SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 36 अनुसंधान-३० १९४ तिहां दक्षिण वर भरतमां रिपुजन-वद्धिअ-कंपा रे । चंपा रे तिहां नगरी चंपावन घणां रे ॥२॥ १९५ ग्रहणं जिहां रवीचंद्रनइं पणि नवि कुणनी रातई री । तातई रे जिहां जन न पडइ मुनीजन तणी रे ॥३॥ १९६ संयम न जिहां केशनइं पाणि कुण नई वि अपराधि रे । बांधि रे जिहां घर न पडइ सूतडां रे ॥४॥ १९७ ग्रहगणवर तइ लगनमां कटक समासई विग्रह रे । विग्रह रे जिहां नवि वरतिं जनमां ए ॥५॥ १९८ थउट पडइ मादल सिरई तिम वमय वरत गज कुंभि रे । दंभइ रे जिहां नवि वरतइ जिन धर्म मा रे ॥६॥ १९९ अगुरुवास जिन केशि रे जिहां आरति जिन धूपई रे । कूपई रे जिहां जड वरतइ पाणि नवि पुरीइ रे ॥८॥ २०० संकडतां युवतीकडइ जिहां वरतिउ पण नवि घरमां रे । घरमां रे दिसइ जिहां नवनिधि लोकनइं रे ॥९॥ २०१ जिहां जिनभवन-पातकिनी जाणई नभ-शशिनइं चाहइ रे । चाटइ रे जगि जिन यश दिशि आंतरां ए ॥१०॥ २०२ तिहां वसुपूज्य नराधिपो देविंद सरिखो राजइ रे । वाजइ रे जिन घर-बार नफेरीआं रे ॥११॥ २०३ जांणि जिहां जिनधर्म नइं जिनचैत्य धजा प्रचलती रे । चलती रे कवि लूंछणां रे ॥१२॥ २०४ नामि जया तस राणी रे धरि रूपई जिम इंद्राणी रे । जाणी रे सा शीलइ मरुदेवी जसी रे ॥१३॥ ढाल - प्रथम पूरव दिशि । २०५ सरस वरकुसुमस्युं सुरभिभर धूपिओ । गोपीउं वासघर कनक देहं ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520530
Book TitleAnusandhan 2004 12 SrNo 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy