Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ June-2003 63 ए थानक जातां ए नृपना जण बहु देखा देसि । जो मुझथी पिण अलगा थास्यु तो सवि लूटी लेसि ॥५४॥ एक-मनो हुं छउं तुह्म उपरि ए मांनजे साचउं । तेहस्युं नेहि हवि स्युं कीजइ काम न कीजइ काचउं ॥५५॥ महिंतानु मन निश्चल जाणी जुहार-मित्र प्रेम आणी । महिंतु खंधि-चढाव्यो जेणी मित्र एहवा करु प्राणी ॥५६॥ जुहार-मित्रइं जे आगन्या दीधी ते सवि महितइ कीधी । आतमराजतणी तेणि पदवी दिन थोडा माहे दीधी ॥५७॥ ए राजा तु किसई न कीजइ दूर टल्या नृप फंद । सोक संताप निवृत्या साथिं पाम्या परमाणंद ॥५८॥ दोहली वेलाई जे अरथिं आवि ते मित्रनी बलिहारी । एहवा स्युं मित्राई कीजि अविचल गुण संभारी ॥५९।। जुहारमित्रनि कथनइ लागु तह ठेल्यां सवि कर्म । मुगति-पंथ निरभय थइ बिठो पाम्यो मुगति सुधर्म ॥६०॥ हवि ए अंतरंग संभारी प्राणी प्रीछे वात । पहिलउं चउद राज ते चिहुं दिसि नगर वडुं विख्यात ॥६१।। कर्मप्रकृति राजा तिहां मोटा जेहनी त्रिभुवनि आण । महिंतु ते आतमा कहीजइ जोई परखयो जाण ॥२॥ ते आतमा महितानि मांनी तुं नित्यमित्र देह । खिण अलगु रही न सकि तेहथी तेहस्युं अतुल सनेह ॥६३|| पुत्र कलत्रादिक पणि बहु कहीइ मित्र ते पर्व । पाप करी अरजी जे लक्ष्मी तेहनि सुंपी सर्व ॥६४|| जुहारमित्र ते धर्म कहीजइ तेहस्युं जीव न राचि । सुखि न मिलइ कदाचित पणि न मिलइ मनस्युं साचि ॥६५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128