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मोहरित सच्चवयंणस्स पलिमथ ( ठाणंगमुत्त, ४२९)
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेती पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्दसूरि
REPS
२४
S
श्री हेमचन्द्राचार्य
SURANCISE
कललिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी - स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
2003
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू( ठाणंगसुत्त,५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
२४
संपादक
विजयशीलचन्द्रसूरि
-DOE
Co
-OF
NAVI
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद जून, २००३
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अनुसंधान २४
आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
संपर्क :
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद-३८०००७
प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
मूल्य : Rs. 50-00
मुद्रक :
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन : ०७९-७४९४३९३)
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निवेदन
हमणां श्रीकृष्णनी पुरातन, समुद्रमां गरक थयेली द्वारकानी शोध, आपणा पुरातत्त्वविदो अद्यतन विज्ञाननां साधनो तथा माध्यमोनी सहायथी, करी रह्या छे. द्वारकाना अवशेषो शोधी काढवामां तेमने धारी सफलता पण मळी रही होवाना हेवाल वृत्तपत्रमां वांचवा मळतां कहे छे.
आ सन्दर्भमां, जैन परंपराने अनुसरता कृष्ण - कथानकमां अमुक उल्लेखो मळे छे, ते प्रत्ये ध्यान दोखुं छे. आ उल्लेखो रसप्रद छे. जैन कथा अनुसार, श्रीकृष्ण अने यादवो मथुरा-प्रदेश छोडीने सौराष्ट्रमां दरियाकांठे आव्या, अने ते भूमिमां वसवानो निश्चय कर्यो. तेथी स्वयं कृष्णे समुद्रदेव-नामे सुस्थित-ने उद्देशीने अट्ठम तप कर्यो, जेना प्रत्युत्तररूपे ते देव हाजर थतां अने कामकाज बताववानुं कहेतां श्रीकृष्ण आ प्रमाणे कह्युं :
“उवाच कृष्णः तं देवं या पूर्वं पूर्वशार्ङ्गिणाम् ।
पुत्र द्वारकेत्यासीत् पिहिता या त्वयाऽम्भसा ||३९७|| ममाऽपि हि निवासाय तस्याः स्थानं प्रकाशय ॥ "
(हेमचन्द्राचार्यरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते पर्व ८/५) अर्थात्, “कृष्णे कह्युं के पूर्वना वासुदेवोनी नगरी 'द्वारका' अहीं हती, जेने तमे तमारा जलमा ढांकी दीधी छे, ते मारा निवासार्थे पुनः प्रगट करो. "
कथानक प्रमाणे ते देवे इन्द्रनी मंजूरी मेळवीने ते प्रमाणे कर्तुं अने सोनानी द्वारका बनावी आपी. परन्तु आपणो मूळ मुद्दो समुद्रमां गरक थयेल द्वारकाने पुनः बहार आणवानो छे. शुं आ उल्लेखने ते समयना सामुद्रिक पुरा- अन्वेषणना नामे न ओळखी शकाय ?
आ कथाग्रन्थमां आगळ जतां एक बीजो उल्लेख पण मळे छे, जेमां द्वारका बळी गया बाद ते समुद्रमां गरक थई होवानो निर्देश छे. जुओ :
11
" षण्मास्येवं पुरी दग्धा प्लाविता चाऽब्धिना ततः ॥ ८ / ११ / १०६” अर्थात्, “द्वारका-दाह छ मास सुधी चालतो रह्यो, अने पछी ते समुद्रमां समाई गई. आजे थई रहेला पुरातात्त्विक शोधकार्यने संपूर्ण टेको आपे तेवो आ सन्दर्भ स्वयंस्पष्ट छे.
आपणे आशा सेवीए के आ शोधकार्य सुपेरे अने शीघ्र पूर्ण थाय, अने आपणी समक्ष रोमांचकारी तथ्यो उजागर थाय.
शी.
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अनुक्रम
१. आदिस्तवः । (ते धन्ना० स्तोत्र) सं. आ.प्रद्युम्नसूरि २. अठोतरसो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र . सं. मुनि भुवनचन्द्र ३. शंकर कवि प्रणीत विज(य)वल्लीरास ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
४. विविधकवि-विरचित-सज्झाय
श्लोकादि संग्रह
५. श्रीब्रह्म विरचित उपदेशकुशलकुलक ६. षट्प्राभृतमा दन्त्य नकारना प्रयोग ७. षट्प्राभृतमां विभक्तिरहित शब्दरूप
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ४१ सं. सा. दीप्तिप्रज्ञाश्री डॉ. शोभना आर. शाह डो. शोभना आर. शाह
८. पं. केसर-कृत स्तवन
सं. रसीला कडीआ
रसीला कडीआ
रसीला कडीया
९. कृष्ण बलभद्र गीत १०. चिन्तामणि पार्श्वनाथस्तवन ११. ट्रंक नोंध : युग भिन्नः कर्ता भिन्नः
कल्पना तुल्य : बे रसप्रद उदाहरणो १२. स्वाध्याय : श्रीमेरुतुङ्गसूरिना
'प्रबन्धचिन्तामणि'मां वर्णित केटलीक ध्यानपात्र बाबतो
शी.
१०६
१०९
१३. माहिती : नवां प्रकाशनो
१२०
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आदिस्तवः । (ते धन्ना० स्तोत्र)
सं. आ.प्रद्युम्नसूरि
वीस गाथा, प्राकृत भाषामां बद्ध आ स्तोत्र भाववाही छे. आ स्तोत्रनी पहेली गाथा संघमां खूब प्रचलित छे. आयुं स्तोत्र प्रायः आर्या छन्दमां छे. छेल्ली गाथानो छंद जुदो छे. कयो छे ! भायाणी साहेब होत तो तुर्त पूछीने जाणी शकात. तेमना पछी कोने पूछq ? ए छेल्ली गाथानो पूर्वार्ध क्यां पूरो थाय छे ? अने उत्तरार्ध क्यां शरु थाय छे ते जाणी शकायुं नथी. प्रत्येक गाथाना चोथा चरण रूपे ते धन्ना जेहिं दिठ्ठो सि ए पद १७ गाथामां आवे छे. मात्र त्रण गाथामां ए क्रम जळवायो नथी. वळी बधेज ए पद सार्थक जणाय छे.
श्री आदिनाथ भगवाननां जीवनना महत्त्वना ते ते प्रसंगोनी चित्रावलि ज अहीं आपी छे, अने ए प्रसंगनी वात लखीने जेणे ए जोयुं ते धन्य छे, आq वर्णन छे.
सातमी गाथा अने तेनो भाव खूब हृदयंगम छे. भगवान ऋषभदेव ज्यारे वनमा विहार करता हता त्यारे तेमना सुवर्ण वर्णना शरीरनी कनकमय कान्ति वडे वनराजिने रंगी देता हता. अने ए वनमां विचरतां मृगकुलोने धन्य छे, जेओए तेमने ए रीते विहरता जोया हता. रचना प्रासादिक अने प्रांजल छे. प्रवाह शरु थया पछी वाचक छेक सुधी काव्य रसनो अनुभव करे छे. रसने माणे छे.
आ स्तोत्र पगथीआना उपाश्रयना भंडारनी पोथीमां छे. मात्र बे पानानी पोथीमां कुल आवी नानी मोटी छ रचना छे. आ स्तोत्रना अंतमां आदिस्तवः एम लख्युं छे. एटले ए लखीने नवं ओळखy नाम कौंसमां मूक्युं छे.
-xबालत्तणिमि सामिय सुमेरुसिहरंमि कणयकलसेहिं । तिअसासुरेहिं न्हविओ ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥१॥
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अनुसंधान-२४ तिअसिंदकयविवाहो देवी सुमंगला सुनंदाए । नवकंकणो सि सामिअ ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥२॥ रायाभिसेयकाले विणीयनगरीइ तिअसलोगंमि । न्हविओ मिहुणनरेहिं ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥३॥ दाणं दाऊण पुणो, रज्जं चइऊण जगग्गुरू पढमो । निक्खमणमहिमकाले ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥४॥ सिबिअविमाणारूढो जइआ तं नाह दिक्खसमयंमि । पत्तो सिद्धत्थवणं ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥५|| काऊण य चउमुठ्ठि लोयं भयवं पि सक्कवयणेणं । वाससहस्सं विहरइ ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥६॥ रंजंतो वणराई कंचणवन्नेण नाह देहेण । धन्नाई मयकुलाइं ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥७॥ नमिविनमी रायाणो, तह पयपउमंमि नाहमल्लीणा । पत्ता वंछियरिद्धि ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥८॥ गयपुर सेयंसराइणो पढमदिन्नपारणए । इक्खुरसं विहरंतो ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥९॥ अध्धतेरसकोडीओ मुक्का सुरवरेहिं तुम्हे(टे)हिं । उक्कोसा वसुहारा ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥१०॥ छठ्ठठुमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं । उग्गं तवं तवंतो ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥११॥ लंबंतबाहुज्जु(जु)यलो निच्चलकाओ पसन्नचित्तमणो । धम्मज्झाणंमि ठिओ ते धन्ना जेहिं दिठ्ठोसि ॥१२॥ तह पुरिमतालनयरे नग्गोहदुमस्स संठिओ हिठ्ठा । केवलमहिमा गहिओ ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥१३॥
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पउमेसु ठविअचलणो बोहंतो भविअकमलसंडाई । सामिअ तच्चिअ धन्ना ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥१४॥ तिअसासुरमज्झगओ कंचणपीढंमि संठिओ नाह ! । धम्मं वागरमाणो ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥१५॥ ते धन्ना कयपुन्ना जेहिं जिणो वंदिओ तया काले । केवल(ल्ल?)नाणसमये वंदिज्जइ तिअसलोगेहिं |१६|| धन्नेहिं तुमं दीससि नविअ अहन्नेहिं अकयपुन्नेहिं । तुह दंसणरहियाणं निरत्थयं माणुसं जम्म ॥१७॥ मिच्छत्ततिमिरवामोहिअंमि जयनाह तिहुअणे सयले । उम्मीलीऊण नयणे ते धन्ना जेहिं दिठ्ठो सि ॥१८॥ अठ्ठावयंमि सेले चउदसभत्तेण मुक्खमणुपत्तो । दसहि सहस्सेहि समं ते धन्ना जेहिं दिछोसि ॥१९॥ इअचवण-जम्म-निक्खमण-नाण-निव्वाणकालसमयंमि । दढ-मूढ-अयाणेण भत्तिए
तं कुणसु नाभिनंदण, पुणो वि जिणसासणे बोही (हिं) ॥२०॥ (नोंध : २० मी गाथा पण आर्या छन्दमां ज जणाई छे. मात्र तेमां बे अडधियानी
वच्चे 'दढ मूढ अयाणेण भत्ति(त्ती)ए' एटलुं चरण अतिरिक्त छ; अने तेनो सन्दर्भ विचारतां एवं अनुमान थाय छे के एक आखी गाथा हजी आमां होवी जोईए. २०मी गाथाना पूर्वार्ध पछीनो उत्तरार्ध 'दढ मढ'थी शरु थतो होय, अने त्यार पछीनी गाथानो पूर्वार्ध (जे अहीं नथी) मळी आवे तो तेनी साथे 'तं कुणसु' थी आरंभातो उत्तरार्ध जोडवो जोईए, एवं अनुमान थाय छे. आ रंचनानी बीजी हस्तप्रतो शोधवी अने तेनी साथे वाचना मेळववापूर्वक सम्पादन थर्बु जरूरी लागे छे. शी.)
Co जितेन्द्र कापडिया
अजन्टा प्रिन्टरी १२बी लाभ कोम्प्लेक्स, नवजीवन, अमदावाद-३८००१४
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अठोतर सो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्र
सं. मुनि भुवनचन्द्र केटलांक वर्षों पूर्वे कोई एक भंडारना प्रकीर्ण पत्रमाथी उतावळे ऊतारी लीधेली आ कृति (ए ऊतारेली नकलना आधारे) अहीं प्रस्तुत करी छे. कविए रचनावर्ष आप्युं नथी, पण ए ज पानामां बीजां बे स्तवनो पछी"संवत् १७६० वर्षे आसू सुदि ७ दिने लपिनीता मुंदरा बंदर मध्ये" एटलुं मळे छे. रचयिता श्री सहजकीर्तिनी बार जेटली कृतिओ जै.गू.क.मां नोंधायेली छे. सं. १६६१मां एमणे सुदर्शन श्रेष्ठी रास रच्यो छे. प्रस्तुत स्तोत्र जेवा ज विषयनी अन्य कृति 'जेसलमेर चैत्यप्रवाडि' १६७९मां रचाई छे. प्रस्तुत कृति पण एमनी ज रचना होवानी पूरी संभावना छे.
