Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
December-2004
27
१०६ तुं तो चरम शरीरीय मुक्तिगामी ।
तेणि देशविरति सुगुरुपाश पामी ॥१२॥ १०७ गजराउ जाण जे अवधिनाणी ।
सुदृष्टिसु साधार्मिको बुद्धि आणी ॥१३।। १०८ सुपुण्याढय राजा सुहस्ति उपासई ।
सदा देव गुरु धर्मास्युं नगरवासि ॥१४॥ १०९ सो ई तए न मुनिराज प्रतिबोध देई ।
विहारो करइ तिहां बहु लाभ देई ॥१५॥ दूहा ॥ ११० ग्रहणगे रविचंद्र विणु, काल न वरतिइ कोइ ।
तिम नरनई पठु पिंड विणु मुगति म साधइ कोइ ॥१६।। राग - परजिओ अधरस ॥ प्रणमी तुम्ह सीमंधरुजी नरसेर भेढीउ साहसवीर
ए ढाल । १११ विमलबोध मंत्री भणइजी सुणी पदमोत्तर राय ।
गजसरूप चिति भावतांजी बहु भव पातक जाइ ॥१॥ ११२ सहोदर तुझ मुझ पुण्यइ योग । कहइ पुण्याढ्य नरेसरोजी ।
गज ल्यो भोजनभोग ॥२॥ सहोदर. । ११३ गज साधर्मिक लेखवीजी गज बहु कीजइ सार ।
नृप राजरुद्धि मोहिओजी कीजइ भगति अपार ॥३॥ सहोदर० । ११४ आधोरण सब वारिआंजी गजनि बंधन-रोह ।
त्रिकाल जगनई आरतीजी अति माहोमाहि मोह ॥४॥ सहोदर० । ११५ गज जयणास्युं संचरइजी जीवदयानि हेति ।
अलपाहारी उपशमइजी कहइ निज चेतन चेति ॥५॥ सहोदर० । ११६ चेद्रअ-परिवाडी करीजी सिंहसहित गजराज ।
धर्म पर्व सवि साचवइजी गजनी सब बहि लाज ॥६॥ सहोदर० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86