Book Title: Anusandhan 2004 12 SrNo 30
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 27
________________ 22 अनुसंधान-३० ___ जो पुण्याढ्यराय नही मो(मा)नइ तस शिर वज्र लुणेसि । इम आकाशि सुणी सुरवाणी जण पुण्याढ्य थुणेसी ॥५॥ देखो० । ५८ धनावहो पणि अंबर-वाणी सुणीय राय-पगे लागो । देश देश पुण्याढ्य रायनो यशपडहो जइ वागो ॥६॥ देखो० । ५९ इंद्रसरीखो राज करंतई राय भण्यो वनपाल । तपनराज ऋषि तुझ वति अम्हे दर्शन दुरितां गालइ ॥७॥ देखो० । ढाल - सीमंधर जिन त्रिभुवन भानुनो । अथवा चंदाइणिनो । ६० पुरि तिणि ज्ञानी चंदो उग्यो । तिण जन-तिमिर गयो अति-सूगो । गुहमुखि अमृत पीइ जन झुक्यो । तिणि मिथ्या-रोगि जन मूक्यो ॥१॥ ६१ राजऋषि सोइ धर्म सुणावइ । भविक सभानां पाप हणावइ । इति वचनामृत राय सुणीनइं । तस वनपाल दरिद्र हणीनइं ॥२॥ ६२ हरखइ गजवरस्युं गुरु वंदइ । गुरुदरिशनि निजपाप निकंदइ । चतुवि[ह] धर्म सुणी गुरु पासि । भूपति धरमई निजचित वासि । शु(सु)गुरूवचनां सतत उपासइं ॥३॥ ६३ कोइ जीव विवहारीय-रासी । जीवायोनि तिणि लाख चउरासी । भमता वार अनंता वासी । शठ न कहइ हित आप विमासी ॥४॥ जे जगमा छइ वस्तु विनासी । तस कारणि मूढातिप्रयासी । ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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