॥ ४५ राजई रीद्धइं ही मोहीओ मोहइं मुझ दिन जाइं रे । रवि शशि जीवित खाइ रे पुंठि जरा-गज थाइ रे ॥२॥
___ तपनो राय संवेगीओ
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४६ लीलापान अंगुठडइ यम मानई सुख बाल रे ।
तिम युवति सुख भंतिमां । जाइ मुद्धा मुझ काल रे ॥३।। तपनो. ४७ सुरसुख खीणां जो देखीइं नरसुखनी कुण वात रे ।
विविध उपद्रवई भव भरयो दीसइ खिण सुखपात रे ॥४॥ तपनो. ४८ गजवर लिखित सलोकनो भाव धरी गुरु पासि रे ।
राजा उपशम वासीओ चित दिइ संयमवासि रे ॥५॥ तपनो. । सीख दिइ निज राजनी नही मुझ राजस्युं काज रे ।
हस्ती जस सिरि ढालस्यइ कलसो सो तु तुम्ह राज रे ॥६॥ तपनो० । ५० धन शुभ खे... रे वावरी राज तजी सब भोग रे ।
संयमधरी महोत्सवई साधइ संयम योग रे ॥७॥ तपनो० । शासन हूई प्रभावना धर्म मिल्या बहु लोक रे ।
वीनवीओ गजराजीओ राजा कोई विलोक रे ॥८॥ तपनो० । ५२ हस्ती राजनां विहवलां करि धरि वनमांहि जाइ रे ।
सूतां नर शिरि ढालीओ जय जय पुरिजन गाइ रे ॥९॥ तपनो० । राग - श्री राग तथा गोडी ॥ ढाल - स तस्सेद (सतरभेद ?) पूजा । ५३ देखो सुअणो पुण्यविचारी वनि सूतो पणि पूरव पूण्यइं ।
हूओ राजनो धारी ॥१॥ देखो सुअणा पुण्य विचारी । आंचली । टूटा पंगुल सरिखो देखी सो नर तनु संकोची । गजवर राज दिउं तस देखी किंस्युं करि जन शोची ॥२॥ देखो० । राजिभिलाषी रह्या जे हूंता, जे जे खत्रीपूता 1
ते निरास होइ जन हसिआ जई निज घरि सूता ॥३॥ देखो० । ५६ धनावहो सो राय न मानइ अद्ध राजनो धारी ।
तिणि संग्राम रायस्युं कीनो नृपदल शस्त्र निवारी ॥४॥ देखो० ।
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अनुसंधान-३०
___ जो पुण्याढ्यराय नही मो(मा)नइ तस शिर वज्र लुणेसि ।
इम आकाशि सुणी सुरवाणी जण पुण्याढ्य थुणेसी ॥५॥ देखो० । ५८ धनावहो पणि अंबर-वाणी सुणीय राय-पगे लागो ।
देश देश पुण्याढ्य रायनो यशपडहो जइ वागो ॥६॥ देखो० । ५९ इंद्रसरीखो राज करंतई राय भण्यो वनपाल ।
तपनराज ऋषि तुझ वति अम्हे दर्शन दुरितां गालइ ॥७॥ देखो० । ढाल - सीमंधर जिन त्रिभुवन भानुनो । अथवा चंदाइणिनो । ६० पुरि तिणि ज्ञानी चंदो उग्यो ।
तिण जन-तिमिर गयो अति-सूगो । गुहमुखि अमृत पीइ जन झुक्यो ।
तिणि मिथ्या-रोगि जन मूक्यो ॥१॥ ६१ राजऋषि सोइ धर्म सुणावइ ।
भविक सभानां पाप हणावइ । इति वचनामृत राय सुणीनइं ।
तस वनपाल दरिद्र हणीनइं ॥२॥ ६२ हरखइ गजवरस्युं गुरु वंदइ ।
गुरुदरिशनि निजपाप निकंदइ । चतुवि[ह] धर्म सुणी गुरु पासि । भूपति धरमई निजचित वासि ।
शु(सु)गुरूवचनां सतत उपासइं ॥३॥ ६३ कोइ जीव विवहारीय-रासी ।
जीवायोनि तिणि लाख चउरासी । भमता वार अनंता वासी । शठ न कहइ हित आप विमासी ॥४॥ जे जगमा छइ वस्तु विनासी । तस कारणि मूढातिप्रयासी ।
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पाप जीव मरइ विषयासी ।
नरकि वसइ नर अभिषयलासी ॥५॥ ६५ अति होइ जगि अमिलवि सूनो ।
जस मोह लागो विभव वधूनो । जइ पणि जीव होइ अतिजूनो । तो हइ पणि रहइ माथा सूनो ॥६॥ चउगति जीव तणां दुख चिंती । चतुरा धर्मारामिति रमंति । भव अरण्यमां ते न भमंता । विषयविषं जगि ते हू विमंता ॥७॥ तपन-राजऋषिनी ए वाणी । सुणिय नराधिप शुभमति आणी । निजशरीर संकोच निदानं ।
पूछति सुगुरु ज्ञाननिधानं ॥८॥ ढाल-राग देशाख । चंद्रिका चोपड्यो चित ठरइ । अथवा धन समता शुचि लता ॥
सुणिह तुं एक लखमीपुरं । हता मित्र तिहां तीज(न) रे । चउद वरसाति प्रेमालूआ ।
कुमारा कुलई पीनरे ॥१॥ ६९ पुण्यवंता जगे ते नरा जण्या तेह प्रमाण रे ।
जेहनइं साधुनां दरिशनं दिइ साधुनइ मान रे ॥२॥ पुण्यवंता० । एक दिनि गहनि रमता गया भला क्षत्रियपूत रे ।
वामण राम संग्राम भला सुणो तेह- सूत रे ॥३॥ पुण्यवंता० । ७१ निजशरीरइ निरहो मुनी विगतपाप निसंग रे ।।
वामणि काउसगि देखीओ हवो वंदण रंग रे ॥४॥ पुण्यवंता० ।
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अनुसंधान-३० ७२ वामन कहइ सुणो बंधवा छते धर्मनइं योग रे ।
जे नरा साधुनई नवि नमइ ग्रह्या कुमती निरोगी रे । पुण्यवंता० । ७३ संयमी साधुनि दर्शन जस ऊपजि तोष रे ।
निज घरि शक्ति भगति करी करइ पात्रनु पोष रे ॥६॥ पुण्यवंता० । ७४ इम कही वामनि वंदिओ पड्यो वामन पूठि रे ।
मुनि परसेदनो बिंदुओ जोइओ चुअज ठिदे ॥७॥ (?) कंटक मुनितणइं लोचनइं कही आवीओ पइठ रे ।
नयणथी पणि रे खटकइ घणुं एतो वामण दीठ रे ॥८॥ ७६ बंधवा कंटको काढीइ निज पास स्युं एह रे ।
_हुं अटारो कृतांतई करयो अति वामणो देह रे ॥९॥ ७७ राम कहइ हुं पशु परि थई चडी तुं मुझ पूठि रे ।
कंटको काढी तुं वामणा निज पुण्य न ऊठि रे ॥१०॥ ७८ बाहिं संग्रामि अवलंबीउ चडी रामनी पूंठि रे ।।
वामणि कंटक तु काढीओ हवि सर्व मनि तुठि रे ||११|| वामणि कंटको काढतां मुनि तनू मलै दुरगंधि रे । व्याकुलि अंग संकोचीउ पड्यो अशुभ शुभ बंध रे ॥१२॥
पुण्यवंता जगि ते नरा ॥ ढाल-राग- आसाउरी ॥ जिनवर स्युं मेरु चित लीनो-ए ढाल ॥ ८० मुनि निकंटक लोचन करी बाल्यो जातिगारव इम चडीउ रे ।
मुझ खत्री विणुं ए कुण काढति बंध शुभाशुभ पडीओ रे । वेयावचादिक शुभ फल दायक सुकृत करी मद तजीइ रे । अतिकढिआ साकर रस सरीखो । शुभ अनुभोगो भजीइ रे ॥१॥
मुनिनि कं. । ८१ कंटकस्युं आपण उद्धरीओ भवसमुद्रथी जीवो रे ।
इति सुमित्र प्रति वामण बोल्यो एह पुण्य चिरंजीवो रे ॥२॥ मुनि० ।
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राग
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हसति राम कुमर पणि बोल्यो हूं पशु परि तुम्ह कीनो रे । कहइ संग्राम रामनिं हसतां हीन फलई शुभ दीनो रे || ३ || मुनि० ।
-
अनुक्रमि ते निजजीवित पाली सवि परलोक पहुतारे । राम- जीव तुझ हस्ति हुईनई तुम्ह तो मोहिं पूता रे ||४|| मुनि० ।
सो संग्राम जीव तपनो हुं राजऋषि तुझ मिलीओ रे ।
तुं वामण निज जीवित पाली सुणि तुझ जिम भव फलीओ रे ||५||
मुनि० ।
चेतन सांभलि ॥
गोडी ॥ सासनादेवीय पाय पणमेविय - ए ढाल ॥
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राजन सांभलि तुं निज भव कजि जेणि तुं करम संकोचिउ ए । बहु धनवंतीय पुरी अवंतीय जन भरि पुरजन सुखकरिए ||१||
तिहां सुबाहु सुबाहुअ नर नायको राज करि अतिलोभिओ रे ॥२॥ तस इक किंकरो हीन - जातीय - कुलो छत्रनो धारक किंनरो ए ||३|| त्रोटक० ।
धरणी एक तस तरुणी हरणी नामई कूखई अवतरयो । सोइ वामण जीव तेणई सुपन लखमीनो धरयो । दोहलो रत्नाकर सुपानि अतिहिं दुःखभरि पूरीओ । सुत जण्यो तेणि रूप सुंदर राज लक्षण पूरिओ ||४||
नाम सो सीदत थाप्यो रायनइं बाध्यो सो मनि नवि गमइ रे ॥५॥ रायना मूंकीया घायक चूकीया मरण काजि तेणि जाणीआए ||६॥ मरणना भय तणो ताणीओ निशि निज प्राणस्युं श्री दत वनि गयो रे
त्रोटक
ते रह्यो तरुतलि अतिहिं भूख्यो भख्यउं फल अणजाणीउ । साधु मल दुर्गंध पूरव कमि तुझ तनु ताणीउ ।
भूख्यो तरस्यो सातमि वासरई तरुतलि प्राणधारण रह्यो रे ||८||
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अनुसंधान-३०
तरुतलि तुं सोडिताणी उंघि सूतो घोरतो ।
हस्ति आवी राज दीधुं विचरि कर्मह चूरतो ॥९॥ ढाल-राग- देशाख ९४ सुणि निजसरुप चिति भावीउ रे बहु उपशम रायनइं आवीउ रे ॥१०॥ ९५ भवतारणी तपन मुनिपासइ नामइ तपस्या जेणिं सर्व सुख शांति
जागई ॥१॥ ९६ भणि तपन वर राजऋषि तुझ शरीरइं ।
विसकोव छइ जिम सदा फल करी रई ॥२॥ ९७ यथा गलिय-बलदीइं रथ न चालइ ।
तथा तुझ शरीरई किरिया न चालइ ॥३॥ ९८ यथा नव परिग्रह विना घर न चालइ ।
तथा तुझ शरीरइं विहारो न चालइ ॥४॥ ९९ यथा सिंधु जलवासु विणु नाव न चालइ ।
तथा तुझ शरीरइं समासन न चालि ॥५॥ १०० यथा शासनं साधु विण नैव चालइ ।
तथा तुझ शरीरइं वेयावच्च न चालइ ॥६॥ १०१ यथा आजीविका आलसू(सू)खा न चालइ ।
यथा जूठ बोला प्रति कुणिं न चालइ ॥७॥ १०२ यथा दान-पुण्यं विना यश न चालई ।
प्रतिलेखनादिक तथा तिं न चालइ ॥८॥ १०३ यथा गुरु विना पठन-पाठ न चालइ ।
यथा पंच भूतं विना जगि न चालई ॥९॥ १०४ यथा आहार निहारविणं तणुं न चालइ ।
तथा वंदणावतपणि तिं न चालई ॥१०॥ १०५ यथा पंचनिश्रा विना गुरु न चालइ ।
तथा ति गुरुकाय विनयो न चालई ॥११॥
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१०६ तुं तो चरम शरीरीय मुक्तिगामी ।
तेणि देशविरति सुगुरुपाश पामी ॥१२॥ १०७ गजराउ जाण जे अवधिनाणी ।
सुदृष्टिसु साधार्मिको बुद्धि आणी ॥१३।। १०८ सुपुण्याढय राजा सुहस्ति उपासई ।
सदा देव गुरु धर्मास्युं नगरवासि ॥१४॥ १०९ सो ई तए न मुनिराज प्रतिबोध देई ।
विहारो करइ तिहां बहु लाभ देई ॥१५॥ दूहा ॥ ११० ग्रहणगे रविचंद्र विणु, काल न वरतिइ कोइ ।
तिम नरनई पठु पिंड विणु मुगति म साधइ कोइ ॥१६।। राग - परजिओ अधरस ॥ प्रणमी तुम्ह सीमंधरुजी नरसेर भेढीउ साहसवीर
ए ढाल । १११ विमलबोध मंत्री भणइजी सुणी पदमोत्तर राय ।
गजसरूप चिति भावतांजी बहु भव पातक जाइ ॥१॥ ११२ सहोदर तुझ मुझ पुण्यइ योग । कहइ पुण्याढ्य नरेसरोजी ।
गज ल्यो भोजनभोग ॥२॥ सहोदर. । ११३ गज साधर्मिक लेखवीजी गज बहु कीजइ सार ।
नृप राजरुद्धि मोहिओजी कीजइ भगति अपार ॥३॥ सहोदर० । ११४ आधोरण सब वारिआंजी गजनि बंधन-रोह ।
त्रिकाल जगनई आरतीजी अति माहोमाहि मोह ॥४॥ सहोदर० । ११५ गज जयणास्युं संचरइजी जीवदयानि हेति ।
अलपाहारी उपशमइजी कहइ निज चेतन चेति ॥५॥ सहोदर० । ११६ चेद्रअ-परिवाडी करीजी सिंहसहित गजराज ।
धर्म पर्व सवि साचवइजी गजनी सब बहि लाज ॥६॥ सहोदर० ।
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अनुसंधान-३०
११७ इक दिन तस गजनइं चढ्योजी अवि दुर्धर तनु ताव ।
राय सुणी गज पूछिओजी कुण तुझ दुखनो भाव ॥७॥ सहोदर० । ११८ औषध विविधा वैधनांजी कीजि जीवनकाजि ।
गज निज मरणं जाणतोजी कीधुं अनशन काज ॥८॥ सहोदर० । ११९ अक्षर लखी जणाविउजी नृप म करिसि मुझ मोह ।
पुर बाहिर जाइ संठिओजी तिहां बहु अनशन सोह ॥९॥ सहोदर० । ढाल - आवो आवो सिर्जेजइ जईए ॥ १२० अनशन इम आराधीइ कहइ मुझ खामण तेह रे । जे मई त्रिविध विणासिआ त्रसनइं थावर जेह रे ॥१॥
___अनशन इम आराधीइ । १२१ पंचाचार विराधीया । मैं भवि भमतां जेह रे ।
मिच्छा दुक्कड ते हज्यो । शरण जिनादिक तेह रे ॥२॥ अनशन० । १२२ पाप अढार जे मई कऱ्या भवि भवि भमतां जीव रे ।