आ स्तोत्रमा संगृहीत थयेला पार्श्वनाथ प्रभुना तीर्थस्थळो मोटा भागे आजे पण ए ज नामे प्रसिद्ध छे. चारसो वर्षमां आ नामो लोकजीभे बहु परिवर्तन नथी पाम्या ए जोई शकाय छे. सामान्य परिवर्तनो तरत पारखी शकाय एवा छे : महेव (मेवा नगर ?), ढिल्ली (दिल्ही) वगेरे. केटलांक नामो अजाण्यां लागे : छवटण, भोहंड, तिलधार, आसोप, मरोट वगेरे. प्राचीन तीर्थ भद्रेश्वरनुं नाम आमां नथी, परंतु 'कुकड़सर' नाम छे. भद्रेश्वरनी तद्दन नजीक आ नामनुं गाम आजे पण छे. आनो अर्थ ए के ते समये बहारना लोको आ तीर्थने ए नामे ओळखता हशे अने तीर्थनी आसपास वसेलुं गाम ते वखते कदाच नहि होय.
विमलगिरि अने पालीताणा बे नाम स्वतंत्र रूपे अलग गण्यां छे. पालीताणा गाममां पार्श्वनाथ प्रभु- मुख्य देरासर ते समये हशे. गिरनार अने जूनागढ पण अहीं अलग लीधा छे. राणपुर ए राणकपुर ज होवानी शक्यता छे. एक ठेकाणे कागळ खवाई जवाथी अक्षरो त्रुटित छे. पांचमी कडीमां बे ज पंक्ति छे, ए लिपिकारनी भूलने लीधे छे के कविए ज एम कर्यु छे ते नक्की करवा माटे आनी अन्य प्रतिओ जोवी पडे.
इतिहास, पुरातत्त्व अने भूगोळना अभ्यासी विद्वानोने आ कृति पूरक
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सामग्री लेखे उपयोगी थाय एवी छे. आ स्तोत्र अनुसार १०८ नाम आ प्रमाणे
जणाय छे :
शंखेश्वर
राधणपुर
हडली
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०. आसाउल
११. बीबीपुर
१२. मातर
१३.
१४.
१५.
१६.
१७. वडनगर
१८. विमलगिरि
१९. वेलाउल (वेरावळ)
२०.
गिरनार
२१. वीजापुर
२२. पालीताणा
२३.
२४. घोघा
पाटण
पंचासर
नारिंगपुर
. घाटण
ईडर
अहमदाबाद
खंभपुर (खंभात)
दीव
कंसारी
देवकुं पाटण
पालनपुर
२५. नवा नगर (जामनगर ? )
२६.
सेरीसा
२७. वीसलपुर
२८. सलखणपुर (शंखलपुर )
२९. धंधूका
३०.
३१.
३२. जूनो गढ
३३.
मेलगपुर
३४. झंझूवाडा
मोरवाडा
धवलक (धोळका )
देवगिरि
३५.
३६. हमीरपुर
३७. चोरवाड
३८. कलिकुंड
३९. मांडवगढ
४०. उज्जैणी
४१. अंतरीक्ष
४२. भोहुंड
४३. पुंज (मुंज) पुर
४४. तारापुर
४५. दसपुर
४६. रतलाम
४७. नागद्रह (नागदा )
४८. कान्तिपुर
४९. बघणोर
५०.
५१.
५२.
कप्पडहेडा
श्रीपुर
नवखंडा
5
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6
अमीझरा
चित्रकूट
५५.
नारदपुरी
५६. कुंभलमेर
५७. राणपुर
५८. वरकाणा
५९. गोहिल ( गोहिलवाड ?)
६०. सादडी
५३.
५४.
६१. नाडूल ६२. वींझेव
६३. शिवपुरी
६४. अर्बुदगिरि
६५. जीरापल्लि
६६. महेव (मेवानगर)
६७. जावालपुर
६८. भीणमाल
६९. गउडी (गोडी)
७०. पारक (र) (थरपारकर ?) ७१. जेसाण
७२. मंगलोर (मांगरोळ)
७३. नागपुर ७४. मरोट
७५. छ्वट्टण
७६. मुलतान ७७. फलवधिपुर
७८. मेडता
७९. घंघाणी
८०. तिमरीपुर
आसोप
अजमेर
८१.
८२.
८३. पाली
८४.
बीलाडा
८५. नीम्बाज
८६. जावरा
८७.
मथुरा
समेत (शिखर)
अहिछत्रा
८८.
८९.
९०. आगरा
९१. राजगृह
९२. जवणपुर
९३. हत्थिपुर
९४. अलवर
९५.
९६.
९७. रावण
९८. वाणारसी
९९. करहेड़ा
१००. तिलधार
१०१. मगसी
१०२. समेल (?)
गोपाचल
दिल्ली (दिल्ही)
अनुसंधान-२४
१०३. दहथली (देथळी?)
१०४. पोसीना
१०५. कुकडसर (भद्रेश्वर?) १०६. वडोदरा
१०७. चारूप
१०८. (?)
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बीबीपुर पछी 'चिन्तामणि' नाम छे, तेने स्वतंत्र स्थळ गणीए तो १०८ नाम पूरां थई रहे छे. केटलांक तीर्थस्थलोना पार्श्वनाथ प्रभुना बिंब आजे अन्य स्थळे बिराजमान होवानो संभव खरो. इतिहासविदो वधु प्रकाश पाडी शके.
ढाल: सासनदेवी य पाय पणमेवी य
ए देसी । पास संखेसर सकल राधणपुर गाम हडली प्रगट पाटणै ए ।
नगर पंचासरइ प्रवर नारिंगपुरइ आपए सु— घाट ए । ईडरें अहमदाबाद आसाउलै बीबीपुर चिंतामणी ए मातरैं खंभपुर दीव कंसारीइं देवकै पाटणै जगधणी ए ॥१॥
ढाल | वडनगर विमलगिरि वेलाउल गिरनार,
वीजापुर पालीतणै पास कुमार,
पालणपुर घोघै नवैनगर सेरीस,
वीसलपुर सलषणपुर सोहै जगदीस ||२||
-
ढाल । धंधूकै पुर लकै ( धवलकै ?) ए, देवगिरें सुप्रकास, जूनेंगढ मेलगपुरै ए झंझूवाडै पास,
मोरवाडि हम्मीरपुर - चोरवाडि कलिकुंड,
मांडवगढ उज्जैणीयै ए अंतरीक भोहुंड ||३||
ढाल । पुंज (मुंज ?) पुरें तारापुरइ ए, दसपुर रतलाम, नागद्रह कंतीपुरइ ए, बघणोर सुठाम, कप्पडहेडें श्रीपुरई ए, नवषंड अमीझर,
चित्रकूट नारदपुरी ए, श्री पास सुहंकर ||४||
ढाल । कूंभलमेरई राणपुरइ सदा,
श्री वरकाणै पास नमूं मुदा ।
( आ पछीनी २ पंक्ति प्रतिमां नथी)
7
१. बीबीपुर ते अमदावादनुं सरसपुर. तेमां शान्तिदास शेठे चिन्तामणि पार्श्वनाथनुं मन्दिर बांधेलुं तेनो आ उल्लेख छे.
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अनुसंधान-२४ चालि । श्री पास गोहिल सादडी पुर नाडूलैं वींझेव ए,
शिवपुरी अर्बुदगिरिइं जीरापल्लिनगर महेव ए, जावालपुर भीणमाल गउडी पारक[र?] जेसाण ए,
मंगलोर नागपुरे मरोटै छवट्टण मुलताण ए।।५।। ढाल । गोडी । श्री फलवधिपुर जोधपुर,
मेडतें घंघाणी तिमरीपुरइ ए । · आसोपइ अजमेर पाली,
बीला. नींबाजै जाव” ए ॥६ ढाल । मथुर समेत अहिछत्तपुर आगरइ,
राजगृह जवणपुर हत्थिपुर अलवर[इ], नयर गोपाचलै ढिल्लीइ रावणे,
पास वाणारसी वंदीइ इकमणे ॥७॥ ढाल । करहेडै तिलधारइ ए, मगसी दुक्ख निवारइ ए,
तारइ ए पास समेलइ दहथली ए, पोसीने कुकडसरै पास सदा सानिध करै,
वडोदरै चारूपै आसा फली ए ॥८॥ ढाल । इय अठोतर सो सुभ ठामें,
जपतां पास जिणेसर नामें, . पामें ऋद्धि वृद्धि सुभ वास,
सहजकीरति सुखलील विलास ॥९॥
इति श्री अठोतर सो नामें पार्श्वनाथ स्तोत्रम् । (पत्रना अंते- संवत् १७६० वर्षे आसू सुदि ७ दिने लपिक्रीता मुंदरा बंदर मध्ये ।)
जैन देरासर नानी खाखर-३७०४३५
जि. कच्छ, गुजरात * * *
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शंकर कवि प्रणीत विज(य)वल्लीरास ॥
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
तपगच्छपति श्रीहीरविजयसूरिना नाममां आवता 'विजय' शब्दने प्राधान्य आपीने, तेमना गुणगानरूपे रचायेल आ रास-रचना छे. वि.सं. १६५१मां 'शंकर' नामना कविए आ रास रच्यो होवानुं तेनी अन्तिम ढाळ परथी जाणी शकाय छे.
__ आ रासनो उपयोग, मुनि विद्याविजयजीए, 'सूरीश्वर अने सम्राट' नामक प्रमाणभूत अने ऐतिहासिक ग्रन्थना निर्माणमां को हतो. परन्तु आ रास अद्यावधि प्रगट थयो नथी; तेनी प्रतिओ पण मळती नथी; अने हीरविजयसूरिने विषय बनावीने थयेली रचनाओनी प्रसिद्ध थयेली यादीओमां पण आनो उल्लेख नथी. 'सूरीश्वर अने सम्राट' मां अलबत्त, आनो सन्दर्भ सांपडी रहे छे.
आ रासना रचयिता मुनि छे के गृहस्थ, ते जाणी शकातुं नथी. आ रासनी पंदरमी ढालनी छठ्ठी कडीमां "तपागछ पंडित गिरूआ सीसि वेली विजयसू गाई रे" एवो निर्देश छे, ते परथी 'शंकर' नामना मुनिनी आ रचना होय तेवी छाप पडे खरी. अने पोताना गुरुनुं नाम नथी लख्यु, तेथी कवि साक्षात् हीरविजयसूरिना शिष्य होवानी अटकळ पण करी शकाय. पण स्पष्ट प्रमाणनी गरज तो रहेज छे.
आ रासनी प्रति कया भण्डारनी छे, तथा तेनी जेरोक्स नकल कोणे मोकली हती, ते बधुं अत्यारे तो विस्मृतप्राय छे. वर्षोथी आ प्रतिलिपि मारी पासे पडी छे. आर्छ आर्छ याद आवे छे के शिवपुरी (म.प्र.)ना ग्रन्थसंग्रहमां आ प्रति होय अने त्यांथी तेनी नकल श्री काशीनाथ सराक द्वारा मळी होवी जोईए. अन्य कोई भण्डारमा आ रचनानी प्रति होवानुं जाणवामां नथी.
कवि ऋषभदासे सं. १६८५मां 'हीरविजयसूरिरास'नी रचना करी. ते एक सुदीर्घ अने सुग्रथित रचना छे. परंतु, प्रस्तुत विजयवल्ली रास साथे तेने मेळवीए, त्यारे तरत जणाई आवे के कवि ऋषभदासे आ विजयवल्ली रासना
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अनुसंधान-२४ माळखाने आदर्श बनावीने पोतानी रासरचना करी होवी जोईए. विजयवल्ली रासमां जे समग्र वृत्तान्त साव संक्षेपमां, जे क्रमे वर्णवेल छे, ते ज लगभग क्रमे ते बधो वृत्तान्त पूरा विस्तारथी ऋषभदासे वर्णव्यो छे.
विजयवल्ली रासनी प्रति १२ पानांनी छे. तेमां पत्र त्रीजुं नथी. पत्र रमां बीजी ढालनी ७मी कडी अधूरी छे, अने पत्र ४ मां १४मी कडी जोवा मळे छे. एम लागे छे के पत्र २ मांनी ढाल ते बीजी ढाल न होतां प्रथम ढालनो ज बीजो विभाग हशे, अने ते पूर्ण थया बाद ढाल २ना दूहा तथा १४ कडीओ ते पत्रमा समाविष्ट हशे. ३जा पत्रनी त्रुटिने कारणे वर्णनमां मोटो गाळो पडी जाय छे. हीरजी पोताना मातापिताने दीक्षा माटे सम्मत करवानो यत्न करे छे ते वातथी तूटतुं वर्णन, मातापिता, मृत्यु, पाटण-गमन, बेननी सम्मतिपूर्वक दीक्षाग्रहण, ज्ञानार्जन, पदप्राप्ति, गुरुवियोग- आ तमाम प्रसंगोविहोणुं थतुं थतुं, पत्र ४मां अकबरना आमंत्रणना अनुसन्धाने विहार करी अमदावाद आव्याना वर्णनथी पार्छ संधायुं छे.
__ प्रथम रणसिंह द्वारा थयेल ओशवाल-वंशनी स्थापनानी वात आलेखीने कवि हीरगुरुनी ४२ पेढीनां नामो वर्णवे छे. 'हीररास' मां पण ११मी ढालमां आ ४२ पेढीनुं नाम-वर्णन छे. त्यां ४२ मां एक नाम ओछु होवानु अथवा जडतुं न होवा- तेना संपादकश्रीने जणायुं छे. अहीं प्रथम ढालनी नवमी कडीमां 'धाम ए गुण केरु गुणराज सोए' - ए पंक्तिमा आवतुं 'गुणराज' नाम, ते खूटतुं नाम होवानो संभव छे..
घणी ढालोमां एक ढाले बे गीत जोवा मळे छे, ते आ रासनी विशेषता छे. ते अनुसार पहेली ढालना बीजा गीतमां हीरजीनो तेना मातिपिता साथेनो मीठो संवाद वर्णवातो देखाय छे. ते पछी तो गच्छपतिना रूपमा हीरगुरु देखा दे छे, अने दिल्ली भणी विहरतां अगाऊ 'विजयसेन' शिष्यने आचार्यपद अर्पवापूर्वक गच्छनी धुरा सोंपीने तेमनी विदाय ले छे, अने तेओ रडती आंखे विदाय आपे छे, तेनुं ट्रंकुं बयान थयुं छे.
___ढाल ३ना. द्वितीय भागमां गुरु आगरा पहोंचे छे त्यारे अकबरे तेना पुत्र द्वारा तेमनुं सामैयुं कराव्यानुं वर्णन छे. तो चोथी ढालमां, दूहा-विभागमां जैनेतर वादीओ साथे वाद करवाना आवतां ते करीने ते वादीओने हीर
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शिष्योए विजय मेळव्यानी वात थई छे. अने ते पछी ढाल-विभागमां हीरगुरुथी प्रसन्न थएल वादशाहे तेमना विषे जे प्रशंसात्मक बोल उच्चारेला, तेनुं स्वरूप विस्तारथी मळे छे. 'हीररास'मां आ ज वात ऋषभदासे (ढाल ६०-६१मां) आलेखी छे, ते वांचतां अत्युक्ति थई होवानी शंका जागती, पण हीरगुरुनी विद्यमानतामां ज रचायेली आ रचनामां पण ते ज वातो लगभग तेवा ज शब्दोमां जोवा मळी, त्यारे ते उक्तिओ यथातथ होवानी सहज प्रतीति थई.
ढाल ५मां विजयसेनसूरि आदिनी पाछा फरवानी विनंतिना पत्रोनी तथा बादशाहनी बेळे बेळे रजा लईने नीकळे छे त्यारे शाहनी विनंतिथी शान्तिचन्द्र वाचकनो हाथ स्वहस्ते शाहना हाथमां सोंपीने पछी विहार करे छे ते वर्णन छे.
ढाल ६मां हीरगुरुना दयामय सदुपदेशथी बादशाह अकबरे जीवदयानां जे जे कार्यो कर्यां हतां तेनुं बयान छे, अने ते अंगेनां शाही फरमानो खुद धनविजयगणि विहार करी करीने सर्वत्र पहोंचाडवापूर्वक तेनो अमल कराववानुं कार्य करे छे तेनी वात पण थई छे.
ढाल ७ मां गुरुना विहारनी, सीरोहीमा चोमासानी, तथा त्यां दयाप्रधान कार्यो कर्यांनी वात छे, उपरांत, वाचक कल्याणविजयजीने वैराट नगरे प्रतिष्ठा कराववा मोकल्या, त्यां ते प्रसंगे बे करोड द्रम्मनो सद्व्यय थयानी पण नोंध छे.
ढाल ८मां शत्रुजय-गिरनारनां तीर्थो शाहे हीरगुरुने भेट आप्याना उल्लेख साथे, राधनपुरे बिराजमान गुरु प्रत्ये विजयसेनसूरिने सत्वरे बादशाह पासे आववाना आमंत्रणनी सूचना छे. ८मी ढालना बीजा भागमां गुरुशिष्यनो हृदयद्रावक संवाद वांचतां एक बाजु वाचक गद्गदभाव अनुभवे छे, तो बीजी बाजु अहोभाव पण तेटलो ज जागे छे.
ढाल ९/१ मां बादशाहें विजयसेनसूरिने पूछेला सवालो छे, तो ९/ २ मां गुरु द्वारा अपायेला तेना जवाबो छे, ते बहु रसप्रद छे. ते पछी नन्दविजय पासे ८ अवधान करावीने प्रसन्न थयेलो शाह तेमने 'खुशफहम'नुं बिरुद आपे छे तेनी विगत छे.
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अनुसंधान-२४ ढाल १०मां गंगा अने सूर्य विना विवादनो निर्देश थयो छे. तो ढाल ११मां सेंकडो ग्राम-नगर-देशोना संघो शत्रुजयनी यात्राए आवे छे, अने जगद्गुरुना सांनिध्ये तीर्थयात्रा आराधे छे, तेनुं विस्तृत वर्णन छे. ढाल १२१३मां शत्रुजयना महिमानुं वर्णन थयुं छे. ढाल १४मां गुरुनी लागणीने अनुसरीने सर्व संघ विजयसेनसूरिने हवे गुजरात पधारवानी विनंतिनो पत्र पाठवे छे तेनुं सुन्दर वर्णन छे.
छेल्ली-पंदरमी ढालमा उपसंहार करतां कवि हीरगुरुना विशिष्ट उपाध्यायशिष्योनां नामो उल्लेख छे, अने प्रान्ते सं. १६५१ना वर्षे निजामपुरे आ 'विजयवेली'नी रचना करी होवानुं कवि शंकर सूचवे छे.
आदिनाथ तीर्थंकर माटे अनेकवार 'आदिल' शब्दनो प्रयोग अहीं थयो छे, ते रसप्रद छे. मुस्लिम-अरेबिक संस्कारना वातावरणमां ते समाजना लोकोने ओळख आपवा माटे आवो शब्द कोईए प्रयोज्यो हशे, जे आ रीते ग्रन्थस्थ थयो जणाय छे. तदुपरांत सुलतान, झडाल, नेजा, असमान, रेसम, हुर, वगेरे मुसलमानी शब्दोनो कविए सुखद प्रयोग को छे.
व्यवध, व्यकट, ध्यन-आवा बधा प्रयोगो ऋषभदासनी रचनाओमांना तेवा घणा प्रयोगो, स्मरण करावे छे, अने ते समयनी बोलचालनी भाषा प्रत्ये लक्ष्य खेंचे छे.
प्रति अशुद्ध छे. घणा शब्दो त्रुटक छे, कां स्पष्ट समजाता नथी. ते कारणे अर्थ समजवामां जरा काठिन्य अनुभवाय तेम छे. परभाषाना शब्दोनो प्रचुर प्रयोग छे, ते शब्दो बेसाडवानी पण समस्या खरीज. आ बधुं छतां, आज लगी अप्रगट रहेली एक महत्त्वपूर्ण अने ऐतिहासिक कृतिनुं सम्पादन यथामति करवानो मोको मळ्यो तेनो परितोष छे. साथे, सुज्ञ जनोने प्रार्थना छे के आ रासनी हस्तप्रति क्यायथी पण जडी जाय तो ते पाठववा कृपा करवी. जेथी आनुं पुनः संशोधन थई शके.
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श्रीविजवल्लीरास ॥ श्री सारदायै नमः ॥
दूहा ॥ आदिलप्रमुख श्रीजिनवरा, तास चरणि धरी मन्न । पुंडरीक थइ गणधरा, चौदसया बावन्न ॥१॥ गिरुआ चरणकमल नमी, सरसति दिउ आधार । श्री हीरविजयसूरी प्रगट, गाउं जग साधार ।।२।। वीरपाटि-उदयाचलि, उइदयु अविचल भाण । शाह अकब्बर विकट नृप, प्रतिबोध्यु सुरताण ॥३॥ बिरुद धरीयुं जगत्रगुर, महीतलि शाह टाली मारि । हीरा परि श्रीहीरजी, झगइ सकल संसारि ॥४॥ तास तणा च्यालीस उर, दोइ अधिक अभिराम । विमल वंश-परीआतणां, बोलुं व्यवरी नाम ||५|| संवत पांच दाहोतरि, श्रीनन्नसूरि प्रतिबोध । खीमाणंदी गोत्र जस, राठुडां वर जोध ॥६॥ गयवर हव्य(य)वर रथ सबल-पायक देश विशाल । प्रथम धर्मधोरी हुओ, श्रीरणसिंह भूपाल ||७||
ओश वंशनी थापना, थापी अरडक्कमल्ल । पुण्यपूरपूरी नदी, महीतलि चाली भल्ल ॥८॥
राग-सामेरी ॥ देवराज सुत तस वर, रिद्धि रूप सोहइ अमर
___ तस घर अभयचंद अंगज भणूं ए ॥१॥ तस सुत सोहइ नानसी, कीरति दीपइ भाणसी
जाणसी करणु करणी बहू करि ए ॥२॥
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अनुसंधान-२४ तास पुत्र जेसंग मुणिउ, दोषे सोई अवगुणिउ ।
मई सुण्यु तेजु पुत्र ते तास तु ए ॥३॥ तस सुत लींबु सांभल्यु, अमृत पाहि सो गलिउ
नवि छल्यु राजु पुत्र तेहनु ए ॥४|| तास तणु सुत मांडण, ऐ तु (खैतु) सब दुख छांडण
हांडण कीरति जगमां तेहनी ए ॥५॥ समरु सुत वली तास तु, पाप न आवइ आसतु
जास तु प्रबल पूत्र ऊजल सदा ए ॥६॥ रामु अंगज तास ए, दीठइ पुहुचइ आस ए
भास ए मेघु मयगलनी परिइंए ॥७॥ राल्हण पुत्र सु सुंदरु ए, अभिनव भा(ला)गे पुरंदरू
सुरतरु सहिजु सुत सोहइ भलु ए ॥८॥ नानु निरूपम नाम ए, सोनु सो अभिराम ए
धाम ए गुण केरु गुणराज सो ए ॥९॥ कमसिंह करमी भणु, डाहाना केम गुण गणुं
अतिघणुं तोलानुं सुंदरपणुं ए ॥१०॥ मतिवंता महिराज ए, सिंधु सारइ काज ए
छज ए देवचंद तस अंगजूए ॥११॥ राजधराभिध जाण ए, गांजण विमल विनाण ए
सुजाण ए आसपाल अविनीतलि ए ॥१२॥ रंगु रतिपति रूप ए, साजन मानइ भूप ए
अनूप ए राहलु अभिनव तर्या ए ॥१३॥ सामल सहिजि सुहाकरू, सगरू सोहइ मनहरु
___ जगवरु जोमा जोड नहीं जगिइं ए ॥१४॥ आसग अनुपम सांभली, दीठइ देवसीइ रली
मनि टली आरति वाहड देखतां ए ॥१५।।
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दामु दुरीअ विणासीअ, देवि दान उदासीअ
आसीआतह (तेह ? ) तणी हुं सी भणु ए ||१६|| कुंरु कुमति विणासीअ, महीतलि जेणि विभासीअ जेणइ पुण्य सुवेलडी ए ॥१७॥
तास पीआ गुणपूरीअ, अवगुण कीधा दूरीअ
सूरीअ नाथी सीहणि सारिखी ए ॥१८॥ सूर सुपन पामी तदा, सेजिइं सूतां एकदा
सा मुदा पति पासइ आवी वदइ ए ॥१९॥ कूरिग भणइ सुजाण ए, पुत्र हसि जगि भाण ए
आण ए त्रिभुवन जेहनी चालसि ए ||२०| अवधि संपूरण तव भई, जनमिउ पुत बहु गुणमई
जगि थई कीरति रतिनइ आपती ए ॥२१॥ नाम धरिउं तस हीरु ए, सो सब जगनु हीरु ए
वीरु ए लाख चुरासी जीवनुं ए ॥ २२ ॥ पूरव प्रीआ अजूआलीअ, रणसिंह लगि विशालीअ
पालीअ पुण्यनीक तरु सीचवा ए ||२३|| लहूअलगि वइरागीअ, अथिर संसारनुं त्यागीअ
वइरागीअ हीरजी रागी धर्मनुं ए ||२४|| वरस आठ दोई भरि, चारित्रस्युं मन अणुसरि
आदरि वचन भणे पितु मातस्युं ए ॥ २५ ॥ राग गुडी ॥ दूहा ॥
ए गुणी पंडित हूंउ हवि, तम्हे धरु घरभार । पाणिग्रहण तुम मेलीइ, उछव करी उदार ॥ १ ॥
वलतुं वी (ही) र वचन भणि, मातपिता सुणि वाणि । न न परणुं व्यापार न न करु सु ताणो ताण || २ ||
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हुं न न राचुं एणि जगि, मात तात सही जाणि । हीरु हीरा वुहुरसि श्रीविजयदान मणिखाणि || ३ || सेठि सधरमी थइ करूं, वुहुरं (रुं) धर्म क्रयाण । श्रीविजयदानसूरिंदनी, मानुं नित प्रति आण || ४ ||
ढाल ॥
इम कां बोलु बोल
मातपिता कहि हीरजी रे, हैअडइ गाढिम कां ग्रही, इंम स्युं हुआ निटोलो रे चरण ( चारित्र) चितई वस्यु ॥१॥ करहु न केलिकल्लोलो, लछी विलसु रंगरोलो रे चारि० ॥१॥
'नवि जाण्यु संसारनु, लीलां लहरी भोग
बालपणइ वयरागस्यु रे, आदर कां मांडिउ तमे योगो रे || चा०२ ॥
अनुसंधान - २४
हीर कहि सुणि मातजी रे, वृद्धपणानी आस घडीइ घूंट भराइसि, चितमांहि घणुंअ उदासो रे ॥ चा० ३||
हीर कहि सुणिपूरवइ, ऋषि थावडुसु जोइ
गयसकुमाल नारी तजी, अममत्तु तप सोइ ॥ चा० ४||
मेघकुमर नारी तिजी, छांडी राजनु भार
षीधरणि(?वीरतणी ?) सेवा धरी, भवनु पामिउ तेणे पारो रे || चा०५ ॥
अवंतीकुंअर अलवेसरू, छांडी आठइ नारि
नलिनीगुलम चिंतन करी, तरीउ एणइ संसारि रे || चा०६ ||
ढंढण बालऋष (षी) सरू, धन्नु शालिभद्र ते दोइ ऋद्धिरमणि छंडी करी
( पत्र ३ नथी; खंडित प्रति)......
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कीजइ भासन ॥ १४॥
च्यारि खंड साहिब सुलतानां, अकबर इतना देत हि मानां । नु गुरकुं दीजइ आदेसा, चिले बुलावन सुंदर वेसा ॥१५॥
श्रीगुरु अमदावादि सु आवइ, खान मलिक सामहिणे यावइ । सब वृतंत कहि तब खानां, तुम परि खुसी भए सुलतानां ॥ १६ ॥ सोना रूपा वाहन दीजि, हीर कहत हम नजरि न दीजइ । पाउ चिलत - इ हेंडे ज्याणा, पंचग्रास मांगी करि खाणा ॥१७॥ खान मलिक खोजा वड मीरा, यु नीरागी सांचा पीरा । युं तारे मई सोहइ चंदा, तिउं बन्यु हीरविजयसूरिंदा ॥१८॥ संघ सयल मलीआ संसारी, चिलत हीरगुरु चरणविहारी । श्रीविजयसेनसूरीसर तेडा, तुं तपगछका तारण बेडा ॥१९॥
गणधी (धा?)री धर लीजइ सब म ( अ ? ) ब भार तुमही सिर दीजइ सजल नयन शर नामइ पाया तुम जय लद्धयो तपगच्छराय शंकर कहत बोल लवलेसा, हीर सूर उदय बहुदेसा ॥२०॥ ढाल ३ ॥ राग असाउरी ॥
दूहा ॥
देस विदेस विहारता, मारगि उछ्व रंग । ते कवीअण किम वर्णवइ, पंडित पोढा संग ॥१॥
श्रीवाचक उर चि- ध गणि, मुनिजन वादी साथ । उद्धत प्रतिवादी गजां, केसरि परि दि बाथ ॥२॥
शहर शरोमणि आगरि, पुहुता उछव कोडि । थानसिंह हय गय दीउं, लुंछन करि करजोडि ॥३॥
कोडिगमे सोव्रण्ण धण, विलसइ संघ सुजाण । आयु त्रिभुवनतिलक गुरु, सव गच्छपति सुरताण ||४||
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अनुसंधान-२४ ___ ढाल कडखानी ॥ असाउरी ॥ सखी देखीइ जैन सुलतान आयु, भविकजन कोडि आनंद पायु मुनिपती नरपती गुणीअ सुंदरमती, त्रिभोवनि हीरजी हर्षे गा[यु] ॥स० १॥ गाजता गयवरा हींसता रयवरा, नरवरा सुरवरा खेचरा सोहइ । पालखी डोल चकडोल सुखआसनां -सनांरूप थई जगत्र मोहइ ॥२॥ शाह अकबर सबरसेन स्युं सामही याउ कहि पुत्र वड शाह काजे । -करीअ तसलीम सेपूजी गुर लेनकुं, आवहि साइ(ह) चक्रवर्ति दिवाजइ ॥३|| . बहुल नीसाणकी वाणि घूम्मइ सही, गहगही सपत वाजित्र वाजइ । व्यवध नफेरीआं मदन वड भेरीआं, नेरीआं शब्द असमान गाजइ ॥४॥ ताल कंसाल रणकाल(र?) मन मोहतां, राग के अंग मीरदंग जोडी । याचका व्यवध गुणगंज मन रंजस्यु, भणइ सो यूथ मिलि लक्ष कोडी ॥५॥ छत्रचामर झगइ पानसोविन भगि, लगि असमान झंडाल नेजा । कामिनी सीस लीइ कलश सोविनतणा, झलहलि सोइ त्रिभुवन्न तेजा ॥६॥ धरणितल-फ(पु?)शंकला(ल)नेउर जरजरी, रेसमा हुर भाती विछायु । क्हत शंकर सदा कोडि मंगल मुदा, धर्मदा हीरसूरिंद पायु ।।७।।
ढाल ४ | राग गुडी ॥ दूहा ॥ शुभदिन जाई गच्छपती, श्रीअकबर प्रति धर्म । आसीसा देई वदइ, पूछइ बहुला मर्म ॥१॥ गौड चौड कर्णाटना, कासमीर ग्वालेर । वादी पुर पइठाणना, गूजरउर आसे(र) ॥२॥ इम वादी विकट गोरख वडा मुकंद (?) व्यवध वाद जीतइ व्यकट शांतिचंद भाणचंद ॥३॥ सरसंधी को न - सकइ, मोड्या मान मरट्ट । वाचक ..... विबुधस्यूं, हीर लहि जयवट्ट ॥४॥
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श्रीविमलहर्षवाचक प्रमुख, श्रीसोमविजय उव झाय । तास तणा गुण देखि करि, दिल्लीपति चमकाय ॥५॥
ढाल ॥ दिल्लीपति पतशाह अकब्बर, बोलइ बोल विचारी हीरविजयसूरीसर देख्या, साचा परउपगारी बे ॥दि० १॥ योगी यंगम यती शन्यासी, सोफी शेष मुलाणा मंती तंती यंती बहुविध यंदा जोसा जाणा बे ॥२॥ बौध वेस दरवेस सु तालिम(?) यौ वैष्णव अनुरागी को लोभी को धर्म न बूझइ, सो मत कहु वइरागी बे ॥३॥ दंडधरा मठधारी नागा, कंथा कंठि चलावइ गोदडीआ उर कडी कापडी, सो मनि कबूअ न भावइ बे ॥४॥ भसम चढावइ जटा धरावइ, मौनी नाम सुणावइ पंच धरि जे अगनि व्वो(छो?)डावइ, परमारथकुं ध्यावइ बे ॥५॥ गिरी पुरी भारती कहावइ, ऊभा करि आहारा कीधी कपटी कूड चलावइ, सो किउं पामइ पारा बे ॥६॥ बोलुं बोलुं हक्क पुकारि, आप करि जीऊ मारि सो गुरु ग्यानी ग्यान दिखावइ, ऊभी पार ऊतारि बे ॥७॥ नारी भेष धरी जे नाचइ, अंगभंग दिखलावइ अयु प्रसाद जगदीश्वर केरा, मन भावइ सो खावइ बे ॥८॥ लाल गुलाल अबीरु छांटइ, दधि घमसाण मशचइ(?) कृष्ण उपर गोपिका बनावइ, अंगोअंगि लगावइ बे ॥९॥ घोडे हाथी मुहुर नगीना, दो दो तीन सु धारी बेटा बेटी व्याह चलावइ, लालुं के व्यापारी बे ॥१०॥
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अनुसंधान-२४ खइर महिर की वात न छूझइ, युं भावइ त्युं बोलइ बहुत करी मइ दिलकुं विच्यारा, हीर धर्म नही तोलइ बे ॥११॥ मइ फुरमान इउ फुरमाया, यो च्याही सो दीआ राउ विलतपइंडे किउं आ(?) सो जन कच्छूअ न लीआ ॥१२॥ हीर कहत पतिशाह-मुगामणि, हम योगी वइरागी खेल स्चीडोल(?)हयगय सुखासन उन तई हूए त्यागी बे ॥१३।। हम व्यवहारी वाणि पुत्र घरि मांगी खाणा खावइ रागी जमात (?)मा नही तनमइ वांकी वाट न पावइ बे ॥१४॥ पातशाह बहु वसु हेम धन पेसकसीमइ छोडं हीरबीजइसूरी कहि हजरत उनमइ कच्छूअ न लोडं बे ॥१५॥ मोती लाल पावि(मणि?) परवाले, देतइ कछूअ न लीना गाजीशाह कहि सब यूठे हीरा खरा नगीना बे ॥१६।। यो उसाफ सुण्या था तेरा सो मइंनय तुं देख्या पाकदिखें पूरा वइरागी उर न को जगि पेखा बे ॥१७॥ हदि अवंसा धरति छत्रपति यो च्याहीइ सो लीजि मांगू को दिन जीउ न मारि ता फुरमान सो दीजि बे ॥१८॥ पेस कीआ जही तुम मांग्या हीरविजइसूरि लेवइ शाह खिताब श्रीजगत्रगुर का पेमु करी तव देवइ बे ॥१९।। कोऊ मांगइ देस नवेरे दाम जरीना जोई हीरि उमरयना(?)वर मांगी उर न अइसा कोई बे ॥२०॥ शाह कहि हम ही थइ तेरे, च्यारि खंड मइ थाणां मई हुं गुणित देसका साहिब, तु त्रिभुवन सुलतानां बे ॥२१॥ सीस धरी फुरमान मेवडे, देस विदेसुं धावइ उहां के खान मलिक उंबरे सो शिर परिई चढावइ बे ॥२२॥
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त्रिभुवन भाण भुवनका दीवा, श्रीजिनशासन राया श्रीहीरविजयसूरीसर केरे शंकर प्रणमइ पाया बे ॥२३॥
ढा. ५ ॥ राग हुसेनी ॥
दूहा ॥ गूजर थइ कागल लखि, श्रीविजयसेनसूरिंद । वेगिई देसि पधारयो, मन-चकोरका चंद ॥१॥ लोचन तरसइ तातजी, दरसिन तेरे काजि । सूधुं नीरागुपणुं, देखाड्य मुझ आज ॥२॥ पाटण अमदावाद अरू, खंभायत धुरि मंडि । विवध अभिग्रह आदरि, के वि वगय छ छंडि ॥३॥ दिल्लीपति प्रति वीनती, करइ प्रयाणइ रेस । अकबरजी कहि जगत्रगुरु, तुम किउं याउ विदेस ॥४॥
ढाल ॥ अयारांदपुबे (?) हम हइ रागी यु वइरागी चिलनकुं चितवइ राहा। जगत्रगुर श्रीहीरविजय प्रति कहत अकबर साहा ॥१॥ अ० ॥ तुम हम हीके घणे जीऊ परि छोर्या मई किउं यावइ । बुजरक वार पाक दीदारा दिल मोरसुं भावइ ॥२॥ अरज एक हइ अवल उलीआ मुझ धोरी पटधारी श्रीविजयसेनसूरि सब मुनिस्युं लिखत हइ वारोवारी ॥३॥ शाह करि जु मोहि दरसकुं, जु भेजु हम पासुं । कुल होइ तु रुखसद देवइं, किउं करि होइ उधासुं ॥४|| वड वजीर तबतइ श्रीवाचक शांतिचंद हइ तेरा । सो तु मेरे पासहि छोडु तु दिल मानइ मेरा ॥५॥
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अनुसंधान-२४ भाणचंद खासो हइ पंडित मेरे दिल हुं सुहावइ । जगतगुरु थु, तेरे नमुने हम बगसीसुं पावइ ॥६॥ शांतिचंद वाचक सइ हाथिइं श्रीगुरु शाहकुं देवइं । दिल्लीपति सुलतान अकब्बर . . . . . . . . . ||७|| प्यार करी तब हुत परगने घोरे हाथी [न]जराना । उर कछू महि मांगु सो भी हम तुमहीकुं दीना ना ॥८॥
ढाल ६|| राग मारू ||
दूहा ॥ श्रीहीरविजयसूरि प्रतिइं श्री अकबर सुरताण । बहुत दिवसनइ अंतरि, आपि सीख प्रयाण ॥१॥ चतुर शरोमणि बुद्धिनिधि, अकबर-गुरपद जेह । शेष श्री अव्वलफजल शाह प्रतिइं कहि तेह ॥२॥ जब लग श्रीगुर हीर है, तब लग दिली अमारि । अरज करत हम जिहि रहि, तिहां काउं होवइ मारि ॥३॥ श्रीहीरविजयसूरिंद प्रति, जे जे दीधा बोल । शंकर कहि सोई वहुँ, सांभलतां रंगरोल ॥४॥
ढाल ॥ शाह अकब्बर गुर प्रतिइं करि ग्रही तव देवइ मान । जीव न मारुं तुमनई ना(ता?)के हो देवइ फुरमान ॥१॥ शा० ॥ प्रथम वार श्रीरवितणा, नसदिन हो न न कहिणा मारि । गौ-गोवछा केरडा ताकुं हो ज(जा)णुं तुम आधार ॥२॥ शा०॥ वाघ वडे हइ सीगलीउ रची ते हो मोटे कलि हार । साऊषे न लुंहा न न बाहुं, हो यमुना मइ जार ॥३॥
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वड सरवर मछीआं भरे, ता मइ हो न न मेहलुं डोर । बहिरी बाज न छाडिहुं न न पाडं हो बनमांहि सोर ॥४॥ मृग न मारुं नासता वनचरा सांबर अरु हो रोझ । कारशकार तणा करुं न धरूं हो ए पशुअनका गोझ ॥५॥ जनमदिवस अकबरतणा आपि हो खेलइ नवरोज । तस दिन कोऊ न जीऊ मरि मेवडे सो लेसो लेवइ षोज ॥६॥ श्रीअकबरसुत तीनके जनमके दिन सोइ अमारि । पजूसण दुमणे पलइं, अट्ठाई ती तुं संभारि ॥७॥ ईद परव पतिशाहकु, शाहकी हइ जे चांदराति । वरसगांठि शरकारमइ जोतम(?) दिनु नही जीउ का घात ॥८॥ बंद छोडाए बहु दुनी जीउ थइ न न मारुं चोर । तुम दरिशन पातक टरे जे जे हो मइ कीए अघोर ॥९॥ अयुं अब केते दिन ही एसो कहत हो किम आवइ पार । उमर वधारि हीरजी, सब पंखी पशुअन आधार ॥१०॥ दयाधर्मध्यारी हूआ छत्रपति श्री साह जलाल । दीन दुनीका पातशा उछव हो करि मंगलमाल ॥११॥ मेरी आज्ञा जब लगि, तब लगि हइ तेरी आण । अइसी करि वलामणीउ, उज्जका(?) निजहत्थि फुरमान ॥१२॥ आप मस्यारे (?) मेवडे, श्रीगुरुको सो सेवइ पाये । कहि शंकर गूज्जरप्रति, आवइ हो श्रीतपगच्छराय ॥१३॥
___ राग केदारु ॥
दूहा ॥ धन्यविजय धेन(धन) धन्य सो, महीतलि रक्खी माम (?) । जंघाचारणनी परिइं करइ हीरनां काम ॥१॥
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अनुसंधान-२४ धन्य हीर अकबर सुधिन, धन्नविजय धन धन्न । हेम रत्न कुंदणपरिइं वणि मिल्यां एक मन ॥२॥ त्रिभुवन हिंसा वारवा, सेनानी समत्थ । धन्नविजय पंडित शिरिइं, साचा जगगुर हत्थ ॥३।। श्रीशांतिचंद्रवाचक प्रतिइं, थापी छत्रपति पासि । उद्भुत गुतबव(?) पुण्यघट, विचरइ मन उल्लास ॥४॥ श्रीजिनशासनसुलतानजी, आवइ जेम सुलतान । महीतलि आण मनावतु, त्रिभुवन लहितु मान ॥५॥ सारुं बध किउं बनि सकुं, मेरे मुखि एक जीह । हीर हीर - वर जपि, सुजसचंद कीअ लीह ||६|| आनंदिउ संसार सब, पशुपंखिनि कुलकोडि । असपति नरपति गजपती, सीस नमि कर जोडि ॥७॥
ढाल ॥ मारु॥
आविइ हीर धर्मविणजारा, सब पुन्य वस्तु नही पारा । सई सबल वृषभ मुनि धोरी, धरि सबल भार रीस बोरी ॥१॥ गुरगुणके छतीस कृयाणे, सो सबहि समेटी आणो । जे आंग उपांग के जोडे, सो धरहि भार नही थोडे ॥२॥ गुरवाणिसु साकर सारा, बनावइ गिहुं परि फारा । गुण गूणीमई न न मावइ, सो परमारथकुं ध्यावइ ॥३॥ वर वाचक हाथी डोडे, मुनि सबल सेन नही घोडे । जिनआण-समीआणे डेरे, जिणि पाप वेरै सब थेरे ॥४॥ नव चा(वा?)डि फिराई वालइ, इयुं देसविदेस स्युं चालइ । तहां सुजसवाज बहु वाजइ, शोभा धजती(नी?) परि छाजइ ॥५॥
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तस नायक नवल निरंदा, श्रीहीरविजयसूरिंदा ।
सौ वेचइ धर्मक्रयाणा, ताथइ नायक लाभ सुजाणा ||६||
वसलाभ प्रगुट जगि जाणइ, तेहनि शंकर वलीअ वखाणि । नागर पवित्र सुकीना, तीहां आवइ हीर नगीना ||७||
सो वात वइराटि सु जाणी, सा. इंद्रराज गुणखाणी । सो करहि विमल प्रासादा, वडा शिखरबंध गिरिवादा ॥८॥
गुर आइ प्रतिष्टा कीजइ, हम लछिका लाहा लीजइ । हम लिख लेख शिरनामी, पाउधारु जगत्रगुरु स्वामी ||९||
तव पासइ वाचकइंदा, श्रीकल्याणविजय मुनिचंदा | वइराटि प्रासाद उतंगा, जाइ करु प्रतिष्टा रंगा ॥१०॥
गुरवचन सु सीस चढावइ, वाचक वइराटि आवइ । तब करि नगर श्रृंगारा, सो वरसई हेमकी धारा ॥ ११ ॥
दोइ कोडि द्राम सुविलासा, इम वाचक बहु जस पावि,
इंद्रराजकी पुहुचइ आसा । कल्याणविजय मनि भावइ ॥१२॥ श्रीहीरकुं उपम दीजि ।
नित काज वडे इम कीजइ,
सीरोही टांडा आवइ, चुमास चतुर तिहां छा (था) वइ ॥१३॥
कितु देख्या सुन्यान जाण्या, सो वेचइ धर्मकयाणा |
वडा राय खित्रीआं राणा, प्रतिबोधइ शवर ( सरव? ) सुजाणा ॥ १४॥
इम पाटण अमदावादा, खंभायतका जगि नादा । खान आय मल्या बहु बंदा, नवा न का करि आक्रंदा (?) ||१५||
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सो हीरजी बंद छोडावइ, निज देस गाम घर पावइ ।
तस संघ पुण्यफल लेवइ,
श्रीहीरकुं लाभ सुदेव ||१६||
पातसाह सनाषत चारा (?)
ष वडा धर्मविणजारा ।
इस पासि वडे फुरमानां, सब जीवकुं अभयादानां ॥१७॥
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अनुसंधान-२४ शंकर तस प्रणमइ हेजिई, श्रीहीर तपइ तपतेजिइं । गिरुइ कीआ ध—मु गाला, वसुधा भई मंगलमाला ॥१८॥
ढाल ८|| सामेरी ॥
दूहा ॥ शांतचंद वाचक प्रतिइं, कहत अकब्बर शाह । श्रीविजयसेनसूरिंद किउं नाया कहत उछाह ॥१॥ तुम याई ए वथुउ (?)- हीर पेस क्या लेउ । वाचक कहि श्रीशाहजी, विमलाचल गिरि देउ ॥२॥ सेत्तुंज सयल मुकी तमु (?) तुम ही दीया गिरनार । श्रीहीरविजयसूरि पेस कीय, दीइ फुरमान उदार ॥३|| ढूंबा जेउर जाजीआ, अकर करि जे कोइ । सूली फांसा टालया, भुमथी(?)छंडे सोइ ॥४॥ भाणचंद उवझायका, वेगिइं देयो वास । हुआ पहुचाई हीरकुं कुछ्य मांगतहु हम पासि ॥५॥ आदमुं मोकलाय करि, वाचक गूजर देसि । आवइ बहु उछवसहित, विजय बुलाव नरेस ॥६॥ हीर पाय प्रणमी करी, महीतलि सो फुरमान । सेत्तुंजगिरि मुगतु सदा, सब जीवकुं अभयादान ॥७॥ रायधनपुरवरमांहि तव, श्रीगुर अछिचुमासि । श्रीविजयसेनसूरि तेडवा, वड मेवडा उल्लासि ॥८॥ आइ कहि श्रीजगत्रगुर, तुमे संभारु बोल । श्रीविजयसेनसूरिंदकुं भेजें उहि रंगरोल ॥९॥
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राग मल्हार सामेरी ॥ श्रीविजयसेनसूरि कहि, जगगुर प्रति कर जोडि ललनां । अब कहिणा यूगता नही, हम शिर तुम कर छोरि ललनां वि. १॥ क्हत हीर मुनिहंसकुं तुम कब न रहे दूरि ।। 'जाउ' कहुं किम आ मुखिइं, हृदय प्रेम जल पूरि ललनां ॥२॥ मेरे बालवइरागी लाडिले तपगच्छध(धु?)र धोरी धीर ललनां । कहां लाहुर गूजर कहां किउं याउगे वीर ललनां ॥३॥ तुम प्रतापि जिहां तीहां दिन दिन हुइ रंगरोल ललनां । माहि(टि?) आदेस दीउ गुरजी 'मनकापड के वो (बो)ल (?) ललनां ॥४॥ सीख मागि गुर केरीआं महीतलि दिली अवाज ललनां । विजयसेन-शाहा मिलनकी, संघ करि सब साज ललनां ॥५॥ साथि लीए बहु मेवडे, मुनिजन वादी संग ललनां । सा मंडाण जु देखही सबजन होवइ रंग ललनां ॥६॥ हीरविजयसूरि पाए नमी, तेहस्युं मांगइ सीख ल. । मो शिर पणि (एणि?) धरु गुरजी, जिम धरी देतई दीख ललनां ॥७॥ तीन प्रदक्षण देवही, तुम पय मोहि आधार ललनां । वृद्ध भाव वहइ तुमतणा, तुम तन करणी सार ललनां ॥८॥ अंदेसा मनि मत करु झूकी(?)सीस विदेस ललनां । तुम हृदयां भीतर धरूं, हीर सुमंत नरेस ललनां ॥९॥ तुम मेरे माता पिता, तुम मेरे सुलतान ललनां । वेगिइं चरण दिखावयो, तीन भुवन के भाण ललनां ॥१०॥ अनुक्रमि देप(स?) अजूआलता लाहुरि नयरि पहूत ललनां ।
उच्छ्व हुइ अनेकधा शंकर कहत बहूत ललनां ॥११॥ १. 'मत काएड(र)के बोल ललनां' (?) ।
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ढाल ९ ॥ राग केदारु ॥
दूहा ॥
श्रीअकबर पतिशाह प्रति, भाणचंद मुनिचंद | वीनती सामही आतणी करि सुमंगल - कंद ||१||
सब वाजित्र पतिशाहकु, हय गय रथ असवार । संघ मल्या अतिसामटा, सो गणत न आवई पार ||२||
उत्तम दिन संजोइ करि, मिलिसु मन उच्छाह । देखी दिल भींतरि खुसी, इस गुणका नही ठाह ||३|| शाह परीक्षा कारणि, विविध बोल पूछंति । तस उत्तर सुलतान प्रति, हरखिइं रंजन दिति ॥४॥
राग केदारु ॥
तुम पग्गचारी किउं आए हो जगगुर के लाडिले तुम बहुत पिराणे पाय ( ये ) हो ज० ।
कहु हीरजी हइ कुण ठाणि हो ज० ए कछ्यू कहीहि मेरेसु वाणि हो ज० ॥१॥
कद हमकुं करत अयाद हो ज० कइधु मोहे अजपा नाद हो ज० ।
तुम तास सीष्य पद ठाणि हो ज० हम पेग (म)सु लाया ताणि हो ज० ॥२॥
तुम आप खित्ताब गुरुं दीआ ज० तुम आप बराबरि करि लीआ ज० तुम अवल कुण हइ याति हो ज० वइराग लीआ कुण भाति हो ज० ॥३॥
अनुसंधान-२४
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तुम गाम ठाम कहां धाम हो ज० तुम माता पिता क्या नाम हो ज० । तुम कइसा पालु धर्म हो ज०१ ॥४॥ तुम केरे केते सीस हो ज० तुम किउं करि बारी रीस हो ज० । तुम क्या क्या पढे हो ज० तुम कुं करि कीआ मन गढे हो ज० ॥५॥ तुम ध्यान योध बलवंत हो ज० तुम जपहु कुणका मंत हो ज० । तुम खासे पंडित कूण हो ज० तुम मइ नही देखत उण हो ज० ॥६॥ हवई ए बोलनु जबाप श्रीविजयसेनसूरि दि छि । एह ज ढाल ॥ त्व विजयसेनसूरिंद हो महीधरण लाडिले कहि अकबर प्रति सुखकंद हो म० । हम छोड्या वाहनभेद होम० हम चलत न पावइ खेद हो म० ॥१॥ ह हीरजी गूज्जर देस हो म० उंहि बहुत हइ नयर निवेस हो म० । मइ तास सीस रजरेणु हो म० तस राग मोह्या मन एण हो म० ॥२॥ मइ तस पद पंकज हंस हो म० तांका कछ्यू मो मइ अंस हो म० । तुम क्षिणु क्षिणु करत अयाद हो म०
तुम गुणके लीने नाद हो म० ॥३॥ १. एक पंक्ति छूटी गई छे एम जणाय छे.
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अनुसंधान-२४
कही धर्मवधारण वाणि हो म० दीदार कु आप इहि ठाणि हो म० । हम अच(व?)ल याति ओसवाल हो म० त्यागी था जब मइ बाल हो मः ||४|| मइ अथिर कह्या संसार हो म० ताका किउं आवइ पार हो म० । नुडलाई हमारा गाम हो म० कमासा तातका नाम हो म० ।।५।। कोडाई मेरी मात हो म० सो छांड्या कुटंब संघाथ हो म० । दान शील सुतप भाव धर्म हो म० तामइ जीवदया वडु मर्म हो म० ॥६॥ हम सीस हइ देस विदेस हो म० को पोढे को लघु वेस हो म० । तामइ नंदविजय लघुसीस हो म० तामइ १अष्टविधान नरीस हो म० ॥७॥ हम ध्यानी तपकइ तेजि हो म० हम ईश जपि मन हेजि हो म० । इम सुणी अकब्बर शाह हो म० दिल भींतरि धरत उच्छाह हो म० ॥८॥ कहि शंकर वाधिउ वान हो म० प्रतिबोध्यु वड सुलतान हो म० । जिनशासन राखी रेह हो म० जगि करुणा वूठु मेह हो म० ॥९॥
१. अष्टावधान ॥
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ढाल || राग रामगिरी ॥
दूहा ॥ आलमपनह जलालदीन अकबर कहत सूजाण । ईछा लिपबइतां लिषि देखइ अष्टविधान ॥१॥ नंदविजय सो देखी करि, मेटी लिखि सो फेरि । ऊलटा वांचत नही खता प्रबल विधांनां नेरि ॥२॥ नंदीविजय प्रति साहजी, थापि सो खुशिफिम । उर परीक्षा अतिभली, करि शाहजी इम ॥३।। वादीजित् शवशाशनी, तास छोडाया मांन । घोडा महिषी महिष न न मारि सो फुरमांन ॥४॥
___ ढाल ॥ मुनिपती तुम्ह योगी बिरागी सब संसार के त्यागी हो तूम्ह गूण देखत भए रागी हो
॥१ मुनि० ॥ अवल एक पूछत हूं तुम्ह पिं पतशाह कहि बांनी । सूरिज गंग संग न न बंछु साच जूठ क्युं जांणी ॥२ मु०॥ च्यार खंड के पंडित सब मिली उनकी देत ऊगाही । विजयसेनसूरि कदि हठरत उनमि सूधि मति नाही ॥३ मु० ॥
__ जगतपति तुम्ह हु धर्म के रागी । सूरेज नाम शितसहश्रस पढि हम, गंगरंचित भीना वाद करत वादीकु ऊतर, जो पूछत सोई दीना ॥४ जगत० ॥ अकबर शाहूकु दिल खुसी भई, कहि मांगु सो दीजि । लाहुर आदि शंध-ठठा लगि, मारिनिवारन कीजि ॥५ जगत० ॥ मारिनिवारन मास छहू लगि, जगतगुरुकुं दीनी । अब तु सकल भूवनप्राणी प्रति उमरवधारण कीनी ॥६ मुनी० ॥
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अनुसंधान-२४ हीर बीर(बर) सावो त्रिभोवन काजी के विसे धोरी (?) शंकर कहत कोडि गुण तुम्हमि हूं क्युं बरनूं मति थोरी ॥७ मुनी०।।
ढाल ११॥ राग मेवाडो ॥ शाह मुराद अक)बरसुतन, गाजि अम्हदावादि । पंडित गूणचंद पासिहि पटु फिरावि नादि ॥१॥ हीर खजांनि बिमलगिरि जाणी जगतमझारि । .... संघ चलावही, जे कूता (हूंता?) संसारि ॥२॥ धन्यविजय पंडित प्रथि, सेत्तूंजगिरि नूं काम । जतन करेवा सुपहीसू, केइ न मगि (मागे?) दाम ॥३॥ पूरव पछिम उत्तरा दक्षण बहुला देस । विवध सजाई वाहनां, विवध संचऊर वेस ॥४॥ लाहूर ओर नीलावभमल(?) गौड चौड करनाट । बेंगाला काबिल प्रटे, भोट छोट उ लाट ॥५॥ कासमीर खूरसाणक, शंधू सव लेख ताई । मूलतांनी ग्वालेरका संघपति सब आई ॥६॥ मरुधर मालव स(सो)रठी, मेवाडी मनरंग । वागड नमीआडा तणां दख्यण केरा संग ॥७॥ पाटण अमदावाद उर, खंभाइत गूणगेह । संघपति गूजर तणा, सो दानि वरीषि मेह ॥८॥ चुरासी बंदिरतणा, सोरठ संघ विनाणि । श्रीहीरविजयसूरि आपथिं धिन विलसि न न कांणि ॥९॥
(ढाल |) मूवी(पुहवी?)के भूषनां सेजि पधारीइ सब भविका प्रति पार ऊतारीइ । संब(घ) दूख दूरीआं दूरि निवारीइ तूम्ह हा बोलावन अंवर उछारीइ ॥१॥
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जूटक : उछारि अंवरा संघपती सब बीनती गुरुपि कहि
सो वचन मांनी परम ध्यांनी रीदय भीतरि गहिगहि ॥२॥ अनेक उछव रंग वाधि साज बहू सेजवालीआं
माफा सो घोडे विहिलि नव नव कोरनी बहूजालीआ ॥३॥ चालि : हय गय बहुले बहू असवारा, पाइक पाला संघ न पारा ।
श्रावक श्रावी कोडि ऊदारा, जांणू के आया सब संसारा ||४|| त्रूटक : संसार सब मिली कर चालइ सेस भारइं(?) हिंडोल ए ।
अनेक बंदी भाट गंद्रव देव गुरु गुण बोल ए ॥५॥ अनेक मूनीपती तास छत्रपति हीरजी च्यंतामणी
वरविमल वाचक पंडिता गुण पुरगो (?) हि(ही)र वडा गुणी ॥६|| चालि : भल समीआणे बडे बडे, डेरे खडे सो कोने रे ।
देखत दूरगति टारै फेरे, जांणू धर्म कि पर्बत वेरे ॥७॥ त्रूटक : परबत वेरे पून्य केरे वाडि आडि करि दूखां
अनेक तंबू उर सराचे(?) तोरणां सो नवलखां ||८|| पालखी डोली छत्र चामर सीकरी सो सोभकू
झंडाल नेजा रसणि..... जा भकू ॥९॥ चालि : इसे संघपती साज बहू कीआ, धरम के कारणि आसन बहू दीआ। इसी करणी धरणी मिलिआ, मुगतितरु के फल यु करी लीआ
॥१०॥ जूटक : यु लीए फल बहु मूगति केरे भलेरे कारिज करि
-रत आवि अचल दीठु बहूरि दीसि तेह परि ॥११॥ अभीनवा साहामी भक्ति भोजिन लाहण रूपा हेमकी
चिहुं पासि मंगल वाद वाधि वदि वाणी खेम की ॥१२॥ चालि : हीर गुरखी(की?) त्रिभूवनि रेहा, जिनशासनकी टारी खेहा ।
संब(घ)दूख [छां?] डी मंड्या नेहा, जांणूं वूठा अमीसो मेहा ॥१३।।
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अनुसंधान-२४ जूटक : सो मेह वूठा आज तूठा हरिख भरि कुलदेवता
ध्यन सो मानव विमलगिरि पिरि हीरगुरुकू सेवता ॥१४॥ आश्चर्य मोटू महीअ माहि छत्रपति सेतुंज दीइ तेजपाल प्रति कहि शंकरी ते हीरजी बहू फल लीइ ॥१५॥
ढाल १२ ॥ दूहां ॥ सेतुंजगिरि श्रीआदिजिन, जगगुर हीर रतन्न । एक ठुरि जो वंदही सो नर नारी धिन ॥१॥ ज्यूगप्रधांन श्रीजगत्रगूरु तास सूजस वीस्तार । विस्तारी कवीयण कहि सो किमहि न आवि पार ॥२॥
राग केदारो ॥ लाभ लही श्रीजगत्रगुरू बोली, सेतुंज समु नही तोलि रे । मूगतिखेत्र ए साचु जाणु कुमती कां मन डोलि रे ॥१॥ मि वंदुरे गिरिचंदु रे सब तीरथ- चंदु रे भविजन पापनिकंदु रे जिणि दीठि भाजि भवदंदु रे ॥२ वंदु० ॥ संप्रति जिनना सीस मूनीश्वर पांच कोडिसू सीधा रे । पुंडरीक सो एतां कोडी अणसण लाहो लीधां रे ॥३ वंदु० ॥ नमि वीद्याधरना हीआ दिल(?) पूत्र सू जोडी रे । साढी पांच कोडी मुनि साथि वाडिल (वारिखिल?) द्रावीड दस कोडी रे
॥४॥ भरत अनि श्रीराम मूण्यंदा, तीन तीन तस कोडी रे । नारद लाख एकाणूं रखिसूं, भवनी सांकल छोडी रे ॥५॥ पांडव पांचि वीसां कोडी, संबू नि प्रद्युमना रे । साडी आठ कोडी मूनी साथि, सीव पाया नही दूम्ना रे ॥६॥
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पूरव वार नवांणू आदिल, विमलाचलि पुहुता रे । नेम विना त्रेवीश तीर्थंकर, सूरवर मूनीवर जोता रे ॥७॥ रायणि रूखतलि पद ठावी, धावी निज मूनि ध्यांनां रे । भरत प्रमुख ऊधार घणेरा, बहुत कहुं क्या मानां रे ॥८॥ कंकर कंकर सीध अनंता, होइ गया नगराजि रे । तीरथ महिमा वधारि श्रीगुर, श्रवजन तारण काजि रे ॥९॥ नरग निगोदि अनि तीरजंचाथी तुं कुगति निवारी रे । नरवर देव गती सूख साधि, एणि गिरि चढिए वारी रे ॥१०॥ इम ऊपदेस लही श्रीगुरथि, मूंगता सोथि (?) पावे रे । देस विदेस केरे संघपति हीर साथि लि आवे रे ॥११॥ शंकर क्यु मनि भावि श्रीगुर, वड संघपति जयधारी रे । रंगवधारण तेज वधार[ण] कीरति निति कहूं तोरी रे ॥१२।।
ढाल १३ ॥ राग मेवाडो ॥ मेरा मनपंकजका भमरला रे, श्री विमलाचलि वासो रे । मोह मांडि छांडी रहु रे भोगी लीलविलासो रे ॥१ मेरा० । हूं तरसू तूझ देखवा रे तू नवि आणे चीतो रे । एकपखु ए नेहलु रे, निपट न मोही मीतो रे ॥२ मेरा० ॥ आदिल आदिल मि जपूरे, ज्यु बापीयडा मेहो रे । लिखइ न एक संदेसडु रे, एकपखु ए नेहो रे ॥ ३ मेरा० ॥ डूगर ऊपरि डूगरी रे तिहां ति कीधु वासो रे । योग धरी अलगु रह्यु रे, तू इह भूवन करइ वासो रे ॥४ मेरा० ॥ मातपिता जेणई जनमीउ रे, लाड लडायु जेहो रे ।
तासतणउ तूं न हूउ रे तु हम नाणूं छेहो रे ॥५ मेरा० ॥ १. सुगती सो थि(दी?)पावे रे (?) ।
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अनुसंधान-२४ मति तुं सब कर्यु सरिखू रे, न लहिउ आप पीआरु रे । भरत सरीखा भोलव्या रे, वेलत- कीधी सारो रे (?) ६ मेरा० ॥ धिन विमलाचल रूखडी रे, धिन ते सरस मोरो रे । राति दिवस तुम्ह देखही रे, लेखइ सोरा सोरो रे ॥७ मेरा० ॥ में रीझू (?) परदेसी प्राहुणा, मो दिलमंदिर आवो रे । सकलसु खावी सूखडी रे प्रेम करी तूं लावे रे ॥८ मेरा० ॥ आदिल कहितां उहुलसूं रे, देखू तोरी वाटो रे । घडीअ घडीअ आवी मिलूं रे, पंथ न सरज्या मोटा रे ॥९ मेरा० ॥ ताहारि मनि त्रिभोवन वसि रे, माहारि मनिं तू एको रे । वीनतडी कोडि लखू रे, कहित न आवि छेको रे ॥ १० मेरा० ॥ दीठो लेसूं भांमणां रे, ललीय ललीय नमूं पाय रे । निठोर नाथ मनावस्यूं रे सेत्तुंजगिरि तु नाया रे ॥११ मेरा० ॥ शंकर कर जोडी कहि रे, आदिल लील भूआल रे । आशा पूरे अम्हतणी रे, न्व (?)(भ) वि भावन प्रतिपालो रे ॥१२ मेरा०॥
ढाल १४ ॥ राग गुडी ॥
दूहा ॥ आनंदि सब जब जगत तणउ संघ मिली गूणधाम । श्रीविजयसेनसूरि प्रति, लेख लिखइ अभिराम ॥१॥
ग्वालनी योबन गरब गहेली - ए ढाल | मोहन हीरजी केरा लाला, जपि..... गि तो गूनमाला अतिहि निरागी तूम्ह होए, अकबरशाहतूं मोहे ॥१ मोह० ॥ चालि : गूजरथि कागद लिखि लाल, संघ सो वाल हम हा तरसि (?) तोही दरसि तोही दरसनकू खबर न करहू क्रपाली, खबर न करहू क्रपाला संज्यभो... चूआला ॥२ मोहन० ॥
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तुम्ह बिछूरि बहू दिन भए लाल हम क्यु रहि ना जाइ पूछे पवरे जोसी जांनां श्री गुरुकइ कब आई
श्रीगुरु किधु कब आवइ सब जपे मासा ( ला ? ) पावइ || ३ मो० ॥
यू गूमांन न कीजीइ लाल रूपं जाई बीदेस
हम खिजमतथिं कछूअ न चूके ईतनी चढाई क्युं रीस
ईतनी चढाई क्यु रीस जपि गुण तीहा नीसदीसइ || ४ मो० ॥
साहिब तेरा हीरजी लाल आणि क्युं मनमांह
निपट निमोह न होईई साजन महिर न आतु मनमांहि
महिर न आतु मनमाहींआं तपति उ नारि बिन छहीआं ( ? ) ॥५ मो० ॥
चलन न देता दोही कूं लाल जु जानत विसी घात हूं बूझत तूम निठोर निरागी सत न रहिईन बातु गूनहनबाढि कछू गातुं ( ? ) ||६ मो० ॥
श्रीविजयसेनसूरीसरु रे लाल सब मुनी के सिरताज शंकर तेज वधारण लाला चलनकू ढील न काज चलन कूं ढील न कीजइ सब जन आनंद सू दीजइ ॥७मो० ॥ ढाल १५ ॥ राग धन्यासी ॥
मिं पाठ रे सब जगकु तारण पायु
हीरविजयसूरीसर गातां हैअडइ हरिष न माउ रे ॥१॥
श्रीविजयसेनसूरीसर ग (गा) तां, भणे रसना अंमृत पाउ चरण कमल मन ज्युं मधुकर पति पूरण प्रेम अथाउ रे ॥२ सब० ॥
श्रीधर्मसागर मोटा वाचकवर विमलहरिष उवझाया शांतिचंद वाचक गुणसागर परिघल पून्यि पाया रे || ३ सब० ॥
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सकलकलानधि भविकजनबोहक कल्याणविजय गुणधारी सोमविजय उवझाय पगट मल भाणचंद सी जोरी रे (?) ॥४ सब०॥
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अनुसंधान-२४ पंडित गणिवर मुनिवर सूंदर जिति ज्यत्यनी मनि भाया श्रीहीरविजयसूरीसर केरा सपरिवार सूखदाया रे ||ज्ञ सब० ॥ संवत सोल एकावन(व)छरि, श्री निजामपुरि आई तपगछपंडित गिरुआ सीसि वेली विजयसू गाई रे ॥६ सब० ॥ जब लगि मेरु मही रवि शशि नग सागर वाहनि राजइ हीरविजयसूरी कहइ शंकर जस पडहु तब गाजइ रे
सब जगकु तारण पाऊ ॥ इति श्रीविज[य]वल्लीरास संपूर्ण ॥
कठिन शब्दोनो कोश
दूहा
परीआ व्यवरी
पूर्वज
विवरी-विवरणपूर्वक
ढाल
पाहि वीरु प्रीआ
करतां वीरो-भाई परिया-पूर्वजो
दूहा
वहुरसि
व्यवहार-व्यापार करशे
३
.
लुंछन
न्युछनक-लूंछणुं (गुरु सामे धरीने हाथी घोडा वगेरेनुं याचकोने अपातुं दान)
ढाल
व्यवध विविध सोविन सोवन-सुवर्णतुं असमान आसमान-आकाश झंडाल नेजा झंडावाळा नेजा-ध्वजा
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दूहा
३
४
दूहा
ढाल
२
३
ढाल
३
दूहा
ढाल
३
दूहा
४
ढाल
७
दूहा
व्यकट
सरसंधी
विगय
बुजरक
उलीआ
सीगलीउ
साऊ
लुंहा
जार
गोझ
जंघाचारण
गिहुं परि फारा
ढूंबा
जेउर
जाजीआ
अष्टविधान
विकट स्वरसन्धि (?)
विगई - विकृति, (जैनोमां विगई तरीके ओळखाती दूध, दहीं, घी वगेरे छ वस्तु)
बुझर्ग - वृद्ध के परिपक्व वयवाळा ओलिया
शींगडी (?)
जाळ गोस्त-मांस
एक प्रकारनी चालवानी लब्धि धरावनार मुनि, जे घणुं अने झडपथी चाले तो पण थाक न अनुभवे.
घउंना फाडा (लापशी)
जजियावेरो
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अष्टअवधान
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अनुसंधान-२४
शवशासनी
शासनवाळा
ढाल
अंवर उछारीइ
अंबर-वस्त्र, उछारीइ-पाथरवू(?) ('खोळो पाथरवा'ना अर्थमां होय तेम लागे
छे.)
.
१२
साहामी भक्ति लाहण
सार्मिक भक्ति ल्हाणी-प्रभावना
ज्यूगप्रधान
युगप्रधान-युगपुरुष
ढाल
मूगतिखेत्र तीरजंचा
'मुक्ति' पमाडनारुं क्षेत्र तिर्यंच
ढाल
उहुलतूं
उल्लसुं
*
*
*
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विविधकवि-विरचित-सज्झाय-श्लोकादि संग्रह
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
__आ प्रतिमा विविध कविओ द्वारा रचेल सज्झायो तथा श्लोकोनो संग्रह करवामां आव्यो छे. अत्यारना समयमां जेम नोंधपोथी-डायरी व. मां उपयोगी स्तोत्र-स्वतनादिनो संग्रह थाय छे, तेवो ज आ संग्रह पाटणनगरमां स्थित गणि धनवर्धनजीए पोतानी माटे करेलो छे तेवं प्रतिनी प्रान्ते लखेल पुष्पिकाथी जणाय छे.
प्रतिमां कुल १६ कृतिओ छे. तेमां बीजी कृति श्रीसमयसुंदरजी विरचित क्षमानी सज्झायमां अक्षरो पाणीने लीधे अत्यंत खराब थई गया होवाथी तेनुं संपादन कर, कठिन हतुं. माटे ते कृति अहीं प्रकाशित नथी करी. ते सिवायनी १५ कृतिओमां १२ सज्झायो तथा ३ श्लोको छे. तेमां१. खिमा पंचावन्नी श्रीलब्धिविजयजी-विरचित छे. २. नारीस्वरूपप्ररूपण-स्वाध्याय पंडित मेरु विजयना शिष्य मुनि
ऋद्धिविजयजी द्वारा विरचित छे. श्रीबलभद्रऋषि-सज्झायना कर्ता श्रावक कवि सालिग छे. संसारस्वरूप सज्झाय मुनि श्रीपद्मकुमारे रचेली छे. हितशिक्षा बोल सज्झाय श्रीहंस साधुए रचेली छे. समता-सज्झाय पंडित कमलविजयना शिष्य मुनि हेमविजयजी द्वारा विरचित छे. जीभ-सज्झायना कर्ता मुनि लावण्यसमय छे. निह्नवविचार सज्झायमा कर्तानो - कोई निर्देश नथी. केवळ सुकवि एवो निर्देश कर्यो छे. ३-मित्र-उपनय सज्झायना कर्ता वडतपगच्छमंडन आ.देवसुंदरसूरिना शिष्य आ. विजयसुंदरसूरिना शिष्य पंडित भानुमेरुना शिष्य वाचक
नयसुंदर छे. १०. श्रीदशार्णभद्रराजर्षि श्लोक
ॐ
3
i
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अनुसंधान-२४ ११. श्रीशान्तिनाथ श्लोक, १२. शंखेश्वरपार्श्वनाथ श्लोक,
श्रीवीशस्थानकनाम-स्वाध्याय तथा १४. श्रावकना पांत्रीस गुणनी सज्झाय-एम पांचे कृतिना कर्ता पंडित
श्रीकनकविजयजीना शिष्य श्रीगुणविजयजी छे. 'श्लोक' एटले
'सलोको'. १५. श्रीसिद्धस्वरूप स्वाध्यायना कर्ता, सज्झायनी अंतिम कडीमां निर्दिष्ट
सकल योगीसरो शब्दथी, श्रीसकलचंद्रजी उपाध्याय जणाय छे.
आ प्रति मारा पू. गुरुभगवंतना संग्रहमांथी प्राप्त थई छे. प्रतिमां लेखन संवत् नो निर्देश नथी कर्यो, परंतु लखावट जोतां प्राय: १८ सैकामां लखाई होय तेवू जणाय छे. अक्षरो सुंदर छे, तेम ज लखाण स्वच्छ अने शुद्ध छे. विशेषता
श्रीशान्तिनाथ भगवानना श्लोकमां रतनपुर, सलखणपुर(सलक्षणपुर) तथा दहीओद्र (दधिपद्र) नगरनो निर्देश छे.
श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथना श्लोकमां सरस्वती देवीनी स्तवना करतां कविए देवीने त्रिपुरा, तोतला, बाली,काली, महाकाली, कालाग्नि, हरसिद्धि, अंबा, सिद्धि, बुद्धि कही छे. अने देवीना स्थान सोपारापाटण तथा अज्झारी गाम कह्यां छे.
