Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 55
________________ 50 अनुसंधान-३० ३५२ जनती करंतीय लूंछणां वाजां वाजइ छइ बारि ॥ आछणपाणी उतारता धवल दिइ बहुनारि ॥२॥ ३५३ पंच विषय सुख भोगवइ पुत्र हवो इक सार । नामि मघवान थापिउं मघवा सम अवतार ॥३॥ ३५४ एक दिन मित्रस्युं परवर्यो लीला वनमां जाइ ॥ रमति वसंतनी जन रमइ जिन मनि ते न सुहाइ ॥४॥ ३५५ मूढ नरा मोह मोहीया हारइ नर अवतंस रे । त्रिभुवनमांहि जे दोहिलु नरभव विणुं नवि पार ॥५॥ ३५६ मूढा मोह अंगीकरइ ते मुझ वियरी होइ । मोहो उपशम वेरीओ सूक्यो सब जिनि जोइ ॥६॥ ढाल- ॥ करुणासागर देवनो । ३५७ वरसह लाख अढार जनमथी प्रभुनिं हवाए । भावइ जिन नित चींति उपशमथानक नवनवाए ॥१॥ ३५८ लोकांतिक सुरश्रेणि आवी प्रभुनइं पगले पडीउए । कहइ प्रभु तीरथ थापि वर संयम शिबिका चढीए ॥२॥ ३५९ तुं सुबुद्धि निधान तुझ विणु जग कुण बूझवइए । मोहि पड्यो जगजीव तुझ विणु कुण तस बूझवइए ॥३॥ ३६० अवसर जाणीय इंद्र बारम जिन दीख्या तणोए । जिनघर सेवक पाइं कनकराशि मुंकइ घणोए ॥४॥ ३६१ विविध ठामिथी आणि श्री जिनवरघर पूरिउं रे । प्रभु वरसी दिइ दान जग जन दारिद च्चरिउ रे ॥५॥ ढाल - वइराडी ॥ ३६२ लीलारामि रमति मइं न रमी ते विरमी मई भाई । अंब तात मुझ अनुमति आपो मई निज हितमती लाई ॥१॥ माई अनुमति आपो० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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