जीव हण्या त्रस थावरा करता अति दुख राव रे ॥३॥ अनशन० । १२३ जगि त्रस थावर नई शस्त्राधिकरणुं देह रे ।।
मुझ भवि भमतां जेहवं मइ वोसिरिउं तेह रे ॥४॥ अनशन० ॥ १२४ मुझ त्रस थावर जीव तुं धर्मोपगरण देह रे ।
भवि भमतां जगि जेहतुं हुं अनुमोदु तेह रे ॥५॥ अनशन० ॥ १२५ अनशन पाली गज गयो सौधरमइं सुर लोगिं रे ।
तिहां जिनघर जिन पूजतां हरख रमइ सुर लोग रे ॥६॥ अनशन० ॥ १२६ राजा गज-दुखि मोहीओ रुदन करइ अति-शोग रे ।।
गज बंधव मुझ विणुं गयो वारइ पुरजन-लोग रे ॥७॥ अनशन० ॥ १२७ दिइ दरिसन मुझ आपणो तुझ विण मुझ न समाधि रे ।
___ गज-देवो अवधिं सुणी टालइ नृप असमाधि रे ॥८॥ अनशन० ॥
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१२८ गज-देवो तिहां आवी ओ दिइ नृपनइं आलिंग रे ।
सुरतरु इक फल आपीओ नरपति अति मन रंग रे ॥९॥ अनशन० ॥ १२९ तनु संकोच विणासगं निशि नृप करइ फलभोग रे ।
इम कही गज सुरपदि गयो राय हुओ नीरोग रे ॥१०॥ अनशन० ॥ ढाल - चंदन उत्कंठा सुरपुरी ॥ राग - कल्याण ॥ १३० गज अनशन ठामि जिनतणो प्रासाद करावी बहुगुणो । गज अन० । तिहां जिन प्रतिबिंब सरूपस्युं नृप शुभ परिणामई मन वस्युं ॥१॥
गज अन० ॥ १३१ जगि जे त्रिदंड योगई करी चडी नृप जीवइ कर्मतती घडी । गज० ।
जे जिन प्रदेशस्युं अतिजडी घनघाति तीअ तेहमां वडी ॥२ गज० ॥ १३२ अति विषमी ते जिम उंटडी भव भमतां जे नृपनइं नडी । शुभ ध्यान गगनि भर तडतडि उछलवा लागी जिम दडी ॥३॥
गज० । १३३ गज पा नरपतिथी जावा घडघडी ते कर्मतती होइ सांकडी । संध्याई जिम कज-पांखडी लय लागो जब नृप बहु घडी । ॥४॥
गज० । १३४ तिहां खिपकश्रेणी नृपकर चडी तब कर्म राशि त्रूटी पड़ी ।
नृप हुई अंतगड केवली । निर्वाण नम्युं सुर तिहां मळी ॥५॥ गज० ॥ १३५ इति विमलबुद्धि मंत्री कह्या जिम न्यानी गुरुमुखिथी लह्या ।
पुण्याढ्यराय-चरितं सुणी । प्रतिबुद्धि राजसभा घणी ॥६॥ गज० ॥ ढाल - राग - केदारु ॥ सरसति अमृत वसि मुखी- ए ढाल ॥ १३६ एक दिनि मणि सिंहासन बइठो जिम रोहणगिरि दिनकर पइठो ॥१॥ १३७ पदमोत्तर नरनाथो शोभति जिम गयणंगणि चंदो ।
राजसभा देतो आणंदो बोलति उपसम कंदो ॥२॥
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१३८ व्रत विचार व्रतनां फल जायां पूछइ राजा कहो मुझ साचां । विमलबुद्धि मंत्रीशो || ३ ||
१३९ विमलबुद्धि मंत्री तिहां बोलइ राजन व्रतनां फल कुण तोलइ । सुरगिरि कुण तोलइ ||४||
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१४० मुनिनि कंटकिउ जिणि लोचनं । तस फल चहवु भव मोचनं । विशद संयम जइ प्रभु पालि तिणि कां न विमुक्ति निहालइ ॥५॥ राग - मल्हार || एक वरसीजी ऋषभ करइ - ए ढाल ॥
१४१ इणइ अवसरि रे पंचवरण जगि विस्तर्युं । अजूआलू रे नगर मांहि ते अति भयुं ॥१॥ त्रोटक
१४२ तिहां तेज - भरिउं लोक देखइ गगनिथी बहु उतरि । सुर विमाना मधुरगानां नगर वनमां संचरइ । देव देवी तणां भूषण रयण जे चित्रविचित्र रे । तेणि अचिरज नगरजननां नयन होइ पवित्र रे ॥२॥
१४३ इणि अवसरि रे वनपालि नृप वीनव्यो । तुझ वनमां रे मुनिवर आव्यो सुरि नम्यो ||३|| त्रोटक
१४४ सुर नम्यो कंचण सहसदल वर - कमलि बइठो सोहइ । तिहां मिल्या बहुविध भाविक नयनां चंद्रनी परि भोहए । सुवज्रनाभ मुणिंद केवलनाण दिनकर तम हरइ ।
तस नमइ मुनिनि नगरि आवइ ते नरा भवदुःख तरइ ||४|| १४५ सुणी हरख्यो रे राय दिइ तस भूषणां ।
तस हरिआं रे रायई दरिद्र दूखणां ॥ ५ ॥ त्रोटक
१४६ दूखणां हरतो राज चिन्हह अति महोत्सव वंदीउ । वज्रनाभ केवली चरण वंदी राय अति आनंदिओ । वज्रनाभ मुणिंद सुगुरो आज धन मुझ वासरो । हूओ हृति: पापदर्शनि हूओ पुण्यउपासरो ||६|
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ढाल - सरसति अमृतनो ॥ राग - केदारो ॥ १४७ तिहां प्रणमती सुरीय थुणंति वज्रनाभ मुनि सुगुण गणंती ।
कहइ जग-जीव-दयालो ॥१॥ १४८ अमरसंघ आवइ इक जावइ देखी नरपति अचिरज पावइ । गुरु महिमा चित्त भावइ ॥२॥
त्रोटक १४९ पुर-नरा तिरिआ तिहां मोहिआ ।
सुगुरुनादि रह्या निहा रोहिआ । तिहां मिल्या भविआ बहु देशना ।
ते सुणइ गुरु अमृत देशना ॥३॥ १५० वाघ सिंह जरखादि सीआला ।
जे हूंता जगि अतिविकराला ।
तेपि हुआ सुकुमाला ॥४॥ १५१ वानर मांकड रानबिलाडा ।
गज दीसई दंतूसलि जाडा । दीसंति सूअर काला ॥५॥
त्रोटक १५२ रिझरोझ ससला मृगला मिल्या ।
चीतरा नकुला हय गोधला । अरिहधर्म सुणइ श्रवणंजलि ।
ते पिबंति मुदंति गुरु मिलइ ॥६॥ ढाल - सामि सुहाकरनी । १५३ मुनिवर जाण्यउ त्रिभुवन दीवडओ । बारम जिनवर ए नृप जीवडो ॥१॥
त्रोटक १५४ एवडु मोटा जीव जाणी गुरु करइ गुरु देशनां ।
संवेगजनकी कथा कहइ-भवि सुणइ बहु-देशनां ।
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दानशील तपो जगमा भावनां जेणइ अणुसरी । संसार सागर सुणो भविआ गया ते सुखि उतरी ।
१५५ तरिओ दानिय महति सागरो ।
तिम तपि तरिओ संवर मुनिवरो ॥३॥ त्रोटक १५६ सनतकुमारो सील तरिओ तरी सिणगारसुंदरी । भावि चंद्रोदरो वरिओ गुरई च्यार कथा कही ॥ अथिर तनु धनु राज यौवन युवति भोगा भंगुरा । विविध रोगई विविध शोक विविध दुखिआ किंकरा ||४||
१५७ राजन सुणि तुं जगि जे दोहिलां । ते तई पाम्या पुण्यई सोहिला ॥५॥ त्रोटक
१५८ सोहिला पाम्यां पुण्य योगइं पंच इंद्रिय पडवडां । मनुज भव शुभ देश शुभ कुल देवगुरु शुभ वचनां । आराधितुं ए भव महोदधि तरण कारणि प्रवहणां । विविध भवमां जीव कीधा जननी - सुख (त) सगपण घणां ||६||
१५९ बोल्या नरपति गुरुवयणां ।
जननी जायो गुरु तुं वर धणी ॥७॥ त्रोटक
१६० धणी तुं मुझ होइ मुनिवर देहि दीख्या आपणी । घरि नई निज राजचिंता पुत्र थापी पुर धणी ।
अनुसंधान- ३०
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भणइ तव गुरुराजराजन, धर्म विलंब न कीजीइ । धम्मि आलस करइ जो जगि तेहि दुर्गति लीजीइ ॥८॥
ढाल राग गढी ॥
१६१ दिइ दिइ दरिशन आपणुं निज सुत राजधणी करी । छंडी सब संयोगो दिख्या- नाव जलनिधि तरी ।
छंडी अंतिम सब भोगो ॥१॥
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त्रोटक
१६२ भोग छंडी बहु महोत्सव लेइ दिख्या गुरुतणी । संवेगि गुरुकुलवासि विनयई एकादश अंगी भणी | संवेग वास्यो देश विचरी विषय-इंद्रिय वशि करी । वीस थाव (न) कि रमइ मुनिवर शुद्ध करतो गोचरी ॥२॥ १६३ राजऋषि पदमोत्तरो फासति अभिनव सूरो । विंशति थान मंजल चरण कारण गति पूरो ॥३॥ त्रोटक १६४ चरण पूरो मनि अंकुरो प्रथम थानक जिनतणी । भाव - पूजा भगति करतो प्रणमतो जिन गुण थुणी । इंद्र चंद्र नरेंद्र पूजा द्रव्यनी अनमोदतो । सकल जंतु दयालू जिनना गुण समुद्र विलोलतो ||४|| १६५ बीजि थानकि सिद्धनि ध्यान रमी मुनि राजो | त्रीजइ प्रवचन संघनी भगति करी बहु काजो ॥५॥ त्रोटक१६६ काज गुरुना करीइ चउथइ भगति गुरु गुणगान रे । श्रुत वयो व्रतधर भगती पंचमइ तस मांन रे । सूत्रधरथी अर्थधरनइं विशेषिं बहुमान रे । थानक छच्चइ करी श्रुतधर - भगति अन्नह पान रे || ६ || १६७ तपसीय - भगतीय सातमई अठमई अभिनव - नाणो । पठन गुणन तस चिंतनं नवमइ समकित ठाणो ॥७॥ १६८ नाणविनयो करइ दसमहं सर्व गुणमणिसार मई । षडावश्यक करइ मुनिवर एक चिंतइ ग्यारमई ॥८॥ १६९ बारमइ शुचि शील पालइ सर्व शुद्धाचारस्युं ।
शीलधर अवदानथि तन करइ मुनि विस्तारस्यु ||९|| १७० परिहरीय कुशील संगति सुशीलह संगति कारी सर्व थानकी रमइ मुनिवर अरिह भगतिं चित धरी ॥१०॥
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इति खट् दी ।
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१७१ एक खिण लव परमादमां न वसई तेरमइ, थानई विविध तप करइ चउदमइ । पनरमइ दि मुनि दान त्रोटक १७२ दान विविधा दिइ मुनिनई, वेयावच करइ सोलमई । सतरमई निज अपद मुनिनई समाधि दि अढारमई ॥१२॥ १७३ ध्यान अष्टादशइ ए गुण वीसइ श्रुत भगती करइ । वीसमइ शासनप्रभावक मुनिश तीर्थ पदं वरइ ||१३|| डुंगरीआनो ।
ढाल
१७४ वीस थानक वर मंडलं नमी सूय परिवार रे ।
तीर्थंकर नाम तिहां बंधीउं निरतिचार आचार रे ॥१॥ वीस थानक० । १७५ विहार भूमी पवित्री करी करी अनशन मासि रे ।
केवली वज्रनाभांतिके निजालोचना भासि रे ॥२॥ वीस था० । १७६ पंच आचारमां जे हवा अतिचार प्रकाशि रे ।
पंच महाव्रत ऊचरी वशी उपशम वासि रे || ३ || वीस था० । १७७ मुनि खमावइ गुरु- साखिस्युं जगि जीवनी रासि रे ।
पंच थावर त्रस जे हण्या, मिच्छा - दुक्कड तासि रे || ४ || वीसथा० ॥ १७८ अशुभ परिणामई भमतां भवइ हण्या जीव जे चोर रे
राजमद धनमद हेतुमां हण्या जीव जे ढोर रे ||५|| वीस था० ॥ १७९ छाग मृग वाघ जे हण्या हण्या सीट सीयाल रे ।
मूषक मांजार सेहला हण्या सर्प विकराल रे || ६ || वीस था० ॥ १८० गोण वृषा हय उंटडा जरखां रोजडां नउल रे ।
माछला वानर मांकडा महीष मारीआ कोल रे ||७|| वीस था० ॥
१८१ मस्तकछेद सूली दीया हण्या होममां यागि रे ।
अनुसंधान- ३०
जीवता अगनिज बालीआ हण्या जीव सवादि रे ॥८॥ वीस था० ॥
१८२ जीवता खाल उखेलीआ हण्या वनपुर बांध रे ।
गाम नगर जे बालीआं हणाव्या पसू वाघ रे || ९ || वीस था० ॥
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१८३ त्रिवधिं मिच्छादुक्कडं खमावुं मन साखि रे ।
१८४ पापथानक सवि वोसिरयां सदा मोहनां हेतु रे
सवे जीव खमावीआ शरण च्यार मुख भाखि रे || १०|| वीस था० ।
उपकरणां सवे वोसिरयां नवकार धरइ चित रे || ११|| वीस था० ।
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१८५ पंच नवकार चिति राखता देह पंजिरं छंडि रे
प्राणत देवलोक गयो लिओ सुर सुखपिंड रे || १२ || वीसथा० । ढाल अढीय द्वीपमां जे त्रिकाल पुरुषोत्तम हूओ आसनकए - ए ढाल । १८६ देवो पुण्य निधान चंद्रासासविमानमां ए सुर शय्या थी । ऊठि पुण्यविचार ज्ञानमां ए ॥१॥
१८७ उदयाचल जिम सूर उग्यो शोभति तमहरु |
देह अनोपम रूप तिम तिहां शोभति सुर वरु ॥२॥ १८८ जय जय तुं चिरंजीव सामि हमारो उपनो ए ।
सेवक सुर परिवार कहइ कुण पुण्यई जीवनो ए ||३|| १८९ पुस्तक वी (वां) चीय सार सुर शुभ करणी आदरइ ए । जिनघर प्रतिमा रूप सत्तरभेद पूजा करइ रे ॥४॥ १९० नाटक सुर सुख भोग सुखसागरमां झीलता ए ।
काल न जाणइ देव जिम हंसा सरि कीलतां एं ॥ ५ ॥ १९१ जिन कल्याणक काज करीअ सुणइ जिनदेशनाए । नंदीसरवर यात्र महरिसी वंदइ देशनाए ॥ ६ ॥
१९२ केवलनाण-निहाण विणुं संयम नवि पामीइ रे । विणु माणव अवतार तिणि नरभव सुरि कामीइ ए ॥७॥
ढाल
त्रिभुवन जिनपति वीर ।
१९३ दीप असंखई वेढिउं धुरि जंबूअदीवो रे । जीवो रे जिहां आवइ छइ जिणवर तणो ए ॥१॥
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अनुसंधान-३० १९४ तिहां दक्षिण वर भरतमां रिपुजन-वद्धिअ-कंपा रे ।
चंपा रे तिहां नगरी चंपावन घणां रे ॥२॥ १९५ ग्रहणं जिहां रवीचंद्रनइं पणि नवि कुणनी रातई री ।
तातई रे जिहां जन न पडइ मुनीजन तणी रे ॥३॥ १९६ संयम न जिहां केशनइं पाणि कुण नई वि अपराधि रे ।
बांधि रे जिहां घर न पडइ सूतडां रे ॥४॥ १९७ ग्रहगणवर तइ लगनमां कटक समासई विग्रह रे ।
विग्रह रे जिहां नवि वरतिं जनमां ए ॥५॥ १९८ थउट पडइ मादल सिरई तिम वमय वरत गज कुंभि रे ।
दंभइ रे जिहां नवि वरतइ जिन धर्म मा रे ॥६॥ १९९ अगुरुवास जिन केशि रे जिहां आरति जिन धूपई रे ।
कूपई रे जिहां जड वरतइ पाणि नवि पुरीइ रे ॥८॥ २०० संकडतां युवतीकडइ जिहां वरतिउ पण नवि घरमां रे ।
घरमां रे दिसइ जिहां नवनिधि लोकनइं रे ॥९॥ २०१ जिहां जिनभवन-पातकिनी जाणई नभ-शशिनइं चाहइ रे ।
चाटइ रे जगि जिन यश दिशि आंतरां ए ॥१०॥ २०२ तिहां वसुपूज्य नराधिपो देविंद सरिखो राजइ रे ।
वाजइ रे जिन घर-बार नफेरीआं रे ॥११॥ २०३ जांणि जिहां जिनधर्म नइं जिनचैत्य धजा प्रचलती रे ।
चलती रे कवि लूंछणां रे ॥१२॥ २०४ नामि जया तस राणी रे धरि रूपई जिम इंद्राणी रे ।
जाणी रे सा शीलइ मरुदेवी जसी रे ॥१३॥ ढाल - प्रथम पूरव दिशि । २०५ सरस वरकुसुमस्युं सुरभिभर धूपिओ ।
गोपीउं वासघर कनक देहं ॥१॥
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२०६ विविध मणि दीपतो उद्योति मणिमंडिउं ।
खिडिउं बहु धनि वास गेहं ॥२॥ २०७ तिहां सुखि सुतीय शुभ दिशि सूतीय
सा जया श्रीवसुपूज्यराणी ॥३॥ २०८ जेठ शुदि नवमीय शतभिखा शशि त(ठ)इं ।
सुरघरि वीस सागर रमीए ॥४॥ २०९ चउदसुपनि जया कुखइं वरसीपमां ।
सुर मुगताफल अवतर्यो ए ॥५।। २१० जांणीइं सुपनलां तीर्थंकर मातनइं ।
जूजूआ भाव आपई कहइ ए ॥६॥ ढाल - घोडीनो ॥ सोभागिणी जाणे । २११ एणइ कारणि हुं आव्यो तुझ प्रथम सुपनमां ।
वरगुण लक्षण भाव्यो ॥१॥ २१२ मुझ सामीय इंद्रो तुझ सुत सेवक होस्यइं ।
ऐरावण गज हूं तुझ सुत पणि मुख जोस्पइ ॥२॥ २१३ तुझ नंदन मुझ परि पंच महाव्रत धोरी ।
हूं वृषभो सुपनि बीजइ आवीओ जोरी ॥३॥ २१४ तुझ सुत नरसीहो मुझ परि मद-गज--भेदी ।
तेणइं सीहो हूं छं त्रीजउ दुखुनो छेदी ॥४॥ २१५ मुझ चापल जास्याइ तुझ सुत पासि आवइ ।
हूं लखमी चउथी आवी मुझ जोउ भावि ॥५॥ , २१६ मुझ परि तुझ नंदन कीर्ति सुगंधी जाणइ ।
हूं विविध कुसुमनी माला पंचवखाणि ॥६।। २१७ मुझ मंडल मित्रो तुझ सुत वदनं होसी ।
हूं पूनिम चंदो छठो जो निरदोसी ॥७॥
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अनुसंधान-३०
२१८ हणस्यइ तुझ पुत्रो मोह-तिमिरनई जाणे ।
सुभगे सत्तम हूं आदित जो सुभनाणे ॥८॥ २१९ कुल धज तुझ नंदन होस्यइ आठमइ जोई ।
विणु पुण्यइं सुपनि नारि न देखति कोई ॥९।। २२० न्यानादिक गुण-मणि-कुंभो छि तुझ कूखि ।
हूं नवमो कुंभो देखि म जाइ सि दूखइं ॥१०॥ २२१ जन तृष्णावेदी मुझ परि तुझ सुत देवइं ।
तिणि पद्मोत्त(र) सरोवर दसमु तुं मुझ सेवी ॥११॥ २२२ सुत गुण रत्नाकर गंभीरो मुझ मित्र ।
सुभगे रत्नाकर एकादशम पवित्र ॥१२॥ २२३ दुर्लभ हूं जाणे अपुण्याजन नई देवी ।
तुझ पुण्यवंतीनई सुरविमान मुझ सेवी ॥१३।। २२४ तुझ सुत मुझ मित्र अनंता गुण मणिवासी ।
हूं सुपनइं आव्यो विविध रतननो रासी ॥१४|| २२५ सुत कम्मिधणनि ध्यानागनिइ दहेसि ।
निर्धूम अगनि हूं सुपनइं जो शुभवेसी ॥१५॥ ढाल ॥ राग-अधरस ॥ २२६ अनुपम सुपनलां रे प्रिय मइ आज सुपनमई देख्यां ।
प्राणनाथ तस फल मुझ कहीइ एहवां कहीं न देख्यां ॥१॥ अनुपम० । २२७ सपन चउद देखी अति हरखी सुमुखी जिननी जननी ।
सुपनतणां फल प्रिय प्रति पूछइ अतुरति गजगति-गमनी ॥२॥ अनुपम० । २२८ वसुधाधिप वसुपूज्य सुणीनई एणइ वचंनि अतिहरखइ ।
जया राणि ते अनुक्रमि कहितां राजा निजमति निरखइ ॥३॥ अनुपम० | २२९ निजमति सुपन विचारी बोलइ निज-धरणी प्रति भूप ।
अतुली-बल तुझ नंदन होस्यइ तस सुरपति-समरूप ॥४॥ अनुपम० ।
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२३० सुपननुं फल निसुणी राणी हरखइ हृदय भराणी । सुपन प्रमाण करीनि निज पदि जिन गुरु कथा कहि राणी ॥५॥
अनुपम० । २३१ नरपति सुपन पाठकि नइ तेडी पूछइ सुपन विचारो ।
अनुक्रमि सुपन पाठक आगलि राजा वदति उदारो ॥६॥ अनुपम० । ढाल-राग- धन्यासी । २३२ प्रथम एरावण दीठो नयणे अमीअ पइठो ।
. बीजइ वृषभ उदारो दीठो अति सुखकारो ॥१॥ २३३ त्रीजइ मृगपति देखइ दर्शन दुरित उवेखउ ।
चउथीथि लखमीअ सोहइ जिण दीठि जग मोहइ ।।२।। २३४ पंचमइ कुसुमनी माल छठुइ चंद्र विशाल ।
सातमइ तमहरु दिनकर आठमइ इंद्र धज जयकर ॥३॥ २३५ नवमइ कलस मनोहर दसमई पदम सरोवर ।
इग्यारमई सागर सुंदर बारमइ अमरनुं मंदिर ॥४॥ २३६ तेरमई मणिभर गगनि चउदमइ निरधूम अगनि ।
इति सुणी सुपनना पाट्ठी बोल्या निज मनि गाह्री ॥५॥ २३७ राजन तुझ सुत होस्यइ त्रिभुवन तस मुख जोस्यइ ।
नरपति अहव जिणिदो आव्यो ए कुलचंदो ॥६॥ २३८ राय दीइ बहुमान पाठकनइ बहु दान ।
पाठक कथन सुणावी घरणीइं घरि आवी ॥७॥ ढाल- सेहलनो ॥ २३९ धवल विमल सोहामणो रे पुण्यई विमला डोहला रे ।
जया सफला होइ धन्य जीव्युं जग मनोरथकां ।
न वि का नवि सफला होइ तो ॥१॥ २४० पुण्य करो जगि जीवन ए, पुण्यई ए पुण्यइ मंगल होइ तो ।
पुण्यइं धरी मणि डाबडाए ॥२॥
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अनुसंधान-३०
२४१ कुलवधु सीमंतिनी रे गाइ घरि सीमंत ।
जया अतिरूपइं चडी देखीय देखीय मोहति कंति कि ॥३॥ पुण्यकरो०॥ २४२ नित नवां मंगलीक जोती करइ गर्भनो पोष । विविध तनु-मन-सुखई रमती न विरलइ कुण पति-रोषकि ॥४॥
पुण्यकरो० । २४३ मास पूरइ आवीओ रे मधुकर फागुण भासा । किशन चउदसि निशा समए शतभिषा शतभिषा उडुपति वारतो ।।५।।
पुण्यकरो० । २४४ त्रिजगदीवो जाईओ रे जगि सुखी सब कोई । त्रिभुवन उद्योत कीधु नारकि नारकि पणि सुख होइ कि ॥६॥
__ पुण्यकरो। २४५ त्रिदश आसन कंपीआ रे दश दिशी पि हसंती । हुती सलाख विमानघंटा नादिइ नादिइ ए सुर विकसंत कि ॥७॥
पुण्यकरो० । २४६ दिशा कुमरी छपन्न आवी सूतिक कर्म करंति । अरिह जननी पद नमी नई निज निज धर्म धरंति कि ||८||
पुण्यकरो०। ढाल - घोडीनो । २४७ माई धन्न सपन तुं जिन जननी जिन स्युं । अति भगति न्हवरावी सुर चीर मणिना अलंकार पहरावी ॥९॥
पुण्यकरो० । २४८ जिन जननी जनम धवल गवरावी ।
जिन रख्यापोट्टलि श्रीजिनकर बंधावी ॥२॥ २४९ धन तूं सोभागिणि लालमणी तइं जायो ।
तुझ नंदन देखी अम्ह आणंद न मायो ॥३॥ २५० कल्याणककंदो तई जायो कुलचंदो ।
तई आव्यो जननइं त्रिभुवन तमहरु दीवो ॥४॥
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२५१ तुझ लाडिकडो ए सुरगिरि जीवित जीवो ।
तुझ लालमणीनां पगलां इंद्र न लाडई ।
तस मुकुट मणी मां हरसि लागी जाडि ॥५॥ २५२ बलीहारी करस्यइ इंद्रभवननी नारी ।
चउसठि सुरनायक सुत तुझ सेवक बारि ॥६॥ २५३ छपन्न दिशिकुमरी इम हरर्षि गायति ।
वरवीणा उभी जिन आगलि वायंति ॥७॥ २५४ जिन आगलि हरखी दिशिकुमरी नाचंति ।
जिन-जनम-महोत्सव करती शुभ याचंति ॥८॥
ढाल
२५५ सुणि जिन त्रिभुवन वेधनो गिरि शिर परि अवलाई ।
आसन इंद्रनां श्री जिन जन्मि हलावीआंए ॥१॥ २५६ हरि चडीओ अति कोपि अवधि जाणीउं ।
अम्ह जन्ममंगल आवीआं रे ॥२॥ २५७ सुरपति हवो प्रमोद सुरवर घंटना ।
नादि सुरवर मेलिआए ॥३॥ २५८ सुर वाहनि विमानि अंबर मागि ।
सुरनी कोडिं भेलीआए ॥४॥ २५९ हरि जिनजननी पासिं आवी प्रणमीय ।
जिनजननी कीरति करइए ॥५॥ २६० रयणकूखनी धारि हूं हरि मन धरे ।
तुझ सुतनो हुं किंकरोए ॥६॥ २६१ इम कही श्रीजिनराय लाइ करतलि ।
एक जिनबिंब तिहां धरइ रे ॥७॥
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२६२ मेरु शिखर तुझ पूत जनम महोत्सव । करि निज दुरितां कापसिउरे ॥८॥
२६३
भय म धरिसि मनि मात बलतो तुझ सूत । लालमणी तुझ आपसिउं रे ||९||
२६४ पंच हूआ तिहां इंद्र छत्रादिक धरी । मेरु जमइ तीर्थजला रे ॥१०॥
२६५ सर्वोषधि गोशीर्ष बावन चंदनां । मेली ते सवि निर्मलांए ॥११॥
२६६ अठ्ठ सहस्र चउसठि कलसा जलभरी । चउसठि इंद्रइ न्हवरावीउ रे ॥ ११ ॥
२६७ विविध महोत्सव रंग नाटक सुर करी । रयण राशि उच्चारीओ रे ||१२||
२६८ पूजी प्रभूनई इंद्र अंग अलंकारी । प्रभु आगलि मणि- तंदुलइ ॥१३॥
२६९ मंगल आठ लिखंती अवगुण न वि पडइ । तिहां जिम बीबूं कांबइ ||१४||
२७० अमर गुण थुणंती प्रभु गुणगीतमां ए । गुंथी नंदीसर जईए ॥१५॥
ढाल
२७१ यात्र करी सुर शृंगि प्रभु गुणगातीय । मुद माती निज पदि गईए || १६ || क्षत्रिय कुंड सोहामणुं रे ॥ राग-देशाख ॥ • २७२ सुरि घरि करी कोडि बत्रीस लेखइ । वर कनक मणि रजतनी राय देखइ ॥१॥ २७३ सुरि प्रभातिं दस दिवस चंपापुरीए । करी जनम महोत्सवइ सुरपुरी ||२||
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२७४ तिहां घरि घरि मंगल कुसुम माला ।
जिनपूजा वधामणां दिइ विशाला ॥३॥ २७५ पिता वासुपूज्योभिधान च थापइ ।
जेणि नाम ली घरई जनो दुरित कापइ ॥४॥ २७६ सुरतरु परि श्रीजगदीश वाधइ ।
घरे नव नवि उत्सव विघन बाधइ ॥५॥ . २७७ जया सुरपतिइं पूजिउ पूत देखी ।
जाणे जनक-जननी हूई निनिमेषी ॥६।। २७८ जया पूतनइं हृदय ऊपरि जडावइ ।
सुत-चंदनई विविध गुणस्युं लडावइ ॥७॥ ढाल - देखण दइरी देखण दे ॥ राग - आसाउरी ॥ २७९ लालमणी रे लालमणी इंद्र मुकुटको लालमणी । तूं मुझ पूर्ति लालमणी जीत्यउ पद नखरुचइ । तेरी कंति हणी ॥१॥
लालमणी रे० । २८० पूति जीति लाली तनु जाई जाणेश लाल गुलाल तणी । परिमल पणि उस जीति लगायु वदन गुलाल ए गंधि घणी ॥२॥
लालमणी रे० । २८१ बाल-तरणी किम मित्र किओ तइं ।
तुझ तनु लाली बहुत गणी ॥ लालमणी रे० ॥३॥ २८२ कमल बंधु सोइ तुं जगबंधव ।
तेणई जग तापई अप्रीतिकरी ॥४॥ लालमणी रे० । २८३ गंधि हुआ जासूणां ऊणां ।
जेणि तुझ कंतीय नैव थुणी ॥५॥ २८४ चोलमजीठीय खंडखंडीइ ।
जेणइ तुझ कीरति नेव भणी ॥६॥ लालमणी रे ला० ।
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अनुसंधान-३०
२८५ तुं त्रिभुवनजन-मोद विधायी तुं मुझ नंदन त्रिजगधणी । तुं जव जाय तुं जगसुख दायक तव सुर रणझणी घाट घणी ||७||
लालमणी रे ला० । २८६ सुरपति नारी हूलाई लडायो हूं पणि इंद्रइ प्रणमि थुणी । तुं सुत रवि जायो तस दिनथी घरि पाय ठेलीइ कोडि मणी ॥८॥
लालमणी रे० ॥ २८७ मात हूलावति चंद्र देखावति रयणमाल सुत गलि रोपी । चंद्र-बिंब मागइ जब नंदन तव दीसइ प्रभु सिर टोपी ॥९॥
लालमणी रे ला० । २८८ नीलकमल दल लोचन मोहन चंद्र वदन सुत हरि रूपी । होठ गुलाल रंग परि शोभित नाभि सुधारस भर कूपी ॥१०॥
लालमणी रे ला० ॥ २८९ जितसुरशाखि सुचीवरयुगलो वदन केतकीगंधो री । सत्तरि ... देह मणिबंधो सकल कलागुण सिंधो रे ॥११॥
लालमणी रेला० ॥ २९० सहस अठोत्तर लक्खण धारक प्रकृति विचक्षण वाधइ रे । रूपई सुंदर विजितपुरंदर सर्व कामगुण साधइ रे ॥१२॥
लालमणी रेला० ॥ ढाल । राग-सबाख ॥ इहा पोसोई तुं - ढाल । २९१ चलो पूता पाठशाला नरा जे ज्ञानइं विशाला ।
शोभति ते जिम सुरतरुडाला सोभति नरा-निव-सभामां हि नाणिवाला।
राजति जिम नवि नारीसिर टाला ॥१॥ चलो पूता पाठशाला ॥ २९२ खोलीइ उरडे ताला । भरी लाइ कनक थाला
भरी निपकवान थाली । प्रीसीइयु जिमइ साजन थाला ॥२॥ २९४३ भणि कंचण दोऊ साजन सार भूषणां देती ।
मत करो किसइ कूरी टाला ॥३॥
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२९४ प्रभो गलिं मंदार माला भरो प्रभु तंबोल गाला । . गल तलवर मुगताफल हारा जाला ।
मस्तकि मुकुट स्युं लटकति कानि कुंडल ।
प्रभु तनुभूषण झाकझमाला ॥४॥ २९५ नालिकेरां भरोरी डाला खजूरां केलेई जाला ।
धउ साजन तु रीझा बाल गोपाला पंच शबद नीसाण वाजइ ।
गगनि तस नाद गाजइ तिलक करो सब साजन भालिं ॥५॥ २९६ मेलीइ तिहां भूमीपाला दिइ धवलां देवी बाला ।
नाचति नाटक मेलति ताला देखति पुरजन कुमर ने साला ।
उत्सव छात्रह दीजति विहार विशाला ॥६॥ २९७ श्याम जईसा मेघमाला पंथि गाजइ हस्ती काला ।
चपला करइ निज सुंडिना चाला । आगलि ति जाइ तुरकी तोसार माला । पुर नृप कुमरा देवा तिफाला
॥७॥
२९८ प्रभो तुं सब कला शाला बालको प्रणितां ही बाला ।
इति निपुण ति मुगधा महीपाला । चलितासन इंद्रो आई साजण सभा बोलइ प्रभु पंडित ।
तुंही किसी नेसाला ॥८॥ ढाल - जाननो विवाह अवसर आवीओ रे । राग - मारुणी ॥ २९९ इंद्राणी सारिखीअ आणी वधू प्रभुनि काजि राजवत्सल तणी ।
पदमावती रे प्रभु परणो आज कि कुलवधू किम कहेई । धरणी विणु घर नवि होइ घरणी घर-सार करेई ।
घरणी तिणि लोक चरेई रे पूता कुलवधू इम कहेई ॥१॥ ३०० विविध मोटा मांडवा रे कनकमणिना थंभ ।। रामवती पकवान करस्युं भोजनना आरंभ तो ।
। तिहां नरनारी वृंदकि जोइ ज्योतिषी व्यंतर इंदा । सुरो धवल दिइ आनंद रे पूता ॥२॥ कुलवधू० ।
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३०१
आवीआ अणतेडीआ रे इंद्र घरणी साथि । वैमानिक तिहां देव आवइ श्रीफला फला धुज नइ हाथिकि ॥३॥
कुलवधू० ।
३०२ धराधव आमंत्रीआ रे आवीआ बहु साथि ।
वधामणा डांबहु तत्पावइ शोभति शोभति जिमणइ हाथिकि ॥४॥ कुलवधू० ।
ढाल धनवान |
३०३ श्रीवासुपूज्य नरिंद सुत दिनकर आव्यो । अनोपम एह वणकराव्यो सुर सम नारियां ए ॥१॥ ३०४ उढणि चूनडीए पहिरणि वरफाली ।
कंठि कुसुम धरी माल अंगि अलंकरी ए ॥२॥ ३०५ कोकिलकंठी नारि मुखि धवल देयती । तेल सुगंधि कचोलि मर्दन कीजीइ ए ||३|| ३०६ मणि कनका सरि कासिमि वासुपूज्य पधारो । अम्ह मनि हर्ष अपार मर्दन कीजीइ ए ||४|| ३०७ जक्षसुकद्दम देह प्रभु ऊगद देई ।
मंगल लण्हवण करति तीरथ नीरस्युं ए ॥५॥ ३०८ इंद्रमुकुट वर खूप सिरि तुंगल कानि । मणिमुगताफलमाल भूषण कुसुमनां ए ॥६॥
ढाल
उलीलानी ॥
३०९ कुंकुम तिलक सिरि सुरपति भूपति सोहइ । वरघोडइ जग मोहइ केसर छांटणां कीजइ ॥१॥
३१० अगुरुधूप तनु कीजइ साजन भूषणां दीजि । कुलधर चीर आपीइ पुर पहिरामणि कीजइ ||२||
अनुसंधान- ३०
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३११ वरगडवा गाय दीजइ बंदी मुख शिवबोलइ ।
नाटक होइ सुर तोलइं जन उगट हस्त बोलइ ॥
सुरपति घांट घंघोलइ दान भरइ जन खोलइ ॥३॥ ३१२ प्रभु वरघोडो ए शोभइ वाजिंत्र गगनि ए षोभइ ।
हस्तिघडा पंथि क्षोभइ हस्तिपुर-घर शोभइ ॥४॥ ३१३ ढाला ॥ जलहीनो हाथ जाडीयाए ।
त्रिभूवनपति वर गज चडी वरे ऐरावण सरखइ
रोहणगिरि तरणी यम । देखीय त्रिभुवन हरखइ ॥१॥ ३१४ सुर नर कोडि परिवर्यो अंबर वाजिंत्र घोषा ।
दान होइ बहु तोकणि लूण हरइ बहु दोषा ॥२॥ ३१५ छत्र पविशं सिरि ढलइ चमरीअ चामर ढालइ ।
चंद्र मुखी चांदरणीय पूंठिगीत न टालइ ।
धवल दिइ ते रसाल ॥३॥ ३१६ पूंठि लामण-दीवडो-ए जिन अविहड होस्यइ ।
मुझ परि झगमगतो प्रभु निजमतिं त्रिभुवन जोस्यइ ॥४॥ ३१७ राय कहइ वेवाहणि पइसी रहो छउ कां सूणइ ।
बाहरि वेग पधारीइ बहु मणिथालो रे गुणइ ॥५॥ ३१८ वासुपूज्य वर तोरणि ते मणि मोती वधावो ॥
अर्थ दिओ वरारायनइं पुंहकणडाई करावो ॥६॥ ३१९ तव जिन सासू अधसमसा अर्घ दिई शुचि नीरइं ।
वसुपूज्य वेवाहीय इंद्र रह्या सम तारइं ॥७॥ ढाल ॥ ३२० तोरणि जिनवर आवीआए सासूइ श्रीजिन पुंहकिया रे ।
ताणीय श्रीजिन आपणि बारणि मूंकीआए ॥१॥ ३२१ पाए सराव चंपावीउं रे जाणि अशुभनूं मूल कंपाविउ रे ॥२॥
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अनुसंधान - ३०
३२२ कंठि वरमाला दिवरावीइ ए धनि बहु जेणि जिनकर धारीइए ||३|| ३२३ माहिरामांहि पधारीइ ए मुख - जोअणि बहु जन आवीइ ए ॥ ४ ॥ ३२४ वहूतणो हाथ - मेलावडो ए जाणे बहु वर- - सुखतणो डाबडो ए ॥५॥ ३२५ धवलडां सामसाहमां होइ ए तिहां अपछरा कोतिकडां जोइ ए ||६|| ३२६ इंद्र ते धवलडां सांभलइ ए तव घमरीय सर्व गावा मिलइ ॥७॥ ३२७ वर मुख - जोयणि मणि ठाइ ए जिण दरशन सिंधु डोहि ए ॥८॥ घोडीनो ॥
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ढाल
३२८ इक धन धन रे । वसुपूज्य नरपति जस कुलि जिन आयो । जिणइ आव्यइ रे सुर नरपति घरिघरि घंटानाद वजाय ॥ १ ॥ ३२९ इक धन धन रे जयाराणी कूख जिणि ए वर जायो । जिणइ जिणनइ रे छप्पन्न दिशि कुमरीइ श्रीजिनगुणगायो ||२|| ३३० एक धन धन रे पदमावति वहु जेणि जिन वरिओ । जिणिवरनई रे चंपापुरी जनपद बहु धन भरिओ ||३||
३३१ इक धन धन रे सुर - नरपतितति जिणि ए जिन थविओ । जेणइ थवतइ रे सुरगिरिशिर उपरि ए जिन न्हविओ ||४||
एक धन धन रे चंपापुरि जन जेणि ए नित दीठु जेणिए दीठइ रे ॥
ढाल अम्ह त्रिभुवननो पातक नीउ ए ढाल ॥
३३२ अगनिनइ दिउ प्रदक्षणा श्री जिन दक्षविचक्षणाए ।
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देवरावीए अग्नि प्रदक्षणाए केडिं पदमा पि सुलक्षणाए । तिहां याचक दीजीइ दक्षिणा ॥१॥
३३३ सुरनरनायक साखिया ए जिनराजिं ते पांचीय राखीयाए । इंद्र जिनवर भाखिया ए तुझ लाहूआ सब जगि चाखीया ए ॥२॥
३३४ अतिमीठडा कुण नवि नांखीया ए तिणि त्रिभुवन लोक संतोषीयाए । अनी टाढ़डा त अम्ह आंखि आए ||३||
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ढाल - नीमालीनो ॥ ३३५ चतुर चीतारडइ चीतरीए बे फूलनी मालईए ।
चउरीय मांडइ ठामि वरवधू तिहां पधरावीयाए । बे फूलनी मालनी मालइए । चउरीय मांडइ ठामि ।
वरवधू तिहां पधरावीयाए ॥१॥ बे फूल० ।। ३३६ जोइ छइ कौतुक गाम गाम पहिलूंअ मंगल चरती हुए ।
लक्ष तुरंगम दान ॥२॥ बे फूल ॥ ३३७ बीजूंअ मंगल वरतीइए । बे फूल० ।
हस्ती सहस्र परधान त्रीजू मंगल वरतीइए ॥३॥ बे फूल० । ३३८ जोडि मूल अलंकार चउथइ मंगल बेटडीए ॥४॥ बे फूल० । ३३९ वरतणी हो संभारि बेटडी मातपिता समोयीइ । बे फूल० ॥५॥ ३४० सासू हर्ष अपार ॥६॥ बे फूल० । ३४१ श्री वसुपूज्यनि उदय । बे फूल परणीय रूपि उदार ।। बे फूल० ॥७॥ ढाल - कंसारनो ॥ ३४२ जिन सासू निजकरि केलव्यो बहु मेवा मांहि मेलव्यो ॥१॥ ३४३ पसवा तिमजांचारुली तिहां लघु बदाम-मीजी मली ॥२॥ ३४४ कंसार लद्यग मल्यां मिरी तिणि अति प्रभूति पितली करी ॥३॥ ३४५ तिहां साकर एलादल भरी तेम द्राख प्रभृति शीली करी ॥४॥ ३४६ अखोड खंड तिहां वलवलइ लघु चारवली स्यु तवि मलइ ॥५॥ ३४७ तिहां चापट बइठी चारबी तिणि नालिकेर कुटवी छवी ॥६॥ ३४८ घनसार रहूं तिहा मसमसइ सुरपति तेणि षांवा मनि वसई ॥७॥ ३४९ सुविशाल कनकमणिथालमां पीस्यो कंसार सुसीलमां ॥८॥ ३५० बइठां वरवहू जिमवा भणी रमीओ वहूस्युं जिन जगधणी ॥९॥ ढाल - आंदविआनो । ३५१ इंद्र इंद्राणीइं परवच्यो जिम राजइ सुरलोकि ।
तिम पदमावती नारिस्युं थविओ तिम पुरलोकि ॥१॥ परणी जिन घरि आवीआ मंगल गाइ छइ नारि ।
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अनुसंधान-३०
३५२ जनती करंतीय लूंछणां वाजां वाजइ छइ बारि ॥
आछणपाणी उतारता धवल दिइ बहुनारि ॥२॥ ३५३ पंच विषय सुख भोगवइ पुत्र हवो इक सार ।
नामि मघवान थापिउं मघवा सम अवतार ॥३॥ ३५४ एक दिन मित्रस्युं परवर्यो लीला वनमां जाइ ॥
रमति वसंतनी जन रमइ जिन मनि ते न सुहाइ ॥४॥ ३५५ मूढ नरा मोह मोहीया हारइ नर अवतंस रे ।
त्रिभुवनमांहि जे दोहिलु नरभव विणुं नवि पार ॥५॥ ३५६ मूढा मोह अंगीकरइ ते मुझ वियरी होइ ।
मोहो उपशम वेरीओ सूक्यो सब जिनि जोइ ॥६॥ ढाल- ॥ करुणासागर देवनो । ३५७ वरसह लाख अढार जनमथी प्रभुनिं हवाए ।
भावइ जिन नित चींति उपशमथानक नवनवाए ॥१॥ ३५८ लोकांतिक सुरश्रेणि आवी प्रभुनइं पगले पडीउए ।
कहइ प्रभु तीरथ थापि वर संयम शिबिका चढीए ॥२॥ ३५९ तुं सुबुद्धि निधान तुझ विणु जग कुण बूझवइए ।
मोहि पड्यो जगजीव तुझ विणु कुण तस बूझवइए ॥३॥ ३६० अवसर जाणीय इंद्र बारम जिन दीख्या तणोए ।
जिनघर सेवक पाइं कनकराशि मुंकइ घणोए ॥४॥ ३६१ विविध ठामिथी आणि श्री जिनवरघर पूरिउं रे ।
प्रभु वरसी दिइ दान जग जन दारिद च्चरिउ रे ॥५॥ ढाल - वइराडी ॥ ३६२ लीलारामि रमति मइं न रमी ते विरमी मई भाई ।
अंब तात मुझ अनुमति आपो मई निज हितमती लाई ॥१॥ माई अनुमति आपो० ।
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३६३ ग्रसति जीवजीवित वडवाई जिम मूंसो खिणि खाई । माईअ० । ए तनु सोनिक हाथि कपाई । हाटि हाटि विकाई ॥२॥ माई अ० । ३६४ भवि अनंत भमतां बहु भाई जीवो विषय कषाई ।
भूख्यो जीव भखा षटकाई भवि भवि करति सगाई ||३|| माईअ० । ३६५ बहु जन मिथ्यामति लगाई पापई हूओ री सखाई ।
पापी जन यशकीरति गाई जिन कीरति न कराई ||४|| माईअ० ३६६ पूज्य पुरुष पूजा न रचाई नेव अमारि रखाई ।
जिनवाणी नवि चीति लखाई धर्मि करीअ ठगाई ||५|| माईअ० । ३६७ दान विना बहु भगरि मगाई जीवि धर्म न थाई |
धर्म विना जीव दुर्गति जाई अनुमति दिओ मुझ माई ||६||माई अ० | ३६८ माता वचन सुणी अतिकडुंउ भूमि पडी अति मोही । खिण उठि रोवति मुखि बोलइ किम रहूं जात विबोही ||७|| ३६९ पूता तुं ही एक प्राणाधार पूत तुं मेरो ।
