________________
December-2004
31
ढाल - सरसति अमृतनो ॥ राग - केदारो ॥ १४७ तिहां प्रणमती सुरीय थुणंति वज्रनाभ मुनि सुगुण गणंती ।
कहइ जग-जीव-दयालो ॥१॥ १४८ अमरसंघ आवइ इक जावइ देखी नरपति अचिरज पावइ । गुरु महिमा चित्त भावइ ॥२॥
त्रोटक १४९ पुर-नरा तिरिआ तिहां मोहिआ ।
सुगुरुनादि रह्या निहा रोहिआ । तिहां मिल्या भविआ बहु देशना ।
ते सुणइ गुरु अमृत देशना ॥३॥ १५० वाघ सिंह जरखादि सीआला ।
जे हूंता जगि अतिविकराला ।
तेपि हुआ सुकुमाला ॥४॥ १५१ वानर मांकड रानबिलाडा ।
गज दीसई दंतूसलि जाडा । दीसंति सूअर काला ॥५॥
त्रोटक १५२ रिझरोझ ससला मृगला मिल्या ।
चीतरा नकुला हय गोधला । अरिहधर्म सुणइ श्रवणंजलि ।
ते पिबंति मुदंति गुरु मिलइ ॥६॥ ढाल - सामि सुहाकरनी । १५३ मुनिवर जाण्यउ त्रिभुवन दीवडओ । बारम जिनवर ए नृप जीवडो ॥१॥
त्रोटक १५४ एवडु मोटा जीव जाणी गुरु करइ गुरु देशनां ।
संवेगजनकी कथा कहइ-भवि सुणइ बहु-देशनां ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org