Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 42
________________ December-2004 37 २०६ विविध मणि दीपतो उद्योति मणिमंडिउं । खिडिउं बहु धनि वास गेहं ॥२॥ २०७ तिहां सुखि सुतीय शुभ दिशि सूतीय सा जया श्रीवसुपूज्यराणी ॥३॥ २०८ जेठ शुदि नवमीय शतभिखा शशि त(ठ)इं । सुरघरि वीस सागर रमीए ॥४॥ २०९ चउदसुपनि जया कुखइं वरसीपमां । सुर मुगताफल अवतर्यो ए ॥५।। २१० जांणीइं सुपनलां तीर्थंकर मातनइं । जूजूआ भाव आपई कहइ ए ॥६॥ ढाल - घोडीनो ॥ सोभागिणी जाणे । २११ एणइ कारणि हुं आव्यो तुझ प्रथम सुपनमां । वरगुण लक्षण भाव्यो ॥१॥ २१२ मुझ सामीय इंद्रो तुझ सुत सेवक होस्यइं । ऐरावण गज हूं तुझ सुत पणि मुख जोस्पइ ॥२॥ २१३ तुझ नंदन मुझ परि पंच महाव्रत धोरी । हूं वृषभो सुपनि बीजइ आवीओ जोरी ॥३॥ २१४ तुझ सुत नरसीहो मुझ परि मद-गज--भेदी । तेणइं सीहो हूं छं त्रीजउ दुखुनो छेदी ॥४॥ २१५ मुझ चापल जास्याइ तुझ सुत पासि आवइ । हूं लखमी चउथी आवी मुझ जोउ भावि ॥५॥ , २१६ मुझ परि तुझ नंदन कीर्ति सुगंधी जाणइ । हूं विविध कुसुमनी माला पंचवखाणि ॥६।। २१७ मुझ मंडल मित्रो तुझ सुत वदनं होसी । हूं पूनिम चंदो छठो जो निरदोसी ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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