SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ December-2004 19 २७. अरद्ध राज तस आपीउ बहु साध्या तिणि देस रे । नगरी महोत्सव आवीओ हस्ति दीइ उपदेसो रे ॥२७॥ पद० ।। २८ खटिकाखड लिई लिखइं गज इक भीत सिलोगं रे । नृप जन पुरि-जन देखतां कोइ न लहइ अनुयोग रे ॥२८॥ पद० । श्लोक २९ अविज्ञातन्नयी(त्रयी?) सत्त्वो मिथ्यासत्वो लसद्भुजः । हा मूढ ! शत्रु-पोषेण किं मित्राणि दूष्यसि ? ॥२९।। राग - आसाउरी ॥ ढाल - त्रिभुवन पतिजि० ॥ ३० बहु बुधजन जगि पूछिआ पणि को न लहइ तस पारो रे । पारो रे जन पंगु न लहइ जलधी तणो इ ॥३०॥ ३१ मंत्री एक कहइ सुणो कोइ सुगुरु मिलइ नवि जाय रे । भावे तेन विणु एहनु पामीइ रे ॥३१॥ ३२ नरपति गुरु तेडावीआ आणंदचंद मुणिंदो रे । कंदोरे सो प्रवचन-सुरशाखी तणो रे ॥३२॥ ३३ श्लोकार्थं गुरु पूछतां तिहां गज प्रणमइ गुरु पायो रे । थाइ रे तिहां राजसभानइं कौतुकां रे ॥३३॥ ३४ गुरु कहइ राजन सांभलो ए गज छइ चतुर विचारो रे । सारो रे जिम सुरपति घरि ऐरावणो रे ॥३४॥ ३५ कहइ तुझ तत्त्व मती नथी ए गज तो समकितधारी रे । सो रीए कह(इ) छइ मति करी आपणी रे ॥३५॥ ढाल - वइराही ३६ राजन ज्ञान धरो चित-भाई राजन ज्ञान करो । जुगि दुलहो सो हित दाई राजन दुढि ज्ञानवंतना धन जगिमाई । ज्ञानी शुभ गति जाई ।१।।राजन० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520530
Book TitleAnusandhan 2004 12 SrNo 30
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages86
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy