SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ December-2004 17 सकल सिद्धिसुखं जगि जो करइ । पंचमंगल कां नवि सो धरइ ॥७॥ ढाल । राग - आसाउरी विहरमान जिन मंडलं समरीय मणि उल्हास । वासुपूज्य जिनवर तणु भणस्युं पुण्यप्रकाश ॥८॥ सशिकर सम शुचि देहना हंसगमनि श्रुतदेवि । तुं मुझ मति तुझ मयाकारी मुज वदनांबुज सेवि ॥९॥ वासुपूज्य जिन पुण्यप्रकासो सुणतां निजमति भावी । बहुभवसंचित पातक जातां माणीसि वली मनावी । सुणी पुण्य पुन्याढरायनो संयम लेई प्रतिबुद्धो । श्री पदमोत्तर राजऋषीसो जिनपद फासति सूद्धो ॥१०|| गाथा ॥ ११ सिरि वासुपुज्य जिनवर पुण्योदय कित्ति कुंडले सवणे । भविआण सुणताणं विलसति पुण्योदउ भवणे ॥११॥ राग - मालवीगोडी । १२ मंगलावती विजय राजति रत्नाकरमिव रत्नपुरं । जन तनु भूषण रयण कांतिभर रयणि विणासित तिमिर भरं ॥१२॥ मंगलावती. १३ पुष्करवर-पुष्करणि सोभित-पुष्करार्ध शुचि दीप वरे । तिहां बहु जीवित पुरवविदेहिं जिनघर मंगलदीप भरे ॥१३॥ १४ मेरु शिखिर सम बहु जिनवर घर पुर नरनारी प्रमोदकरं । वापी कूप सरोवर मंडित बहु विवाहारी रत्नघरं ॥१४॥ तिहां सिरिवासुपूज्यजिना जीवो पद्मोत्तर नरनाथ वरो । दुर्जनदमनपरो अति चतुरो राजनीति सुगणाण धरो ॥१५॥ १६ सरणागत जिन वत्सलदाता सूरवीर जनजन जतन करो । निजभुजबल-बहु-साधित-जनपद विश्व यशोभर कीर्तिधरो ॥१६॥ १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520530
Book TitleAnusandhan 2004 12 SrNo 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy