Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 31
________________ 26 अनुसंधान-३० तरुतलि तुं सोडिताणी उंघि सूतो घोरतो । हस्ति आवी राज दीधुं विचरि कर्मह चूरतो ॥९॥ ढाल-राग- देशाख ९४ सुणि निजसरुप चिति भावीउ रे बहु उपशम रायनइं आवीउ रे ॥१०॥ ९५ भवतारणी तपन मुनिपासइ नामइ तपस्या जेणिं सर्व सुख शांति जागई ॥१॥ ९६ भणि तपन वर राजऋषि तुझ शरीरइं । विसकोव छइ जिम सदा फल करी रई ॥२॥ ९७ यथा गलिय-बलदीइं रथ न चालइ । तथा तुझ शरीरई किरिया न चालइ ॥३॥ ९८ यथा नव परिग्रह विना घर न चालइ । तथा तुझ शरीरइं विहारो न चालइ ॥४॥ ९९ यथा सिंधु जलवासु विणु नाव न चालइ । तथा तुझ शरीरइं समासन न चालि ॥५॥ १०० यथा शासनं साधु विण नैव चालइ । तथा तुझ शरीरइं वेयावच्च न चालइ ॥६॥ १०१ यथा आजीविका आलसू(सू)खा न चालइ । यथा जूठ बोला प्रति कुणिं न चालइ ॥७॥ १०२ यथा दान-पुण्यं विना यश न चालई । प्रतिलेखनादिक तथा तिं न चालइ ॥८॥ १०३ यथा गुरु विना पठन-पाठ न चालइ । यथा पंच भूतं विना जगि न चालई ॥९॥ १०४ यथा आहार निहारविणं तणुं न चालइ । तथा वंदणावतपणि तिं न चालई ॥१०॥ १०५ यथा पंचनिश्रा विना गुरु न चालइ । तथा ति गुरुकाय विनयो न चालई ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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