Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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June-2003
61
दोइ मित्र- लही पारखं ते रहिओ मेहली आस । अतिशोकसागरमाहिं पडिओ मेहलतु मुखि नीसास ॥३१॥ जलहीन मच्छ जिम टलवलि मन नहीं ठाम लगार । इम आरति वेतां आवीओ तस पासिं मित्र जुहार ॥३२॥
ढाल महिंतानई मनि अतिदुख देखी बोल्यो मित्र जुहार । कां बांधव एवडो दुख वेओ कहु मुझनि अधिकार ॥३३॥ तुह्ये एवडं पडीया दुखमाहिं पणि कां मुझ नवि संभार्यु । हुइ ते वात कहु मुझ आगलि कुंणइ दुख न वार्यु ॥३४॥ महिंतु तव बोलिओ गलगलतु स्युं कहुं तुझनि भाई । नित्यमित्रनइ पर्वमित्रनी मिं सवि जोई सगाई ॥३५|| राजा घणउं रिसाव्या माटि लागी बीहक अपार । मित्र बिज पणि घणुं ज विनव्या नवि ठरिया लगार ॥३६।। जन्म लगि जे मि धन अरज्युं ते सवि एहनइ दीधुं । दोहली वेलाइ एक अलारुं एहथी काज न सीधुं ॥३७|| तुझ नि मनशुद्धि नवि मलीओ ते बेहुं तु नेह अटकलीओ । राति दिवस घणुं झलफलीओ पणि तुझस्युं किंपि न मलीओ ॥३८॥ कर्यां अखत्र अनेक अजांणि दूहव्या जीव अनंत । कोडा कोडि गमे वली(अलीक?) भाख्यां नवि संतोष्या संत ॥३९।। ओछां आप्यां अधिकां लीधां कीधा दगा अपार । गाम-सीम पाटि लेई चोल्या पापतणा नहीं पार ॥४०॥ राय तणा मान लही नइ पीड्या परि परि लोक । तोहि मनस्युं दया न ऊपनी जो तेणि पाडी पोक ॥४१॥
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