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________________ 62 अनुसंधान-३० ढूंक नोंध उपधान-प्रतिष्ठा-पञ्चाशक विषे अनुसन्धान-४मां उप.प्र.पञ्चाशक (सं. विजयप्रद्युम्नसूरि) प्रकाशित थयेल छे. ताजेतरमा ज, खरतरगच्छीय श्रीजिनप्रभसूरि-विरचित (सं. १३६३), 'विधिमार्गप्रपा' नामे प्रख्यात अने पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी द्वारा ई. १९४१ मां सम्पादित-प्रकाशित ग्रन्थमां ते रचना मुद्रित थएली जोवा मळी. ते रचना ग्रन्थकारनी नथी, परन्तु ग्रन्थकारे तेने उपधानतपना प्रकरणमां उद्धृत करेलुं छे. तेमणे तेना कर्ता- नाम नोंध्युं नथी. मात्र 'पुव्वायरिएहिं उवहाणपइट्ठापंचासयं नाम पगरणं विरइयं' - एवो मोघम निर्देश ज को छे. तेथी एक वात स्पष्ट थाय के प्रस्तुत प्रकरणनी छेल्ली गाथामां आवता 'विरह' शब्दथी दोरवाईने तेमणे आ प्रकरणने हरिभद्राचार्यनी रचना होवानुं स्वीकार्यु नथी; जो तेमनी तेवी मान्यता के समजण के जाणकारी होत तो 'पुव्वायरिएहि'ने बदले 'हरिभद्दायरिएहि' एम अवश्य लख्युं होत. श्रीजिनविजयजीए पोताना सम्पादकीय लेखमां पण, 'जो किसी पूर्वाचार्यका बनाया हुआ है' - ए प्रमाणे नोंध करी छे. विशेषता ए छे के आ मुद्रणमां आ प्रकरण ५१ गाथा धरावे छे, जेमां ९ मी तथा १० मी गाथानी वचमां एक गाथा 'प्रक्षेप' रूपे उमेराई छे : "किंच न गोट्ठामाहिल-कयमेयं नंदिसेणचरिए जं । कह भोगफलं भणिही अबद्धिओ बद्धपुढे सो ॥ [प्रक्षेप:]॥" उपरांत, केटलांक नोंधपात्र पाठभेद पण आमां जोवा मळे छे. अनु. ४ना पृ. ३४-३८मां मुद्रित पाठगत गाथाओना क्रमे ते पाठभेदो आ प्रमाणे छ : गा. १ गा. २ नमिऊण वीरनाहं । मुवहाणनिव्वहणं (पा. निम्मवणं) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520530
Book TitleAnusandhan 2004 12 SrNo 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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