Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
38
अनुसंधान-३०
२१८ हणस्यइ तुझ पुत्रो मोह-तिमिरनई जाणे ।
सुभगे सत्तम हूं आदित जो सुभनाणे ॥८॥ २१९ कुल धज तुझ नंदन होस्यइ आठमइ जोई ।
विणु पुण्यइं सुपनि नारि न देखति कोई ॥९।। २२० न्यानादिक गुण-मणि-कुंभो छि तुझ कूखि ।
हूं नवमो कुंभो देखि म जाइ सि दूखइं ॥१०॥ २२१ जन तृष्णावेदी मुझ परि तुझ सुत देवइं ।
तिणि पद्मोत्त(र) सरोवर दसमु तुं मुझ सेवी ॥११॥ २२२ सुत गुण रत्नाकर गंभीरो मुझ मित्र ।
सुभगे रत्नाकर एकादशम पवित्र ॥१२॥ २२३ दुर्लभ हूं जाणे अपुण्याजन नई देवी ।
तुझ पुण्यवंतीनई सुरविमान मुझ सेवी ॥१३।। २२४ तुझ सुत मुझ मित्र अनंता गुण मणिवासी ।
हूं सुपनइं आव्यो विविध रतननो रासी ॥१४|| २२५ सुत कम्मिधणनि ध्यानागनिइ दहेसि ।
निर्धूम अगनि हूं सुपनइं जो शुभवेसी ॥१५॥ ढाल ॥ राग-अधरस ॥ २२६ अनुपम सुपनलां रे प्रिय मइ आज सुपनमई देख्यां ।
प्राणनाथ तस फल मुझ कहीइ एहवां कहीं न देख्यां ॥१॥ अनुपम० । २२७ सपन चउद देखी अति हरखी सुमुखी जिननी जननी ।
सुपनतणां फल प्रिय प्रति पूछइ अतुरति गजगति-गमनी ॥२॥ अनुपम० । २२८ वसुधाधिप वसुपूज्य सुणीनई एणइ वचंनि अतिहरखइ ।
जया राणि ते अनुक्रमि कहितां राजा निजमति निरखइ ॥३॥ अनुपम० | २२९ निजमति सुपन विचारी बोलइ निज-धरणी प्रति भूप ।
अतुली-बल तुझ नंदन होस्यइ तस सुरपति-समरूप ॥४॥ अनुपम० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86