Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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दानशील तपो जगमा भावनां जेणइ अणुसरी । संसार सागर सुणो भविआ गया ते सुखि उतरी ।
१५५ तरिओ दानिय महति सागरो ।
तिम तपि तरिओ संवर मुनिवरो ॥३॥ त्रोटक १५६ सनतकुमारो सील तरिओ तरी सिणगारसुंदरी । भावि चंद्रोदरो वरिओ गुरई च्यार कथा कही ॥ अथिर तनु धनु राज यौवन युवति भोगा भंगुरा । विविध रोगई विविध शोक विविध दुखिआ किंकरा ||४||
१५७ राजन सुणि तुं जगि जे दोहिलां । ते तई पाम्या पुण्यई सोहिला ॥५॥ त्रोटक
१५८ सोहिला पाम्यां पुण्य योगइं पंच इंद्रिय पडवडां । मनुज भव शुभ देश शुभ कुल देवगुरु शुभ वचनां । आराधितुं ए भव महोदधि तरण कारणि प्रवहणां । विविध भवमां जीव कीधा जननी - सुख (त) सगपण घणां ||६||
१५९ बोल्या नरपति गुरुवयणां ।
जननी जायो गुरु तुं वर धणी ॥७॥ त्रोटक
१६० धणी तुं मुझ होइ मुनिवर देहि दीख्या आपणी । घरि नई निज राजचिंता पुत्र थापी पुर धणी ।
अनुसंधान- ३०
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भणइ तव गुरुराजराजन, धर्म विलंब न कीजीइ । धम्मि आलस करइ जो जगि तेहि दुर्गति लीजीइ ॥८॥
ढाल राग गढी ॥
१६१ दिइ दिइ दरिशन आपणुं निज सुत राजधणी करी । छंडी सब संयोगो दिख्या- नाव जलनिधि तरी ।
छंडी अंतिम सब भोगो ॥१॥
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