Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 57
________________ 52 घण मोह माया लोभ वाह्यो फरह हा हू तु भमइ दोहिलो लाधो मानुषो भव कांइ आलिं नींगमइ ॥१॥ म करिसि जीवडा माहरूं माहरु जो न विमासी नथी कांइ ताहरुं ॥ त्रूटक ताहरु कांइ नथी रे प्राणी छंडि ममता अति घणी खिण एक पूंठि आथि केरो थाइस्यइ कच (व ? ) को धणी ॥ दिन राति रलतो रहिन तूं ही काज न करइ आपणो एक पुण्य पोषइ कहिन किम तूं अंत पामसि भवतणो ॥२॥ आप सवारथ मलीउं छइ सहू तूं कुण कारणि पाप करि बहू ? | त्रूटक बहु पाप करतु संक नाणइ हईइ न जाणइ आंपणउं कारिमउं सगपण नेह विण जिम छार ऊपरि लींपणउं ॥ अनुसंधान - २४ मन पवननी परि फरि दह दिसि किमइ राख्यउं नवि रहइ एक चित्त अरिहंत ध्यान धरि जिम सास्वतां सुख तुं लहइ ||३|| सीख असीपरि दीजइ छइ घणी पालिन आणा सूधी जिनतणी ॥ त्रूटक जिनतणी आणा पालि सूधी करिन सेवा खरी अरिहंत भाख्यो धर्म आदरि अंगि आलस परिहरी ॥ मन शुद्धि समकित शील दृढ धरि सीख असी परिं दीजीइ इम भणि पदमकुमार मुनिवर भवतणां फल लीजीइ ||४|| ॥ इति सज्झाय ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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