Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 69
________________ 64 अनुसंधान-२४ इणी परि काल केतलि जातइ कर्म उदय तस आवि । अशुभ कर्म त्रूटति प्राणीनइ एहवं मनस्युं भावि ॥६६॥ काया मि लाली पाली भली परि संभाली । अवसर आवि अरथ न आवी प्रीति करी विसराली ॥६७॥ वेदनी कर्म उदय जो आवि तो राखी न सकि कोइ । तिम महाराय अनाथीनी परि हीइ विमासी जोइ ॥६८॥ ए कोई माहरि अर्थि न आव्यो तव ते धर्म संभारि । जुहार मित्र इणि अवसरि आवी सघली पीड निवारि ॥६९॥ साचो ए अधिकार सुणीनइ तव हीयासुं जागु । जुहार मित्रस्युं प्रेम धरी नि तेहने चरणे लागु ॥७०॥ वडतपगछ मंडण विरागी श्रीदेवसुंदरसूरि । विजयसुंदरसूरि तास पटोधर वंदु आणंद पूरि ७१॥ सकल मनोरथ संघना पूरवि पंडितभानुमेर प्रधान । वडतपगछमंडणवइरागी हुया सुगुणनिधान ॥७२॥ तास सीस नयसुंदर वाचक सीख दीइ अति सारी । आपणा जीव प्रति हितकारी पाप संताप निवारी ॥७३॥ ए आतम प्रतिबोध अनोपम जे भणसि नर नारी । सांभलसि वली तस सुखकारी ते सही तुच्छ संसारी ॥७४॥ ॥ इति ३-मित्रोपनय-सज्झायः ॥श्रीः॥ ★★★ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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