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अनुसंधान-३०
सर्वतोभद्र यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, राशिगत तीर्थंकर आदि की साधना, उपासना विधि के द्वारा मनोभिलषित सिद्धि अर्थात् धर्म का लाभ, वृद्धि आदि प्राप्ति का इसमें विधान किया गया है । धर्मलाभ अंगी बन कर और समस्त साधनों को अंग मानकर इसकी सिद्धि का विवेचन होने से "धर्मलाभशास्त्र" नाम उपयुक्त प्रतीत होता है । "सामुद्रिक प्रदीप" नाम पर विचार करें तो सामुद्रिक शब्द मान्यतया हस्तरेखा-ज्ञान का द्योतक है । सामुद्रिक शब्द के विशेष और व्यापक अर्थ पर विचार किया जाये तो सामुद्रिकप्रदीप नाम भी युक्तिसंगत हो सकता है । इसमें प्रचलित सामुद्रिक अर्थात् हस्तरेखा शास्त्र का विवेचन/विचार नहीं के समान है । अत: कर्ता का अभिलषित नाम धर्मलाभशास्त्र ही उपयुक्त प्रतीत होता है । महो० मेघविजयजी -
इनका साहित्यसर्जनाकाल १७०९ से १७६० तक का तो है ही। ये व्याकरण, काव्य, पादपूर्ति-साहित्य अनेकार्थीकोश आदि के दुर्घर्ष विद्वान् थे । इन विषयों के विद्वान् होते हुए भी ये वर्षा-विज्ञान, हस्तरेखा-विज्ञान फलित-ज्योतिष-विज्ञान और मन्त्र-तन्त्र यन्त्र साहित्य के भी असाधारण विद्वान् थे ।
कवि ने इस ग्रन्थ में रचना-संवत् और रचनास्थान का उल्लेख नहीं किया है । हाँ, रचना-प्रशस्ति पद्य ३ में आचार्य विजयप्रभसूरि के पट्टधर आचार्य विजयरत्नसूरि का नामोल्लेख किया । “पट्टावली समुच्चय भाग १" पृष्ठ १६२ और १७६ में इनका आचार्यकाल १७३२ से १७७३ माना है, जबकि डॉ. शिवप्रसाद ने "तपागच्छ का इतिहास" में इनका आचार्यकाल १७४९ से १७७४ माना है । इस ग्रन्थ में अधिकांशत: संवत् १७४५ वर्ष
की ही प्रश्न-कुण्डलिकाएँ है, इसके पश्चात् की नहीं है । अतः इसका निर्माणकाल १७४५ के आस-पास ही मानना समीचीन होगा ।
छठा अधिकार राजा भीम की प्रश्न-कुण्डली से सम्बन्धित है । पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भीमसिंह हुए है । सीसोदिया राणा भीमसिंह, महाराणा अमरसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा राजसिंह का पुत्र भीमसिंह, महाराणा भीमसिंह और जोधपुर के महाराजा, कोटा के महाराजा, बागोर के
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