Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 52
________________ December-2004 47 ३११ वरगडवा गाय दीजइ बंदी मुख शिवबोलइ । नाटक होइ सुर तोलइं जन उगट हस्त बोलइ ॥ सुरपति घांट घंघोलइ दान भरइ जन खोलइ ॥३॥ ३१२ प्रभु वरघोडो ए शोभइ वाजिंत्र गगनि ए षोभइ । हस्तिघडा पंथि क्षोभइ हस्तिपुर-घर शोभइ ॥४॥ ३१३ ढाला ॥ जलहीनो हाथ जाडीयाए । त्रिभूवनपति वर गज चडी वरे ऐरावण सरखइ रोहणगिरि तरणी यम । देखीय त्रिभुवन हरखइ ॥१॥ ३१४ सुर नर कोडि परिवर्यो अंबर वाजिंत्र घोषा । दान होइ बहु तोकणि लूण हरइ बहु दोषा ॥२॥ ३१५ छत्र पविशं सिरि ढलइ चमरीअ चामर ढालइ । चंद्र मुखी चांदरणीय पूंठिगीत न टालइ । धवल दिइ ते रसाल ॥३॥ ३१६ पूंठि लामण-दीवडो-ए जिन अविहड होस्यइ । मुझ परि झगमगतो प्रभु निजमतिं त्रिभुवन जोस्यइ ॥४॥ ३१७ राय कहइ वेवाहणि पइसी रहो छउ कां सूणइ । बाहरि वेग पधारीइ बहु मणिथालो रे गुणइ ॥५॥ ३१८ वासुपूज्य वर तोरणि ते मणि मोती वधावो ॥ अर्थ दिओ वरारायनइं पुंहकणडाई करावो ॥६॥ ३१९ तव जिन सासू अधसमसा अर्घ दिई शुचि नीरइं । वसुपूज्य वेवाहीय इंद्र रह्या सम तारइं ॥७॥ ढाल ॥ ३२० तोरणि जिनवर आवीआए सासूइ श्रीजिन पुंहकिया रे । ताणीय श्रीजिन आपणि बारणि मूंकीआए ॥१॥ ३२१ पाए सराव चंपावीउं रे जाणि अशुभनूं मूल कंपाविउ रे ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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