Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
December-2004
23
६७
पाप जीव मरइ विषयासी ।
नरकि वसइ नर अभिषयलासी ॥५॥ ६५ अति होइ जगि अमिलवि सूनो ।
जस मोह लागो विभव वधूनो । जइ पणि जीव होइ अतिजूनो । तो हइ पणि रहइ माथा सूनो ॥६॥ चउगति जीव तणां दुख चिंती । चतुरा धर्मारामिति रमंति । भव अरण्यमां ते न भमंता । विषयविषं जगि ते हू विमंता ॥७॥ तपन-राजऋषिनी ए वाणी । सुणिय नराधिप शुभमति आणी । निजशरीर संकोच निदानं ।
पूछति सुगुरु ज्ञाननिधानं ॥८॥ ढाल-राग देशाख । चंद्रिका चोपड्यो चित ठरइ । अथवा धन समता शुचि लता ॥
सुणिह तुं एक लखमीपुरं । हता मित्र तिहां तीज(न) रे । चउद वरसाति प्रेमालूआ ।
कुमारा कुलई पीनरे ॥१॥ ६९ पुण्यवंता जगे ते नरा जण्या तेह प्रमाण रे ।
जेहनइं साधुनां दरिशनं दिइ साधुनइ मान रे ॥२॥ पुण्यवंता० । एक दिनि गहनि रमता गया भला क्षत्रियपूत रे ।
वामण राम संग्राम भला सुणो तेह- सूत रे ॥३॥ पुण्यवंता० । ७१ निजशरीरइ निरहो मुनी विगतपाप निसंग रे ।।
वामणि काउसगि देखीओ हवो वंदण रंग रे ॥४॥ पुण्यवंता० ।
६८
७०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86