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________________ December-2004 १८३ त्रिवधिं मिच्छादुक्कडं खमावुं मन साखि रे । १८४ पापथानक सवि वोसिरयां सदा मोहनां हेतु रे सवे जीव खमावीआ शरण च्यार मुख भाखि रे || १०|| वीस था० । उपकरणां सवे वोसिरयां नवकार धरइ चित रे || ११|| वीस था० । - १८५ पंच नवकार चिति राखता देह पंजिरं छंडि रे प्राणत देवलोक गयो लिओ सुर सुखपिंड रे || १२ || वीसथा० । ढाल अढीय द्वीपमां जे त्रिकाल पुरुषोत्तम हूओ आसनकए - ए ढाल । १८६ देवो पुण्य निधान चंद्रासासविमानमां ए सुर शय्या थी । ऊठि पुण्यविचार ज्ञानमां ए ॥१॥ १८७ उदयाचल जिम सूर उग्यो शोभति तमहरु | देह अनोपम रूप तिम तिहां शोभति सुर वरु ॥२॥ १८८ जय जय तुं चिरंजीव सामि हमारो उपनो ए । सेवक सुर परिवार कहइ कुण पुण्यई जीवनो ए ||३|| १८९ पुस्तक वी (वां) चीय सार सुर शुभ करणी आदरइ ए । जिनघर प्रतिमा रूप सत्तरभेद पूजा करइ रे ॥४॥ १९० नाटक सुर सुख भोग सुखसागरमां झीलता ए । काल न जाणइ देव जिम हंसा सरि कीलतां एं ॥ ५ ॥ १९१ जिन कल्याणक काज करीअ सुणइ जिनदेशनाए । नंदीसरवर यात्र महरिसी वंदइ देशनाए ॥ ६ ॥ १९२ केवलनाण-निहाण विणुं संयम नवि पामीइ रे । विणु माणव अवतार तिणि नरभव सुरि कामीइ ए ॥७॥ ढाल त्रिभुवन जिनपति वीर । १९३ दीप असंखई वेढिउं धुरि जंबूअदीवो रे । जीवो रे जिहां आवइ छइ जिणवर तणो ए ॥१॥ - 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520530
Book TitleAnusandhan 2004 12 SrNo 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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