कुसुमहथी सुकुमारो केशलोच प्रमुखो अति दुष्कर । दुष्कर संयम भारो । पूता तूंही एक सखाई ॥८॥
३७०
३७१
मूंकि म लोचनि मरी - चूरणं । रंभा थंभ कुठारो । अब कुसुम नवि अगनि मूंकीइ । काच कुंभि असिधारो ||९|| पूता तूं ही एक ।
वासुपूज्य जननी प्रति बोलई धरमई विघ्न न कीजइ । सुत प्रति व्रतनो निश्चय जाणी कहइ जिन सुख तिम कीजइ ॥ १०॥
पूता तूं ही एक ।
ढाल ईशानेंद्र खोलइ लिइ ॥
३७२ वासुपूज्य जिन मांडी व्रत सुरगिरि आरोह रे ।
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जे चरणोत्सव भवि जोइ तस नवि सुकृत विछोह रे ॥१॥ वासुपूज्य० ।
३७३ इंद्र सवे मिली आवीया हरखि सुर नाचंति रे ।
मादल मस्तक घमघमइ तालिइ सची राचंति रे ॥२॥ वासुपूज्य० ।
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अनुसंधान-३० ३७४ सर्व विरति नीसरणीइं चउस्यइ शिवप्रासादि रे ।
चउसठि इंद्र तिहां मिलइ गाजति दुंदुभिनाद रे ॥३॥ वासुपूज्य० । ३७५ तीरथनीर अणावीआं जिनसुरतरु सिचिंत रे ।
सुरचीवर सुचिलेपनां जिनभूषण विरचंति रे ॥४॥ वासुपूज्य० । ३७७ माणिकली जिन-पालखी हरि निज अंस वहंति रे ।
तदनु सुरासुर दुंदुभि अंबरि नाद सहति रे ॥५॥ वासुपूज्य० । ३७७ चामर छत्र परंपरा आगलि थीय वहति रे ।।
विविध कुसुम वर टोडरा धूपघटीय महंति रे ॥६॥ वासुपूज्य० । ३७८ जीव नंद जय जय कहइ जन आसीस देअति रे ।
षटशत मित्रसमो प्रभु शिवपुरि पंथ वहिति रे ॥७॥ वासुपूज्य० । ३७९ वनि आभरण ऊतारतां मातपिता ते रुदंति रे ।
पंचमुट्ठि लोच न करइ संयमरथ रोहंति रे ॥८॥ वासुपूज्य० । ३८० चरण महोत्सव करी गया नंदीसर सुरजात रे । प्रभु मनपर्यव-न्याननो अंतराय होइ पात रे ॥९॥ वासुपूज्य० ।
हूं बलीहारी यादवा-ए ढाल || ३८१ फागुणमासि अमावासि रे चउथ तपइ मुनि होइ ।
अनुमति मागइ विहारनी रे तव सुजना रे पुरजन होइ ॥१॥
पाळू वाली पूत जो मुझ तुझ विण रे खिण न सुहाइ । ३८२ सुत जोती री जया रोइ रे तिम वसुपूज्यो वि रोइ ।
प्रभु निरीह निरागीओ रे तस आपणो परही(न) कोई ॥२॥ पाळू वाली० । ३८३ पूता तूं अम्ह आंखडी रे हूंतो अम्ह आधार ।
निरधार मूंकी गयो रे कुण करस्यइ रे तुझ विणु सार ॥३॥ पाळू वाली० । ३८४ लालमणी पुरि आवयो रे पारण विहरण काजि ।
हणइ मसि पणि देखाइ रे देई दर्शन अम्ह दुख भाजि ॥४||पाळू वाली० । ३८५ तुझ मिलवा घरि आवता रे चउविह देवीदेव ।
तुझ पुण्यई हम पूजीआ रे मनिं धरजेरे अम्ह नइंहेव ॥५॥ पाळू वाली ।
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३८६ पगिपाला किम चालस्यो रे पूत अमारा भूमि ।
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किमपरि भिख्यां मागस्यो रे किम सूस्यो उपर भूमि ॥ ६ ॥ पाछू वाली० ॥
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३८७ विलविलती रांणी जया गई तिम वसुपूज्य नरंद ।
प्रभु निरागी वह गयो तिहां प्रणमइ रे भविजन वृंद ||७|| पाछू वाली० । ३८८ बीजइ दिनि त्रिभुवनपती रे एक महापुरि जाइ ।
पारणि काजि मधुकरी तिहां पुरजननई हरख न माइ ॥८॥ पाछू वाली० ।
ढाल - राग
॥
३८९ लोगो वासुपूज्य जिन आयो सुर कल्याण कि जो जिन गायो । वासुपूज्य जिन आयो, लोगा वासुपूज्य ।
सो धन जीव गुणो तुम्ह लागो जस जिनदानह योगा । सो पामइ सुर शिव सुख भोगा रोग न शोग ति जोगा ॥१॥ लोगो वा० । ३९० प्रमुदित पुरजन घरि घरि पंथि दान कुलाहल चाल्यो । जिन - मुनि-दान हेतुइ जस हाथि तिणि जीवित आल्यो ॥ २॥ लोगो वा० । ३९१ सहसच्यार मुनि ऋषभदेवनां दाता तेणि निहाल्यो ।
पात्र दान दाता विणुं तेणई संयम आपणो टाल्यो || ३ || लोगो वा० । ३९२ ऋषभदेव-तनु- सुरतरु सिंच्यउ सिरि सेअंश कुमारि ।
पात्रदानफल जे जिन बोल्यां तस को मांन विचारि ||४|| लोगो वा० । ३९३ लोचन नाके विना नवि शोसि नरनारी मुख अंगो ।
दान विवेक विना नवि पामइ मनुज सभामा रंगो ||५|| लोगो वा० । ३९४ जिनशासन राख्युं तिणि पुरुषइ तिम मुनि दशविध पंथा ।
दान शील तप भाव उधरिआ दानि रह्या जिनग्रंथा || ६ || लोगो वा० । ३९५ छतइ योगई दान न दीधुं कीधुं कृपण निदानं ।
उदर भरयुं जिनभगति विणुं सो नर हुरित निधानं ॥७॥ लोगो वा० । ३९६ दान वात कोलाहल निसुणी राय सुनंदो धायो ।
मोजा चामरं छत्र त्यजीनिं प्रभु समीपि लघु आयो ||८|| लोगो वा०
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अनुसंधान-३०
३९७ धन मुझ पुर धन हूं प्रभु पूर मुझ करि घरि आज पवित्र ।
तस घरि परमान्न लीउ जब उत्सव होइ विचित्र रे ॥९॥ लोगो वा० । ३९८ पंच दिव्य देवइ तिहां कीधां श्रीजिनपारण-ठामि ।
रयणपीठ राजा बंधावति प्रभु विचरति बहु गामि ॥१०|| लोगो वा० ।।
चालो रे भविका जिन भाव धरी नई-ढाल ३९९ वासुपूज्य जिन वाववपूजित अनुपम संयमधारी रे ।
अनुपम उपशमरस रयणायर सुमति गुपतिनो धारी रे ।अनुपम० ॥१॥ ४०० त्रिभुवन जन उपगारी दरिशन दुरित निवारी रे ।
अनुपम त्रिभुवन हितकारी गतप्रतिबंध विहारी रे ॥२॥ ४०१ विहार करता त्रिभुवनतारक चंपापुरीइं पधारि रे ।
पाडलि-तरुतलि प्रभु परिवसिओ तिहां प्रभु ध्यान वध्यावि रे ॥३॥ ४०२ क्षिपकश्रेणि नीसरणी चढीओ घनघाती मल झडीओ रे ।
केवलनाण-महोदधि जडीओ अमरिं तीन गढ घडीउ रे ॥४॥ ४०३ माघ मासि शुदि दुतीया दिनमा जिम जगि चंद्र प्रकाश्यो रे ।
तिणि दिन वासुपूज्य जिन कीनो केवलनाणिं वासो रे ॥५॥ सुणि जिन त्रिभुवन वेद्य-ए ढाल । ४०४ रूप-कनक-मणि तीन समवसरणि घडीइ ।
सिंहनाद सुर मूंकताए ॥१॥ ४०५ अशोकतरुतलि पीठ सुरमणि छंदमां । सिंहासन मणि रयणनूं ए ।२।। ४०६ छत्र त्रयनी श्रेणि चामर धोरणी धर्मचक्र धज झगमगइ ए ॥३।। ४०७ कनककमल प्रभु पाय ठवतो आवीय अशोक दिइ प्रदक्षणा ए ||४|| ४०८ वासुपूज्य जिनराय लालमणी समरूपे अनंतो शोभतो ए ॥५॥ ४०९ प्रभु प्रतिबिंबा तीन परषद बार नइं प्रभुपरि तनु मनमोहतां ए ॥६|| ४१० जिनपति योजनि धर्मुपदेश देतो त्रिभुवन मन संशय हरइए ॥७॥ ४११ समवसरणि नवि होए प्रभुनी द्रष्टइं ए कुण नइ नवि भय यंत्रणा ए ॥८॥
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४१२ विकंथा मत्सर शोक वैर विरोद्धाए तिर्यंत्त्वादिकनां समइ ए ॥९॥ ४१३ श्रीवसुपूज्य नरेश पदमावति जया राणी स्यु अति उत्सवइ ए ॥१०॥ ४१४ देखी निजसुतऋद्धि अति मनि हरखतां वंदी प्रभु देशन सुणइ ए ॥११॥ ४१५ अति लघुकरमी जीव सुक्षिम प्रमुखाए गणधर श्रीजिन दिखीया ए ॥१२॥ ४१६ घरणी पदमा होइ जिननी महासती सुखशादिक वर श्राविका ए ॥१३॥ ४१७ जननी जयादिक होइ जिननी श्राविका संघ चतुर्विध थापीया ए । ४१८ श्रीवासुपूज्य जिनराय सूक्ष्म प्रमुखा ए बासठि गणधर थापी ए ॥१४॥ ४१९ शासनसुरो कुमार चंडा देवीय प्रभुनी शासनदेवता ए ॥१५॥ ढाल - सरु विण गछ नही । ४२० समवसरण सुर मंडीउं बारवती वन मांहि रे ।
लालमणी सारिखो आवि अरिहा लांबीअं बाह रे । लालभणी सारिखो आविओ ॥१॥ .... । नि(ति?)म विजयो बलदेवो रे ।
इम वनपालि ते विनवीउ नरहरि करि जिन सेवो रे ॥२॥ लालमणी० । ४२२ इति वनपाल वचन सुणी हरखई दिइ बहु दान रे ।
निजऋधि हरि-बल नीसरी जिन वंदइ बहुमानइ रे ॥३॥ लालमणी० । ४२३ तिलक करी इक नर चड्या घोडइ तिलकीटा कुंकइ रे ।
महीपति गज चडी इक नरा इक नर वेसर मूंकइ रे ॥४॥ लालमणी० । ४२४ एक सुखासण पालखी इक चडइ चकनोलि रे ।
एक रथवाहणि रथ चड्या एक नर उठत टोलइ रे ॥५॥ लालमणी० । ४२५ एक नर पाला नीसरइ धर्मी धर्मनि काजिरे ।
एक नर कौतुक पेरीया एक नर मित्रनी लाजि रे ॥६॥ लालमणी० । ४२६ श्रीजिन मधुरीय देशना योजनगामिनी वाणी रे ।
द्राख साकरनई हरावती शुचि जिम गंगानुं पाणी रे ॥७॥ लालमणी० ।
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अनुसंधान-३०
४२७ भमतां रे भवमांहि अनुभव्यां भागि जीवइ अनंता रे ।
जीवनइं नर भव दोहिलो समरो श्रीअरिहंता रे ॥८॥ लालमणी० । ४२८ धर्म विवेकनो आगरो दोहिल्या नरभव पामी रे ।
मोहमां मूह्यां रे जीवडा धर्म करइ नवि कामी रे ॥९॥ लालमणी० । ४२९ नरभव विणुं नवि पामीइ संयम शिव सुखदायी रे ।
संयम सतर ते भेदस्युं लीजइ मुगतिविधायी रे ॥१०॥ लालमणी० । ४३० समकित व्रत धरइ श्रावका वे(जे) पणि सुरपुर गामी रे ।
समकित व्रति जे हीणडा ते नर दुरगति गामीरे ॥११॥ ४३१ जे जिनधर्म-प्रभावका जिन मुनि धर्म आधारा रे ।
समकितदृष्टि जे जगि नरा जननी जण्या ते सारो रे ॥१२॥ लालमणी० । ४३२ इति सुणी ते जिनदेशना बहु भवि मुनिपरा होइ रे । सुराकित दो पुत्री हरी धरइ (समकित पुणि हरी धरइ) विजयो
श्रावक होइ रे ॥१३॥ ढाल - ऋषभ घरि आवइ छइ । ४३३ चउसठि वासव पूजीओ वासुपूज्य जिनराय । नमो परिवार स्युं,
देश पवित्र होइ बहु जिहां । जिहां प्रभु दिई निज पाय ॥१॥ नमो। ४३४ श्रीवसुपूज्य जया समा स्वर्गि गया जिनतात । नमो ।
राज करइ मघवाधिपो वासुपूज्य जिनजात ॥२॥ नमो । ४३५ तस घरणी लखमी समी लखमी शीलपवित्र । नमो ।
अर्जुसेनादिक सूता चरिता ताण पवित्र ।३। नमो । ४३६ तस उपरि एक बेटडी नामइं रोहिणी जाणि । नमो ।
रोहिणी सरखी चंद्रनइं रोहिणी तपनी खाणि ॥४॥ नमो । ४३७ सहस दुसत्तरि मुनिवरा बासठि गणधर सीस । नमो ।
एक लाख प्रभु महासती चिंतइ जिन निशिदीस ॥५॥ नमो । ४३८ जिन पूखधर बारसई केवलि परिखा पासि । नमो ।
अवधिन्यानधर ध्याईइ चउपन शत ते तासि ॥६॥ नमो ।
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४३९ मणनाणी एकसठी सइ छ सहस केवलनाण । नमो ।
दस सहसा सुरसारीखा वैक्रियलबधि निधांन ॥७॥ नमो । ४४० चार सहसनई सातसई वादीय वादविसार । नमो ।
सहस पनर होइ लाखस्युं श्रावक समकित धारी ॥८॥ नमो । ४४१ च्यार लाख वर श्राविका बे सहस उपरि जाण । नमो ।
चउपन लाख वरस प्रभु केवलस्युं विचरंति ॥९॥ नमो । ४४२ जीवादिक षट्भावना भावप्रकाश करंति । नमो ।
लाख दुसत्तरि वरसनो प्रभु जीव्यो जगभाण ॥१०॥ नमो । ४४३ जनमभूमि चंपापुरी होसि प्रभु निरवाण ॥११॥ नमो । ढाल-राग- सींधूउ सामेरी ॥ ४४४ जाणेरी संकेत करी प्रभु मुगति मिलन चंपापुरी ।
मनि धरि प्रभु चंपावनि आवीया ए ॥१॥ ४४५ षटशत मुनिवर साथस्युं मुगति गमन प्रभु मन वस्युं ।
कसकस्यउं जनम मरणनां दुख थकी ए ॥२॥ ४४६ पादोपगमनमनशनं पर्यंकासन निवसनं
शसनं त्रिभुवन करतां प्रभु करइ ए ॥३॥ ४४७ चंपा सन्ति रे सुरा मिलीया ।
ते अणवेसरा (अवसरा) सुरवरा अवधि जाणी आवीआ रे ॥४॥ ४४८ प्रभुनइं देई प्रदक्षिणा धर्म विरणि विचक्षणा ।
सुलक्षणा प्रभु मूरति दिइ शुभतणीए ॥५॥ ४४९ इंद्रा प्रभु रागातुरा प्रभु दर्शन विणुं आतुरा ।
कातुरा प्रभु विरहानल जालतीए ॥६॥ ४५० आषाढी शुदि चउदसि उत्तरभद्रई शशि वसइ ।
प्रभु घसइ मुगतिराज लेवा भणीए ||७||
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अनुसंधान-३०
४५१ ऋजुगति सिद्धिवधू वरी आनुचर निजसीसा करी ।
शिवपुरी रहिया नितवासी थई ए ॥८॥ ४५२ भूमीपति प्रमुखा नरा प्रभु विणु ते शोकातुरा ।
सुरवरा प्रभु विरहई मूंझी रह्या ए ॥९॥ ४५३ नारकीनई पणि सुख दिऊं निर्वाणि अहि दुख कीउं ।
सुख कीउं छई प्रभु जगनेई जनमथी ए ॥१०॥ ४५४ प्राणनाथ जगदीस रे प्राणो तुम्ह सम वीसरो ।
ईसरो त्रिभुवनपति मुगति गयो ए ॥११|| ४५५ तुझ ठामि तुझ बिंब स्युं तुझ परि तिहां चित राखस्युं ।
सुणस्युं जी मुझ वयणां गुरुदेशना ए ॥१२॥ ढाल - तेतलीसुत मुनिनइं केवली । ४५६ एक भाविका इम वीनवइ प्रभो उठि दिइ बोल रे ।
चउसठि इंद्र उभा रह्या रे तो देशनाए लोल रे ॥१॥ भविसा० । ४५७ प्रभु कृपा करी लोचनई जोईइ कृपा सिंधु तुं उठि रे ।
प्राण अकह्या करी अम्ह तणा तुझ आ नावि पूंठि रे ॥२॥ भविसा० । ४५८ जगगुरु रो उठिद्यो देशना मल्या भविकना वृंद रे ।
देवछंदई प्रभो आवीइं दिओ सीखण गणिंद रे ॥३॥ भविका० । ४५९ तुं प्रसिद्धो सुखदायको जगि टालिं तुं शोक रे ।
तुझ दरिशन तणो रागीओ जोइ रूप तुझ लोक रे ॥४॥ भविका० । ४६० इम विलवंति जे रागीआ निवारिति सुरिंद रे ।
खीरसमुद्रनां पाणीआं मिली चंदनवृंद रे ॥५। भविका० । ४६१ प्रभुशरीरं पखालइ सुरा तिम साधुशरीर रे ।
लीपीयां बावनाचंदनां भला वाटीआं चीर रे ॥६॥ भविका० । · ४६२ वर अलंकार पहिरावीआ दिया तिहां वर धूप रे ।
सुरनरि दामली तिहां नमइ प्रभो सुंदररूप रे ॥८॥
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४६३ सहसवाहणि करी पालखी अपर मुनितणी दोइ रे ।
तिहां जिन साधु बइसारीया सुरा रास दिइ जोइ रे ||९|| भविका० ।
४६४ देव गांधर्व गायंति तिहां सुरा तुर्य गायंति रे ।
धूप उषेवणां बहु करइ सुरा प्रभु पूजा करंति रे ।
४६५ कुसुमनी वाल वरसइ सुरा प्रभु पूजा करंति रे ।
अनइं सुगंधी घणां चूरणां घनसार वरसंति रे ॥११॥ भाविका० । ढाल । राग मारूणी ॥
४६६ शिव मंगल कल्याणकारणी पूजीइ रे ।
-
डाढा राढा काजि जिननी रे रयणडाबिडा - वासिनी रे ॥१॥
४६७ दाढा राढा काजिं जिननी । सकल इंद्र आराधीइ रे । आशातन-निवारि मेहूण रे मेहुण रे तिणि थानकि निवारीइ रे ॥२॥
४६८ चिंताहरणी सामि चिता दिशि पूरवइ रे । बावनचंदन पूर पूरी रे पूरी रे । अगुरु कपूरइ मृगमदं रे ॥३॥
४६९ अगनि दिइ तिहां अगनि कुमारा । देवता रे वायुकुमारो वायु सींचइ रे । सींचति रे अमृत जलई जलदेवता रे ॥४॥
४७० जिनमुखि जिमणी ऊंची सोधर्मो लिइ रे । तिम डाबी चमरिंद लीजइ रे । वासुपूज्य दाढा जडी रे ॥५॥
- ४७१ जिन मुखि डाबी उंची ईशानो लिइ रे ।
हेठा लेई बलिंद दंता रे दंता रे इंद्र अनेरे लीजइ रे ॥६॥
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४७२ कीकस जिननां देवे जो नवि मूंकीइ रे । रक्षा लिइ राजानक रेणूं रे रेणूं रे । अपर नरा लेई रमइ रे ||७||
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४७३ रेणु लीआं ती खाड पडइ ते पूरीइरे । रत्नराशि करी धून ( थूभ) कीजइ रे । कीज रे चिताथानि जगदीसनई रे ॥८॥
ढाल । राग- धन्यासी ॥
४७४ माई हमेथी तूं नीकी वपुरी माई जस घरि जोईइ । सुख मंगल वासो सुणवो तेणइ वासुपूज्य पुण्यप्रकाशो || १ ||
४७५ वासवपूजित वासुपूज्य नमीजइ । कल्याणकदिन तस विधि रमीजइ ॥ २ ॥
४७६ वासुपूज्य कल्याणकतिथि न तोडी ।
४७७ जस घरि वूठी जोइ कल्याण कोडी ।
४७८
जिणि नरि तेणइ न तेडी कल्याणक कोडी ||२|| माई० ।
कल्याणक तिथि तिणि कहे न तेडी ||३|| माई० ।
जस घरि जोइ राजमणी रजत होडी | जन्मकल्याणकतिथि काहे न तेडी ||४|| माई० ।
४७९ वासुपूज्य पूजा शुभ ध्याननी कोडी ।
तेणि करी तस होइ मुगती चेडी ||५|| माई० | ढाल - राग- धन्यासी
४८० श्रीमदानंदविमलेदुं गुरु वंदीइ । पाटि तस श्रीविजयदानसूरो । तास पटि प्रशमनो कूपलो वंदिइ । हीरविजयो गुरु सुगुण पूरो ॥१॥ श्री भदा० ।
४८१ सकलमुनि सुखकरो सकल संयम धरो दिनकरो श्री तपागच्छ केरो ।
अनुसंधान- ३०
हीरविजय गुरुराजथी आज जगि, कोपि अधिको न दीसइ अनेरो ||२|| श्रीमदा० ।
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४८२ श्रीवासुपूज्य पुण्य प्रकाशो वसु
श्रवण हृदयांबुजे जीव सूरो । सकलमुनि चिंतिउ श्रीसंघसंतिउ ।
निर्मलो सुरभि जिन जगि कपूरो ॥३॥ श्रीमदा० । ४८३ नगरी त्रंबावती जेणि बहु धनवती ।
जयति जिहां थंभणो पासनाहो । सतत धरणेंद्र पद्मावती पूजितो । सकल सिरिसंघ मुख विजयलाहो ॥४॥ श्रीमदा० । इति श्रीवासुपूज्यजिनपुण्यप्रकाश संपूर्णः ॥श्री।। संवत १७३८ वर्षे । वैशाखवदि १ शुक्रे । श्रीमदणहिल्लपत्तनपुरे । चातुर्वेदी मोढज्ञातीय । लेखक वृंदावनेन लिखितमिदं पुस्तकं ॥श्री।। बाई । जतन बाई पठनार्थायः । शुभं भवतुः ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥
C/o. आं.रा.जैनविद्याअध्ययन केन्द्र
गुजरात विद्यापीठ अमदावाद-३८००१४
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अनुसंधान-३०
ढूंक नोंध
उपधान-प्रतिष्ठा-पञ्चाशक विषे अनुसन्धान-४मां उप.प्र.पञ्चाशक (सं. विजयप्रद्युम्नसूरि) प्रकाशित थयेल छे. ताजेतरमा ज, खरतरगच्छीय श्रीजिनप्रभसूरि-विरचित (सं. १३६३), 'विधिमार्गप्रपा' नामे प्रख्यात अने पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी द्वारा ई. १९४१ मां सम्पादित-प्रकाशित ग्रन्थमां ते रचना मुद्रित थएली जोवा मळी. ते रचना ग्रन्थकारनी नथी, परन्तु ग्रन्थकारे तेने उपधानतपना प्रकरणमां उद्धृत करेलुं छे. तेमणे तेना कर्ता- नाम नोंध्युं नथी. मात्र 'पुव्वायरिएहिं उवहाणपइट्ठापंचासयं नाम पगरणं विरइयं' - एवो मोघम निर्देश ज को छे. तेथी एक वात स्पष्ट थाय के प्रस्तुत प्रकरणनी छेल्ली गाथामां आवता 'विरह' शब्दथी दोरवाईने तेमणे आ प्रकरणने हरिभद्राचार्यनी रचना होवानुं स्वीकार्यु नथी; जो तेमनी तेवी मान्यता के समजण के जाणकारी होत तो 'पुव्वायरिएहि'ने बदले 'हरिभद्दायरिएहि' एम अवश्य लख्युं होत.
श्रीजिनविजयजीए पोताना सम्पादकीय लेखमां पण, 'जो किसी पूर्वाचार्यका बनाया हुआ है' - ए प्रमाणे नोंध करी छे.
विशेषता ए छे के आ मुद्रणमां आ प्रकरण ५१ गाथा धरावे छे, जेमां ९ मी तथा १० मी गाथानी वचमां एक गाथा 'प्रक्षेप' रूपे उमेराई छे :
"किंच न गोट्ठामाहिल-कयमेयं नंदिसेणचरिए जं ।
कह भोगफलं भणिही अबद्धिओ बद्धपुढे सो ॥ [प्रक्षेप:]॥" उपरांत, केटलांक नोंधपात्र पाठभेद पण आमां जोवा मळे छे. अनु. ४ना पृ. ३४-३८मां मुद्रित पाठगत गाथाओना क्रमे ते पाठभेदो आ प्रमाणे
छ :
गा. १ गा. २
नमिऊण वीरनाहं । मुवहाणनिव्वहणं (पा. निम्मवणं) ।
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गा. ८ गा. ९
गा. १७
गा. ३०
I.
३१
गा. ३२
अप्परिमाणं । गोट्ठमाहिलुत्तं पि । इग दुग पभेयए च्चिय । बीयम्मि दिणम्मि मल्लिस्स । कारइ जं. । विहिवहुवग्घाइयं च नाऊणं । (विधिपथोद्घातिकं, उपन्यास इत्यर्थः ।) ताणुवहाणं कयं० । सामाइयऽणुप्पवेसो से । जइया य सयण० । रहिओ वि वावारो । नवकारपडल नवकारपंजिया० । ०नंदणुओगदाराणं ।
कीरमाणं० । किं वा भिन्नत्ते० । ०व हविज्ज । ०तयन्नया य भिन्नं हि० । ०तिसिलोइयत्थुइच्चाइसुत्तपि । ० जइ एसिं सव्वहा० । तो पिहुपढणं० । विणा नेसिं पाढो त्ति । नवकाराईसु ताण० । सक्कत्थए नोवहाण० । केवलिणा दिट्ठाणं ।
महप्पभावोववेयाणं । आ नोंध मात्र पाठभेदो पूरती ज छे, अशुद्धिओनी नथी.
गा. ३३
गा. ३४
गा. ३५
गा. ३६
. ३७
. ३८
गा. ३९
गा. ४१ गा. ४५ गा. ४७
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अनुसंधान-३०
(२)
__'कन्धारान्वय' विषे पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी तरफथी प्रगट थती शोधपत्रिका 'श्रमण'ना जान्युआरी-मार्च २००३ना अंकमां डॉ. सागरमल जैननो 'धूलिया से प्राप्त शीतलनाथ की विशिष्ट प्रतिमा' नामे लेख प्रगट थयो छे, तेमां ते प्रतिमानी तसवीर, ते परनो लेख तथा ते विषे लेखकनां निरीक्षणो छे. प्रतिमा-लेखनी वाचना लेखके आ प्रमाणे उकेली छे : "सं. १२१६ फाल्गुन वदि १० गुरौ श्रीचन्द्रगच्छीय कन्धारान्वयग्ने रासलेनसुत आमदेवग्ने यसे प्रतिमा कारिता ।"
लेखके आपेलां शोध-तारणो कांईक आवां छे :
(१) कन्धारान्वय ए चन्द्रगच्छनी कोई शाखा हशे. (२) श्वेताम्बरोमां 'कन्धारान्वय'नो आ प्रथम प्राप्त उल्लेख छ; अने लेखमां कोई आचार्य, नाम नथी, एटले तेना प्रवर्तक आचार्य कोण होय ते जाणी शकाय तेम नथी. (३) प्रतिमा धूलिया (महाराष्ट्र)थी मळी छे. ते दक्षिण गुजरातथी नजीकनुं क्षेत्र छे. 'कन्धार' ए गुजरात-स्थित 'गन्धार' ज होई शके. गन्धार ए मध्ययुगमां जैनो- केन्द्र हतुं, अने त्यांना ओसवालो महाराष्ट्रमा वसेला छे. ते गन्धारना श्रावकोना वर्गनो ज संकेत 'कन्धारान्वय' शब्द द्वारा थाय छे. (४) लेखमां 'यसे' शब्द छे ते मराठी प्रभाव सूचवे छे; मराठी प्रयोग 'यांस'नुं आ प्राचीन रूप हशे, जेनो अर्थ 'यह' के 'इस' थाय. (५) प्रतिमानी तसवीर जोतां ते प्रतिमानी गोदमां शिवलिङ्ग होय तेवो देखाव थाय छे. मध्य युगमां शैवोए दक्षिण भारतमां शिवलिंग धारण करवानुं फरजियात बनाव्यु हतुं, तेने कारणे जिन-प्रतिमा पण एवी बनाववी पडी के तेनी गोदमां शिवलिङ्ग होवानुं लागे.
आ छे डॉ. सागरमल जैनना लेखना मुख्य मुद्दा.
हवे ते मुद्दा के निरीक्षणोनी यथार्थता विषे थोड़ोक विमर्श करीए. सौ प्रथम तो लेखके प्रतिमा-लेखनी जे वाचना लीधी छे, ते ज भूलभरेली छे. लेखगत प्रतिमानी तथा प्रतिमानी पलांठीनी तसवीरो एटली सुस्पष्ट छे के लेख अक्षरशः वांची ज शकाय छे. स्पष्ट वाचना आ प्रमाणे छे :
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"संवतु १२१६ फाल्गुन वदि १० गुरौ श्रीचंद्रगच्छीय कंथरान्वय श्रे. रासलेन सुत आमदेवश्रेयसे प्रतिमा कारिता ॥"
___'कंथरान्वय'ने स्थाने 'कन्धारान्वय', 'श्रे' ने बदले 'ग्रे-ग्ने' अने 'श्रेयसे' ने अखण्ड जोवाने बदले 'यसे' एम अलग वांचवाने कारणे घणो गोटाळो थयो छे, ते आपोआप समजाय तेम छे.
(१) 'कन्धारान्वय' छ ज नहि, एटले 'कन्धार'ने गन्धार सुधी ताणी जवानो प्रश्न ज रहेतो नथी; अने ते नामनी चन्द्रगच्छनी शाखा होवानी कल्पना पण अप्रस्तुत बनी रहे छे. (२) "कंथरान्वय' एटले चन्द्रगच्छनी आम्नायवाळा 'कंथर' नामे श्रावक, तेना अन्वय (वंश)मां थयेल श्रे. रासले पोताना पुत्र आमदेवना श्रेयार्थे प्रतिमा करावी" - एवो आ लेखनो अर्थ छे. ते स्पष्ट समजाय, तो पछी कन्धार-गन्धारनी तथा 'यसे' ने मराठी प्रयोग कल्पवानी कोई ज आवश्यकता रहेती नथी. (३) एक वात अभ्यासीओए जाणी राखवा जेवी छे के १३मा शतकना पूर्वार्ध सुधीना गाळामां बनेली अने हाल उपलब्ध एवी अनेक प्रतिमाओ पर आचार्य- नाम लखायेलं नथी मळतुं. क्यारेक लखातुं, तो बहुधा न पण लखातुं. एटले आ प्रतिमालेखमां आचार्य- नाम न होय तो ते कोई मोटी समस्या नथी ज. (४) छेल्ली वात शिवलिङ्गनी. आ प्रतिमा स्थूल-उदर वाळी, स्थूलकाय छे; भरावदार छे; कृशोदरी नहि. एथी तसवीरमां ऊपसेला देखाता उदरभागने लेखके शिवलिङ्ग तरीके कल्पी लीधो छे, अने तेनो सम्बन्ध शैवोनी बळजबरी साथे, तद्दन वास्तविक रीते, जोडी दीधो छे. वास्तवमां आजे दक्षिण भारतना तमाम प्रदेशो-प्रान्तोमां, दिगम्बर-श्वेताम्बर ए बन्ने परम्परानी, अनेक पुराणी प्रतिमाओ विद्यमान छे, जेमां लेखके कल्पेल 'शिवलिङ्ग जेवू कशुं ज छे नहि. लेखके आवी कल्पना परत्वे प्रमाणे अने आधारो आप्यां होत तो ठीक थात. परन्तु तेवा आधारो छ ज नहि, ते पण एक सिद्ध तथ्य छे.
शी.
.
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अनुसंधान-३०
अनुसन्धान-२८नुं विहंगावलोकन
मुनि भुवनचन्द्र 'अनु०' २८मां 'सुभाषितसंचय' अने वसुदेवचुपई' ए बे दीर्घ रचनाओ ध्यान खेंचे छे. हस्तलिखित भण्डारोमां सुभाषितसंग्रह तो अनेक मळता ज होय छे, परन्तु आ संकलन एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जेवू रूप धरावे छे. आवी रस-अलंकार-चिन्तनसभर रचनाओ एक काळे भारतमां सोळे कळाए खीलेली संस्कृतभाषानी शोभा अने शक्तिना परिचायक अंशो छे. जीवननी-मननी नाजुक भावोमिओनुं वहन करनारी भाषा केटली जीवंत अने व्यापक होय ए समजवू अघरुं नथी.
सम्पादके कृतिर्नु आवश्यक टिप्पण आप्युं छे, तेम छतां खूटता श्लोको के अस्पष्ट पंक्तिओ शोधवानुं काम कोई संस्कृतभक्त माटे बाकी रहे छे. प्रथम वाचनमां ज जे जे शुद्धि-वृद्धि नजरे चडी ते अहीं मूकी छे. अंको अनुक्रमे अष्टक/श्लोक/ पंक्तिना छे. शुद्ध पाठ घेरा अक्षरोमां सूचव्यो छे. १/६/२ यामि
याहि ३/८/३ तस्यैधानमण्डनक्षिति० तस्यैषाननमण्डनक्षति० ३/६/२
वधारानो छे. ३/७/३ मदनदरी
यदनादरो ६/६/२ प्रेषति
प्रेडति ६/६/४ भ्रान्तमनसः
भीतमनसः ६/९/३-४ ...सारङ्गा सह सहचरीभिर्विचरताऽ/प्रचारः...
सारङ्गा ! सह सहचरीभिर्विचरत / प्रचारः... ६/१०/८ तं स्फुरति
तत् स्फुरति ८/२/३ विद्यात्वं
विद्वत्त्वं ८/५/४ कंस्कंतत्ता
कं कं तण्या ८/६/१ शुष्कैन्धनै०
शुष्केन्धने ८/७/३ मल श्रीः
मलंश्रीः
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११/५/२
११/१०/८
१२/१/२
१२/२/३
१२/४/३
१२/४/३
१२/८/१
८/७/४
८/८/२
८/९/२
नारीष्वधनेषु
९/२/१
०मार्ये
९/४/४
तद्दीर्घ ०
११/४/३
यदम्भोधर !
११/४/४ द्वित्रां कृत्रिमरोदना श्रुतनवोन्मुक्तां पयोबिन्दवः
१३/७/१
१७/३/२
१७/७/४
१८ / २य१
१८/२/२
१८/८/१
१९/९/४
1.
दुर्जनो लोकः
वयस्य
नारीषु धनेषु
०मार्जे
तदीर्घ ०
यदम्भोधरं
याच्ञा
द्या (या) मा
भ्राम्यन् मन्दर०
गृहमेतस्य
यदेततैष्टुर्यं तदिह गदितुं ...
मणिस्त्रपुण
मुरारेरुरु:
०वचा (?) र्गलां
दुर्जनं लोकः
वयश्च
धा (सा) रधियो
विप्रसार्थ
भुजा
वक्त्रे
सदा तृष्णा (ष्ण) या
यामारोहति
( अष्टकना आद्य संग्रह श्लोकमां 'द्यामा' प्रतीक छे ज,
अर्थनी दृष्टिए पण 'द्यां' उचित छे.)
नोह
नोद्वहते
द्वित्रां कृत्रिमरोदनाश्रुजलवन्मुक्ताः...
'
तदेतन्नैष्ठर्यं यदिह गदितं...
याच्यां
'द्यामा' साधुं छे.
भ्राम्यन्मन्दर ०
गृहागतस्य
सदा तृष्णया द्यामारोहति
:
मणिस्त्रपुषि
मुरारेरुर: ०वत्त्वार्गलां
धीरधियो
विप्रसार्य
भुजान्
वक्रे
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२०मुं अष्टक श्री जिनप्रभसूरिनी रचना छे. जामनगरवाळा पं. हीरालाल हंसराजे अनुवाद सह आ प्रगट करेलुं तेना आधारे थोडा समय पहेलां श्री
अने
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अनुसंधान-३०
धर्मतिलक विजयजीए ‘पञ्चस्तोत्राणि'मां पुनः प्रगट करेल छे.
म.विनयसागर सम्पादित बे भावमधुर अने विद्वत्तासभर स्तोत्र श्रीवल्लभोपाध्यायनी काव्यकला तथा विद्वत्त्वनो सुपेरे परिचय आपी जाय छे. प्रथम स्तोत्रमा यमकअलंकारनी रमझट छे, बीजामा समस्यात्मक वातो गूंथी लेवामां आवी छे. तिमिरीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रना ५मा श्लोकमां 'त्वं' छपायु छे त्यां त्वां' होवू जोइए.
श्री कुन्दकुन्दाचार्यनी रचेली मनाती कृतिओना भाषास्वरूपनो समीक्षात्मक अभ्यास डो. शोभना शाहे प्रस्तुत कर्यो छे ते ध्यानार्ह छे. ग्रन्थनी भाषा अने तेमां प्रयुक्त शब्दो ग्रन्थनो रचनाकाळ निश्चित करवा माटेगें एक प्रमुख साधन छे. लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत अने बारस अणुवेक्खामां प्राप्त कारक प्रत्ययो, क्रियापद प्रत्ययो अने कृदन्तरूपोनी तुलना 'प्रवचनसार ना रूपो साथे करीने लेखिकाए एक वात स्पष्ट करी आपी छे के प्रवचनसार रचनानी दृष्टिए पूर्वतन छे, अन्य कृतिओ परवर्ती कालनी जणाय छे. एक ज लेखकनी कृतिओमां व्याकरणसम्बन्धी आटलो तफावत संभवित न गणाय. प्रवचनसारमा अपभ्रंश रूपो जोवा नथी मळता, किंतु संस्कृतनी नजीक होय एवां रूपो खास जोवा मळे छे. अन्य त्रण कृतिओमां अपभ्रंश प्रयोगोनी हाजरी छे. ए कृतिओना रचयिता श्रीकुन्दकुन्दाचार्य नहीं पण कोई परवर्ती मुनि/आचार्य होवानो निष्कर्ष आ विगतोना आधारे नीकळे छे.
__'भवस्थितिस्तवन' वि. १७मी सदीनी रचना छे. शास्त्रीय विषयने स्तवनादि रूपे गूंथी लेवानी परिपाटी एक समये बहु प्रचलित हती. प्रस्तुत कृतिमां चार गतिनां जीवोना आयुष्यनी विगतो गूंथी लेवामां आवी छे. शुष्क आंकडारूप माहितीने प्रभु समक्ष विनंति रूपे बहु सहजताथी वणी लीधी छे. कडी १९मां 'मल्यादिक' छे त्यां 'मत्स्यादिक' शब्द सुसंगत थाय छे. कडी २२मां 'अणुं'ने स्थाने संभवित शुद्ध पाठ 'आणंउ' कौंसमां बताववानी जरूर
हती.
हर्षकुल कवि रचित 'वसुदेव चुपइ' मध्यकालीन गुजरातीमां जैनमुनिरचित साहित्यनी एक विशिष्ट कृति गणी शकाय. म.गु.भाषाना अभ्यासीओ माटे आ एक स-रस पठनसामग्री बनी रहे छे. कृतिनी वाचना
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संभाळपूर्वक तैयार कराई छे तेम छतां हजी परिमार्जनने अवकाश छे. वस्तुछन्दनी पदव्यवस्था पर ध्यान अपायुं नथी. ग्रन्थनी विषयवस्तु जो अन्य ग्रन्थोमां मळती होय तो तेना आधारे पाठनिर्णयमां मदद मळे. सम्पादकोए तेनो लाभ लेवो जोईए. दा.त. क. ५-६मां दश दशा)नां नामोमां एक नाम अशुद्ध छपायुं छे. 'अक्षोभा' एवं अनुस्वार युक्त नाम न होइ शके. 'त्रिषष्टि'०मां आ नामो मळे छे. 'अक्षोभ्य'- 'अक्षोभ' थाय, परंतु 'अक्षोभा' तो न ज थाय. वाचनभ्रम अथवा लेखकदोष होई शके. अन्य परिमार्जनीय स्थानो पण ठीक ठीक छे. क. २५ खपइ आपणउ-एम वांचवु जोइए. क. ४४ घाझिउ के 'खाझिउं' बने पाठ अशुद्ध जणाय छे. 'वास्यउं' जेवो
पाठ आ स्थाने संगत बने. क. ५२ 'अरि' वधारानुं छे. क. ९१ कडीनां चरणो छूटा पाडीने छपाया नथी. बीजी पंक्तिमां 'वदीउ'
छे त्यां साचो शब्द 'वदीत' छे, वाचनमां 'त' 'उ' तरीके वंचायो
छे. 'वसुदेवकुमारउं.' अस्पष्ट-अशुद्ध पाठ छे. क. ११२ आ ढालनी आंकणी मोटी छे, भ्रमथी तेने अपूर्ण कडी समजी
लेवामां आवी छे. जो हस्तप्रतमां आ भाग खंडित के अवाच्य न होय तो चरण त्रुटित नथी एम चोक्कस समजी शकाय.
आंकणी आ रीते वांचवी जोइए :बंधवजी, कांइ मेल्हीउ गयु ? तुं तु विनयवंत वरवीर,
तुं तु सोहग सुंदर धीर... ११२ क. १२८ 'छेहउ ताह' एम. वांचq जोइए. क. १४९ 'ते जिई' नहीं पण 'तेजिई'. क. १७१ 'उहली पाय' एवो पाठ संभवित लागे छे. क. २०९ हे हेव क. २३५ 'माउ' नहीं पण 'मात'.
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अनुसंधान-३० क. २५५ 'पाषर टोप नइ जरह जीण' एम वांचवें जोइए. क. २५६ 'थाहर' शब्द अशुद्ध जणाय छे. प्रासनी रीते 'थहार' के 'थार'
शब्द बंधबेसतो थाय. क. २५७ 'पहंतु' 'पहुतु' ठीक लागे छे. क. २८९ 'तेह जे' 'तेह-जि' होइ शके. क. २९७ 'तेडावइ इसिउं सुणी' पाठ होइ शके. क. ३०९ 'पोकारित'मां त वधारानो छे. ३०० 'विरही हीअडां' शब्द कल्पवानी जरूर नथी, अहीं 'विरहीअडां'
एवो शब्द छे अने अर्थ/छंदनी दृष्टिए पण सुसंगत छे. क. ३१२ 'जीवअ' नहीं पण 'जीविअ'. क. ३२० 'गिरनारनइ शृंगि' एम वांचतां नवी कल्पना करवानी जरूर रहेशे
नहीं. क. ३४७ 'रिषिभ' अशुद्ध पाठ छे. प्रतिमां जो भ सहित लखायेलुं होय
तो 'रिषिभूप' ने बदले 'रिषिभ' सरतचूकथी लखायुं होय एम
बने. क. ३४६मां 'रिखिभूप' छे ज. क. ३४९ 'वड तरुअर तणी' एम पाठ कल्पी शकाय. शब्दकोशमां :१०० शंखाणलइ आ शब्द भ्रमजनित छे. १०९ · छइ दहुं ___अर्थ खोटो छे. दहुं बाळ्यु. भू.कृ. अथवा भूतकाळनो
प्रयोग छे. ११९ सखाइ साथी, मित्र. १२८ छेहउ अहीं 'खोट, खामी' एवो अर्थ लेवानो रहे छे. २०२ शस 'शस्त्र' मूळमां ज होवू घटे. २१५ वीटु अहीं 'लंपट, हलको' वगेरे अर्थ लेवाना नथी.
'वीटवू' धातुनो भूतकाळ 'वीटु' थाय. तत्कालीन गुजरातीनां आवां रूपो आज कृतिमां घणां छे : छेद्यु, भेद्यु; दूहन्यू (क. १७४), जायु (क. १४९)
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२५६ थाहर म.गु.कोश प्रमाणे 'स्थावर वस्तु ओ. वस्तुतः अहीं
प्रासनी रीते थाहर' बेसतो नथी. कदाच 'थार' के
'थाहार' होय. २९२ लहई 'समज' अर्थ कोटो छे. 'न लहई थाय-ताग न पामे, २७६ जीण घोडा पर मूकाती गादी, जीन. २८४ उलग सेवा ३०७ तरवयु मूळ पाठ ज अशुद्ध छे.
केटलाक नोंधना जेवा शब्दो शब्दकोशमां नथी लेवाया :२२३ सूड नाश, २२६ वन्तरवालि तोरण २३३ छडे पीयाणे चडी सवारीए. आजनुं 'चडे पलाणे' २३४ सजाई तैयारी २७१ उहलि धोइ ने ? २७५ धोरणी
श्रेणी, हारमाळा २७५ रेवणी खंड खंड, वेरणछेरण. ('रेवडी दाणादाण' साथे
संबंध हशे ?) २७२ थाय ताग,तळियुं, छेडो ३१७ नीठर
दयाहीन
जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५
कच्छ, गुजरात
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अनुसंधान-३०
स्वाध्यायः
» » 3 3329 vowew MM
'विशेषावश्यक भाष्य'नो स्वाध्याय करतां सूझेल
सुधारानी नोंध मूळे आगमोध्धारक आ.श्री आनन्दसागरसूरिजी-सम्पादित विशेषावश्यक भाष्य-सटीकनी झेरोक्स ऑफसेट पद्धतिए पुनःमुद्रित (प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुंबई- वीर सं. २५०९) ग्रन्थना वांचन दरम्यान केटलीक अशुद्धिओ दृष्टिगोचर थतां तेनी नोंध अत्रे आपवामां आवे छे. पृष्ठ पङ्क्ति अशुद्धि
शुद्धि १५ किं यथायोग्यम० कस्य किं यथायोग्यम०
प्रशस्तं द्रव्य-क्षेत्र० प्रशस्तद्रव्य-क्षेत्र० तृप्रकल्पादि
त्रिप्रकल्पादि) चाऽऽयामम्
चाऽऽम्लम् चाऽऽयामम्
चाऽऽम्लम् ५ ४२ आयाम्
आम्लम् घणवन्दाओ च घणवन्दाओ व) ७ २० घनवृन्दाच्च
घनवृन्दाद्वा परिकम्म
पडिकम्म जेसिं उण
जे उण सिं ( ८८ आवसयस्स
आवस्सयस्स) ८ १७ येषां पुनर्जि० ये पुनरमीषां
राज्यपर्यायाऽर्ह० राजपर्यायाऽर्ह
पर्यायानाम० पर्यायाणम०) १३ २२ सद्दो यतो दव्वं सद्दो 'य' तो नये नय
नयेण य० १३ ३९ शब्दो यतो
शब्दश्च तस्माद्
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__१३
पुढवीइ 'तो' अण्णो ॥२१०४॥
१७ १७ १८ १८
२० ३१ २२ २२
पुढवी तओ अण्णो
॥१॥ पृथिवीविशिष्टो ०शरीराति० ०मुच्यते ? युक्तिसंगतत्वात, उप्पाया इति यं उत्पादा इति यदिव ०व्ववहारा बोधव्वे मग्गंति
२५ (२५ २८
सुर्य
३२ (३९
सोओवलद्धी मतिरित्य० ०पदर्शयति
पृथिवीविश्लिष्टो ०शरीरव्यति० ०मुच्यते, युक्त्यसंगतत्वात् ? उप्पायाइतियं उत्पादादित्रिकमिव ०ववहारा) बोधव्वो मनाति मूयं सोउवलद्धी) मतिरेवेत्य० ०पदर्शयन् पूर्वगतगाथाया एव सम्बन्धगाथामाहकेइ मइए) अवधार्यत भवतु श्रुतस्वरूपा० संसहते द्रव्यश्रुतमनक्षरम् । पुस्तिकादिन्यस्ताक्षररूपं, शब्दरूपं च; तदेव साक्षरम् ।
४१
(४७ ४७ ४८ ४८ ४८ ५२
१४ १६ १० २७ ३३ १३
केई मईए नावधार्यत भवति श्रुतरूपा०
सहते
द्रव्यश्रुतमनक्षरम्पुस्तिकादिन्यस्ताक्षररूपम्, शब्दरूपं च; तदेव साक्षरं ०मवेइ य तक्ख० ०र्मणाऽनन्त० ०ऽप्येक० ०ग्राहिणी०
५४ ५४ ६०
१७ १८ ३४
.०मवेइयतक्ख० कर्मणामन्त० ०ऽप्यक० ०ग्राहीणी०
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६३
६८
६८
६९
७२
७५
८०
८०
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5
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३९
१६
२५
९२
९२
९९
५
९९
१७
१०२ १४
१०२
१५
१०२ २६
१०४ ११
१०५ १६
१०५ २०
११२ २१
११३
९
मणेज्ज
० सुखं रा०
० विसासा०
मणसो[सा]
स्वकीय०
इतरस्तु
विसेसो वा
विशेषो वा
० योगसा०
रूवल०
रूप०
रूप०
रूप०
रूप०
०ईओ । भिन्नं
०दयः । भिन्नं
बज्झ-ज्झ ०
०तभावा०
असवन्त०
आस्रवान्त०
० गुणप्प०
०माणात्
सीया०
मण्णेज्ज
० सुखरा०
० विसादा०
मणसो सा
स्वकाय०
इतस्तु विसेसो सो वा
विशेषः स वा
० योगः सा०
सूवल०
सूप०
सूप०
सूप०
अनुसंधान- ३०
सूप०
●इओ भिन्नं ।
०दयो भिन्नम् ।
बज्झब्भं०
० तब्भावा०
असवत्त
असपत्न०
०गुलप्प०
० माणादि
छाया०
पुरुषाच्च
वाऽयं वा जोगो
वाऽयं वा योगः
चाऽसंख्ये ०
पुरुषाश्च
वाऽयं जोगो
वाऽयं योगः
च संख्ये०
oऽयं चत्वारः समयाः; ०ऽयं; चत्त्वारः समयाः यत्र स
यत्र
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११३ ११६
१८ २१
११८
२६
१२० १२१ १२१ १२२ १२२ १२३
३० ३० ३३ १६ ३२ १ १४ २४ ३८ २१ २२ ३१ ३७
av moovo. o ooo
स्कन्धि० ०थाद्वयार्थः दीर्घक्रि० न च तत् पश्चादन्यव० सागरो० ०व्वप० ०शो दण्डसप्त० ०ततरु० क्षेत्रस्य स्प० ०सए य ० उत्कृष्टतश्च लभइ रूप० पुरीसा० ०मस० से सव० प्रकान्तत्वात् ॥४७८॥
१२४ १२४ १२९ १३० १३० (१३० १३१ १३१
०स्कन्धे ०थार्थः दीर्घः क्रि० तच्च पश्चाद् यत्यव० सागारो० ०व्वप्प० ०शदण्डः सप्त० ०तरु० क्षेत्रस्प० ०सपए उत्कृष्टपदे लब्भइ सूप० पुरिसा० ०मस्स०) सेसव० प्रकान्तत्वात् एकैक... द्रष्टव्यमिति ॥४७८॥ शेषवर्ण सपज्जया यदेकं ०वग्गक्खरं स्वपर० या वस्त्व ० खओव०) खओव०) उव०) तस्याऽप्य०
३०
१३१ १३२ १३३ १३४ १३६ १४० (१४० (१४० (१४२ १४२
तस्य सवर्ण० सपज्जाया यदैकं ०वक्खरं पर० यावत्स्व०
२२ २१ २८ ३ १४ २१ ९ २३
खउव०
खउव० ओव० तस्याऽपा०
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.. अनुसंधान-३०
२६ ३४ २१ १० १९ १९ ३१ १७ ३६
१४२ १४२ १४३ १४३ १४४ १४५ १४५ १४५ १४६ १४७ १४७ १४७ १४८ १५० १५४ १५४ १५५ (१५५ १५७ १५७ १६० १६० १६० १६४ १६५
द्विपुञ्जीव त्रिपुञ्जीवा० पुञ्जावा० एकत्वमि० सम्मत्तं ०वुट्ठीओ कनक० ०वृष्टयो ०ज्ञानानादि० ०णे स्वभाव शक्या ०वस्थायां
येष्वु० दव्वाई ०वसमा
परिमाणे ०स्थापनाभे० न य ०पृथक्त्व० पृथक्त्व० विषयत्वे
३८
५ १५ २६ . ३३
द्विपुञ्जी च त्रिपुञ्जी चा० पुञ्जम० एकत्र मि० सम्मं तु, सम्मत्त दिट्ठीओ कतक० ०दृष्टयो ०ज्ञानादि० ०णेष्वभाव० अशक्या ०वस्थायाः येषू० दव्वाइ ०वसमा पि य ०परीमाणे ०स्थापनादिभे० ण य ) ०पृथुत्व० ०पृथुत्व० विषमत्वे ०मयमं ०वधि. ०त्तये च शुक्ल ०वृद्धया तावन्नेयं यावत् सङ्ख्यातप्रदेशिकस्कन्धानां सर्वा अपि सङ्ख्येया वर्गणा भवन्ति । इत ऊर्ध्वमसङ्ख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामेकोत्तरवृद्ध्या
२७ २८ ८ २९
०मयरं
२६
०वधिलो० ०त्तये शुक्ल० ०वृद्धयाऽनन्ता
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१६५
२३
१६७
१६७ १६९ १७२ १७२
१
१३
१७२
३४
१७३
१२
सर्वा अप्यसङ्ख्येया वर्गणा भवन्ति । ततश्चाऽनन्तप्रदेशिकस्कन्धानाम
प्येकोत्तर-वृद्ध्याऽनन्ता हवंति जो०
हवंतऽजो० हवंति जो०
हवंतऽजो० चैकाकाश०
चैकैकाकाश० सद्रव्याण्यपि
सर्वाण्यपि अच्युततन्तुभ्यश्च्युततन्तुषु | अव्यूततन्तुभ्यो व्यूततन्तुषु जात्यपेक्षं
च शब्दाद् गुरु लघु च पश्यति ।
जात्यपेक्षं दृष्टाद्
दृष्टान् ०कृष्टसङ्ख्येय० ०कृष्टसङ्ख्य० ०स्तूपादेव
०स्तूपाद्येव उडुकः
उडुपः अवधिसं०
अवधिः सं० ०दनुयोगाद्
०दनुपयोगाद् तस्याऽधेः
तस्याऽवधेः आहार
आधार आहारस्त०
आधारस्त० ०पलब्धि०
०पयोगलब्धि० ०वधिद्रव्या० ०वधिव्या० दव्वाणंत्ते
दव्वाणंते फड्डिएहिं
फड्डएहिं तिरिग्गहणं
तिरिगहणं) ०वधेर०
०वधिर० ०त्पात०
०त्पाद० ०वधिर्दे०
०वधिरदे० खित्तओ
खित्तं
१७६ १७७ १७७ १७९ १७९ १७९ १७९ १७९ १८० १८१ १८२ (१८३ १८४ १८४ १८५ १८५
५
१७ १७ ३१ ११ १७ ३७ २१ १५ ३४ १० ११
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अनुसंधान-३०
१८८
३
१८८
१८९ १८९ १८९ (१९०
२ १२ १८ ६
०षितबा० ०पच्चाया० ०रूपा बाधा पभा व दी० प्रभेव दीपे
जेल्ल०
१९५
०षितमबा० ०पच्चया० ०रूपाऽबाधा पभा पदी० प्रभा प्रदीपे जल्ल०) काययोगेन
यज्ञानिनः प्ररूपणाया ०लाप्यान् ०लाप्यान् ०परिस्पन्दः केवलिग०
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११
कायमनोयोगेन यज्ञाने प्ररूपणीया ०लप्यान् ०लप्यान् ०परिष्यन्दः केवलग०
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०णं सुया० अतीन्द्रियाणाम् नोसंश्यसंज्ञिनाम्
०णं जं सुया० पञ्चेन्द्रियाऽतीन्द्रियाणाम् संज्ञिनां नोसंश्यसंज्ञिनां च
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December-2004
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पत्रचर्चा
मुनि भुवनचन्द्र
सम्पादकवर्य,
'अनु०'-२८मां पत्रचर्चामां आपे 'मरुदेवा' शब्द 'त्रिषष्टि' मां वपरायो छे ए हकीकत प्रत्ये ध्यान दोर्यु छे ते बदल आभारी छु. एना आधारे आ शब्द घणो जूनो सिद्ध थाय छे. जो के 'अनु०'-२७मां में वापरेलो शब्द 'मारुगूर्जर' जूनी गुजरातीना निर्देश माटे हतो. जूनी गुजरातीने विद्वानोए
अनेक नामे ओळखावी छे. आ सन्दर्भमां श्रीजयन्त कोठारीना विचार अहीं नोंधवा जेवा छे :
"हकीकतमां ८मीथी १९मी सदी सुधी पश्चिम रजपूताना अने उत्तर गुजरातनो घणो भाग संयुक्तपणे 'गुज्जरत्ता' के 'गूर्जरत्रा' तरीके ओळखातो हतो, तो ए समयनी भाषाने गूर्जर भाषा के गुजराती भाषा कहेवामां शुं खोटुं?.... डॉ. टी.एन.दवे, डो. भायाणी जेवा विद्वानो दशमी-बारमी सदीमां उद्भवेली विशाळ प्रदेशनी आ भाषाने 'गुजराती (के गुजरातीनी पहेली भूमिका के प्राचीन गुजराती) कहेवानुं पसंद करे छे. जो के खरी परिस्थिति आपणा लक्षमां होय तो नामनो प्रश्न गौण बनी रहे छे."
(भाषापरिचय अने गुजराती भाषानुं स्वरूप, पृ.८४) "मरुदेवा' शब्दने 'मारुगूर्जर' न कहेतां प्राचीन गुजराती कहीए ए विशेष उचित छे. (विक्रमनी आठमी शताब्दीथी 'गुज्जर' भाषानो पिण्ड बंधावो शरू थई चूक्यो हतो.) आटलो सुधारो कर्या पछी पण आपे उठावेलो प्रश्न ऊभो रहे छे : शुं आ. हेमचंद्र ऊपर पण जूनी गुजरातीनो प्रभाव हतो एम मानवू ?
आवा समर्थ व्याकरणविद् प्रचलित भाषाना प्रभावतळे अभानपणे कोई शब्द प्रयोजे एम न मानी शकाय; पण 'मरुदेवा' प्राचीन गुजरातीमां अने जैन वर्तुळोमा स्थिर थवा मांड्यो होय अने आ. हेमचन्द्रे सभानतापूर्वक ए शब्द स्वीकार्यो होय एम शुं न बनी शके ? "सिद्धमातृकास्तव'मां अने 'शत्रुजयमाहात्म्य'मां पण आ जातना प्रभाव हेठळ आ शब्द प्रयोजायो होय
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अनुसंधान - ३०
एवं शुं संभवित नथी ? आवो शब्दप्रयोग लोकभाषानो 'प्रभाव' सूचवे छे एम कहेवामां हरकत नथी.
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आ शब्दने जूनी गुजरातीनो गणीए तो 'सिद्धमातृका स्तव'नो रचनाकाळ अपभ्रंशोत्तर गुजरातीनो सहेजे ठरे. अने जो एने अपभ्रंश शब्द गणीए तो रचनाकाळनी पूर्वसीमा हजी पण प्राचीन समजवी पडे. किन्तु श्रीदिवाकरजीनो समय संस्कृतनी तथा प्राकृतनी मुख्यतानो छे. संस्कृतना चाहक एवा दिवाकरजीनी रंचनामां अपभ्रंश के अपभ्रंशोत्तर युगना शब्दने स्थान मळे एवी शक्यता नहिवत् ज गणाय. आथी 'सिद्धमातृकास्तव' ना कर्ता दिवाकर सिद्धसेन छे के अन्य कोई सिद्धसेन ? ए प्रश्न हजी विचारणा तो मागे ज छे. मुनि भुवनचंद्र
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( नोंध : सिद्धमातृकास्तवना प्रणेता दिवाकर - सिद्धसेन नथी, ए तो सिद्ध तथ्य होवानुं स्वीकारीने ज आपणे चालवुं जोईए. ए रचना १२मा - १३मा शतकमां थयेला आ. सिद्धसेनसूरिकृत होवानुं ज विशेषे संभवित गणाय. शी.)
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