Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 56
________________ December-2004 ३६३ ग्रसति जीवजीवित वडवाई जिम मूंसो खिणि खाई । माईअ० । ए तनु सोनिक हाथि कपाई । हाटि हाटि विकाई ॥२॥ माई अ० । ३६४ भवि अनंत भमतां बहु भाई जीवो विषय कषाई । भूख्यो जीव भखा षटकाई भवि भवि करति सगाई ||३|| माईअ० । ३६५ बहु जन मिथ्यामति लगाई पापई हूओ री सखाई । पापी जन यशकीरति गाई जिन कीरति न कराई ||४|| माईअ० ३६६ पूज्य पुरुष पूजा न रचाई नेव अमारि रखाई । जिनवाणी नवि चीति लखाई धर्मि करीअ ठगाई ||५|| माईअ० । ३६७ दान विना बहु भगरि मगाई जीवि धर्म न थाई | धर्म विना जीव दुर्गति जाई अनुमति दिओ मुझ माई ||६||माई अ० | ३६८ माता वचन सुणी अतिकडुंउ भूमि पडी अति मोही । खिण उठि रोवति मुखि बोलइ किम रहूं जात विबोही ||७|| ३६९ पूता तुं ही एक प्राणाधार पूत तुं मेरो । कुसुमहथी सुकुमारो केशलोच प्रमुखो अति दुष्कर । दुष्कर संयम भारो । पूता तूंही एक सखाई ॥८॥ ३७० ३७१ मूंकि म लोचनि मरी - चूरणं । रंभा थंभ कुठारो । अब कुसुम नवि अगनि मूंकीइ । काच कुंभि असिधारो ||९|| पूता तूं ही एक । वासुपूज्य जननी प्रति बोलई धरमई विघ्न न कीजइ । सुत प्रति व्रतनो निश्चय जाणी कहइ जिन सुख तिम कीजइ ॥ १०॥ पूता तूं ही एक । ढाल ईशानेंद्र खोलइ लिइ ॥ ३७२ वासुपूज्य जिन मांडी व्रत सुरगिरि आरोह रे । - 51 जे चरणोत्सव भवि जोइ तस नवि सुकृत विछोह रे ॥१॥ वासुपूज्य० । ३७३ इंद्र सवे मिली आवीया हरखि सुर नाचंति रे । मादल मस्तक घमघमइ तालिइ सची राचंति रे ॥२॥ वासुपूज्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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