(१) श्रीलब्धिविजयकवि-कृत
खिमा पंचावन्नी
(राग-धन्यांसी-मिश्र सींधुओ) श्रीगुरुचरणे नमी करि करि खमयानुं खेडं रे । तिम खमया खडगइ करी हणजे अरियण पेडु रे ॥१॥ उपशमरसवसि मन करूं उपशमथी सुख होवइ रे । उपशमरसि मन धोतीउं जोगीसर नित धोवइ रे ॥२॥
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उपशमथी अरिहंतनी पदवी होइ खिणमांहि रे । मुगतितणां सुख ते लहइ जे उपशम अवगाहि रे ॥३|| उप० ॥ खिमावंत जिणवर कह्या त्रीजा अंग मि जलपइ रे । उपशमसार संयम कहिउं श्रीपजूसण कलपइ रे ॥४॥ उप० ॥ क्रोधतणइ परवश थया बंधी कोडि कुकरमो रे । नरगि गया बहु जीवडा ए जिन आगम मरमो रे ॥५॥ उप० ॥ कुंण खमयाथी उद्धर्या कुंण क्रोधई भव भमिआ रे । हुं बलिहारी तेहनी जीणइ आतम दमिआ रे ||६|| उप० ॥ भरतराय अन्यायथी बाहुबलि बलवंतइ रे । मुंठि उपाडी मारवा क्रोध धरी निय चिंत(चित्त)इ रे ॥७॥ उप० ॥ एहवइ उपशम आवीओ संयम ल्यइ सवि मुंकी रे । भरत दीउं कांइ नवि लीइ नर कोन गिलइ थुकी रे ||८|| उप० ॥ क्रोध थकी परदल हण्यु दुरगतिनां दल मेल्यां रे । पंच महाव्रत मूलथी नियम नथी अवहेल्यां रे ॥९॥ उप० ॥ है है संयम मुझ गयुं उपशम आव्यो अनंतो रे । प्रसन्नचंद्र रिषिराजीओ केवललां झलकंतो रे ॥१०॥ उप० ॥ अन्न संपूरण पातरामाहिं चिहुं मुनिइ धुंक्यु रे । कूरगडू उपशम थकी जांणइ मुझ घृत मुंक्युं रे ॥११॥ उप० ॥ कूरगडू केवल लघु अनुक्रमि च्यार सुसाधो रे । केवल लही मुगतिं गया उपशमथी निरबाधो रे ॥१२॥ उप० ॥ एक नारी नित प्रति हणइ तिम षट नर अतिक्रोधइ रे । नरगतणां दल मेलियां जष्य तणइ अनुरोधइ रे ॥१३।। उप० ॥ छट्ठ छट्टि छम्मास जां खमयाथी मन रंग्यो रे । अरजुणमाली मुनि वडो मुगतिवधूई आलिंग्यो रे ॥१४॥ उप० ॥
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एक ऊणा पंचसइ खमयाथी खंदग सीसो रे । पालक पीलंतां थया अंतगडा विण रीसो रे || १५ || उप० ॥
अनुसंधान-२४
अगनिकुमार क्रोधइ थया खंधगसूरि सुजाणो रे । दंडग देश प्रजालिओ दूरि थयुं निरवाणो रे ||१६|| उप० ॥
अच्चकारी नारीइ प्रिउस्युं प्रेम विगाड्यो रे ।
क्रोधतणइ परवसि थइ आतम दुखमाहिं पाड्यो रे ||१७|| उप० ॥
पंच वार पंचक लह्युं क्रोधइं नाविक नंदइ रे । छट्टि सवि मुनि खामणां देता सुक्ख आनंद रे || १८|| उप० ॥ वभासनई सागरतणो क्रोधइ सीस प्रजाल्यु (ल्यो) रे । खमयाथी सुरवर थयो द्वेषथी मन वाल्यो रे ॥१९॥ उप० ॥
पगतलि आवी देडकी आलोओ कह्युं सीसई रे । थविरइं थंभि आफली मरण लाउं अतिरीसइ रे ||२०|| उप० ॥
भव त्रीजई विषधर थयुं वीरइ दरिसण दीधुं रे । खमयाथी चंडकोसिइ वेगिं सुरपद लीधुं रे ||२१|| उप० ॥
कुण अनारज बिहुं जणां माहिं कहो मुझ देवो रे । वढतो साध सुरइ कह्यओ अनारज सयमेवो रे ||२२|| उप० ॥
खमावंत दमदंतनइ कौर [व] कर्यओ उपसरगो रे । कांईअ न चाल्युं अरियणइ मुनि करि खमयानुं खडगो रे ||२३|| उप०॥
अमरभूर्ति (मरुभूति) खमया थकी तित्थंकर पद साध्युं रे । कमठासुरनई क्रोधथी दुरगतिनुं फल बांध्युं रे ॥२५॥ उप० ॥
शय्याचालक सवणडे क्रोधइ तरुउं नाम्युं रे । कांने खीला ठोकिया वीरइ ते फल पाम्युं रे ||२६|| उप० ॥
पुनरपि खमयाथी सही वेयण अति अहियासी रे । अनुक्रम केवल पामिउं करम गयां सवि नासी रे ||२७|| उप० ॥
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दृढप्रहारिं चिहुं जीवनो हत्या पातक कीधो रे ।
अति उपशम मनमां धरी सुगतिमाहिं जई सीधो रे ॥ २८ ॥ उप० ॥
नाण उपजतो हारिओ एक पहरमां कोधइ रे ।
श्रीदमसार मुनीसरइ उपशम व्यसन विरोधइ रे ||२९|| उप० ॥
ससरि सीस प्रजालीउं खमिउं गयसुकुमालइ रे I ततखिण केवल पामिउं करम कुकठ परजालइ रे ||३०|| उप० ॥
करड - कुरड मुनि तप तपइ रहीअ कुणालानइ खालि रे । क्रोधइ संयम हारिउं नींगमिओ भव आलि रे ||३१|| उप० ॥
नीलि वाधरि वीटिउं रिषिसर सोवनकारि रे ।
खमयाथी मेतारजइ शिवपद लाउं शमसारि रे ||३२|| उप० ॥
क्रोध थकी कूलवालूइ सुव्रत थूभ पडावी रे ।
गणिका रसरंगिं करी हुई तस दुरगति चावी रे ||३३|| उप० ॥
खंधक रिषिनी खालडी विण अपराध ऊतारी रे । खमयाथी सवि दुख सही पुहता मोख्य मझारी रे ||३४|| उप० ॥
नवदीक्षित शिर ऊपरिं सूरिं कीध प्रहारो रे ।
खमयाथी केवल लह्यउं धिन धिन ए अणगारो रे ||३५|| उप० ॥
संब- प्रद्युन्न संतापिओ क्रोधई तप तन टाली रे । द्वीपायन रिषि द्वारिका मूल थकी परजाली रे ||३६|| उप० ॥
चंद्रावतंसक उपशमि रहिओ काउसग ध्यानिं रे ।
दासी दीपक सींचतां पोहतो अमर विमानिं रे ||३७|| उप० ॥
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दुष्कर दुष्कर गुरु काउं निसुणी एक मुनी कोप्यो रे । थूलभद्रस्युं मच्छर धरी पूरव तप जप लोप्यो रे ||३८|| उप० ॥
चंदनबाला मृगावती माहोमाहिं खमावी रे ।
उपशमथी केवल लह्यउं कडूआ क्रोध समावी रे ||३९|| उप० ||
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अनुसंधान-२४ क्रोधइ निरबल बलदीओ धरती ठेले दार्यो रे । ते बंभण सवि बंभणे जाति थकी निरधार्यो रे ॥४०॥ उप० ॥ सूरि सुहस्तिक वयणथी प्रेतवनि जई रहिओ रे । त्रिण्य पहर सीयालणी कर्यओ ते उपसरग सहिओ रे ॥४१॥ उप० ॥ ते अवंतीसुकुमालनइ खमयाथी शुभध्यानइ रे । ततखिणमाहिं ऊपनो नलिनीगुलमविमानि रे ॥४१ (४२) उप० ॥ क्रोधई कडूउं तुंबडूं दीधुं रोहिणि नारिं रे ।। अनंत संसार उपारज्यु मुनि गयु मुगति मझारि रे ॥४२ (४३)।।उप० ॥ तिम नागश्रीइं क्रोधथी कीधलो संसार अणंतो रे । पोहतो पंचम अनुत्तरि धर्मरुचि तेह मा(म)हंतो रे ॥४३(४४)||उप०|| झांझरीआ रिषिरायनइ रायई उपसरग कीधो रे । अंतगडो केवल लही झांझरिओ रिषि सीधो रे ॥४४(४५)|उप०।। देह चिलातीपुत्रनो फाल्यओ वज्र घीमेलि रे । अष्टम सरगि सुर थयु उपशमरसतणी रेलिं रे ॥४५(४६)।उप०॥ भगतो श्रीमहावीरनो सर्वानुभूति निरीहो रे । उपसर्ग सही उपशम थकी सहसारइं सुर सीहो रे ॥४६(४७)।।उप०॥ अच्युत सुर थयु उपशमं श्रीसुनख्यत्र अणगारो रे । वीर कुशिष्यइ ते दह्यओ न चढ्यओ क्रोध लगारो रे ।।४७(४८)।उप०|| गोसालो कृत क्रोधथी भमस्यइ काल अनंतो रे । मुंकी लेश्या तेजनी करवा जिनजीनो अंतो रे ॥४५(४९)।। उप०॥ इंद्रइ जेह प्रसंसिओ अमरे बेहु परि परिख्यओ रे । विविध वेयण वयणे करी कहीइ क्रोधइ न निरख्यओ रे ॥४९(५०)।उप०॥ ख्यमावंत सिरसेहरो राजा श्रीहरिचंदो रे । अवर न एहवो निरखीओ साहस दिवस दिणंदो रे ॥५०(५१)।।उप०।।
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इंम अनेक खमया थकी सुखीआ नर नरलोइं रे । हूआ होस्यइ ते घणा आतम कां नवि जोइ रे ? || जीवडा कां नवि जोइ रे ॥५१(५२)।उप०॥ सरप सिंह क्रोधई होइ क्रोधई नरगइ जईइ रे । जनम जनमनी प्रीतडी क्रोध थकी सवि खहीइ रे ॥५२(५३)।उप०॥ क्रोधई तप जप कीधलो ते लेखि नवि आवइ रे । आप तपइ पर तापवइ क्रोधई कुंण सुख पावइ रे ॥५३(५४) उप० ॥ - - - - - - - - घणा एह - - उपदेसो रे । क्रोध -- जीव ---- इम कहि वीर जिणेसो रे ॥५४(५५)।उप०॥ एह ख्यमा पंचावन्नी सुणयो भणयो भावइ रे । लबधि विजय कवियण कहि खमतां सवि सुख होवइ रे ॥५५(५६)।उप०॥
॥ इति खिमा पंचावन्नी ॥
0 0 0 (२) मुनिऋद्धिविजयविरचित-नारीस्वरूप-प्ररूपणस्वाध्याय ॥
(राग-मारुणी) मनि आणी जिनवाणी प्राणी जाणीइ रे, ए संसार असार । दुखनी खांणी एह वखाणी कामिनी रे, म करिसि संग लगार ॥
भोला भूलि मां रे ॥१॥ भमुह भमाडइ आंखि देखाडइ प्रीतडी रे, हसी हसी बोलि बोल । मुंहडि रूडि हईडि कूडी. जीवडा रे, विषवेलिनइ तोल ॥२॥ भो०॥ आंसू पाडइ दुख देखाडइ आपणउं रे, सांभलि साहस धीर । आणइ ज मारइ नही अह्मराइ तुह्म विना रे, अवर हईआनुं हीर ॥३।भो०।। लज्जा धरसी आगलि फिरसी कामिनी रे, करती नयनविलास ।। मोहपासमां पड्या नड्या जे बापडा रे, नर नारीना दास ॥४॥ भो०॥
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अनुसंधान - २४
नयने मुंकइ पणि नवि सूकइ कामिनी रे, पणछ विना ते बाण | नामि अबला पणि सबला तई सांकल्या रे, एणीइं राणोराणि ॥५॥ भो०||
आलस अंगि अनि उत्संगि अंगना रे, किहां तेहनइं जिननाम | आ (अं? )गि खोडा अनि वलि बेडी पग पडी रे, ते पामि किम गाम ॥६॥ भो० ॥ नारि निहाली तुझन बाली मुंकस्यइ रे, परतखि अगनिनी झाल । तृपति न पामइ आप दांमइ भामिनी रे, परिणाम विकराल ॥७॥ भो०||
निरखी रूपवतीनइ परतखि पांतर्यो रे, तरं न कर्यो सुविचार | रुधिर मांस अंतर मल मूंतर स्युं भरी रे, नारी नरगनुं बार ||८|| भो० ॥ कांने करी नइ केसरि आणइ आंगणइ रे, उपन्नि निज काज । धबकइ धूजइ आई रे झूझइ कूतरा रे, हुं बिहुं अबला आज || ९ ||भो० || प्रेमतणउं जे भाजन साजन तेहनइ रे, अणपहुचंतइ आस । मुंकइ हाकी अनि वली वांकी बोलती रे, जा रे जा तुं दास ॥१०॥ भो० ॥
राय प्रदेशी सूरिकंताइ हण्यो रे, जे जीवन आधार ।
पगस्यउं सायर रयणायर जे ऊतरि रे, पणि एह न पामइ पार || ११ | भो० ||
जोज्यो निज अंगज हणवानइ कर्यो रे, चुलणीइ बहु मर्म राती माती वनिता ते न विचितवइ रे, करतां काई कुकर्म ॥ १२ ॥ भो० ॥
इंद चंद असुरिंद अनि नागिंदनइ रे, वाह्या वली बलवंत । त्यजिन प्राणी एहवी जाणी कामिनी रे, गुण लीजइ गुणवंत || १३ | भो० ॥ माया करस्यइ नारी हरस्यइ भोलवी रे, शील रयण जे सार । एह संघातइ म करिसि वातइ पणि घणउं रे, जिम पामइ जयकार | १४ भो० ॥
।
भाई निरखो सुरपति सरिखो राखीओ रे, छांनोमनी रूप सुख ना हुंसी तुम्हनइ मुंसी मुंकस्यइ रे, एह मनोभव भूप || १५ | भो० ॥
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थूलभद्रनइ जंबूनइ पगि लागीइ रे, धन्य धनो अणगार । बालपणि पणि जागी वयरागी थया रे, ते मुनि वयरकुमार ॥१६॥भो०॥ नर नई नारी हृदय विचारी चेतीइ रे, छांडी विषयविकार । मेरुविजय बुध सीस पयंपइ पामीइ रे, शीलिं शिव निरधार ॥
ऋद्धिविजय जयकार ॥१७॥ भो०॥
॥ इति नारीस्वरूप-प्ररूपण-स्वाध्यायः ॥
(३) सालिग-विरचित-श्रीबलभद्रऋषि-सज्झाय द्वारिका बलती नीकल्या बि बंधव एक ठाय । तृषा उपनी कृष्णनई बलभद्र पाणी पाय ॥१॥ तव बलभद्र लाव्यो नीर तुंतो सूतो साहस धीर । पोढ्यो छइ वडतणी छाया कमलाणी कोमल काया ॥२॥ आहेडी जराकुमार खेलि पारधि वनह मझारि । कृष्ण पाए पदम जव दीठउं जाणिउं ए सावज बिठउं ॥३॥ लेई धणुहडी कीधउं प्राण ताकी नइ मेहलिउं बाण । डावि पाइं परम ज लागओ करली नइ कान्हड जाग्यओ ॥४॥ जोइ जरा रे कुमर तिहां जाइ सारंग ऊठ्यो विललाई । देखी बंधव दुःख अपार कही धिग धिग जराकुमार ॥५॥ मई पापीई बंधव हणीओ तव माहवइ एणि परि भणीओ । हवइ जा तुं वार म लावइ बलभद्र जिहां लगि नावइ ॥६॥ माहरु कटक देजे नींसाणी इंम कहिजे युधिष्ठिर वाणी । वल्यो जराकुमर ततकाल कृष्णनइ तव पहुचु काल ॥७॥
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अनुसंधान-२४ बलभद्र जल लेई आवीओ बंधव सूतो देखि । किम ऊठाडउं नींद भरि इंम चिंतवइ विशेष ॥८॥ मोरो बंधवह जीअ न जागइ बोलावइ मधुरि सादई । नवि बोलइ सारंगपाणी वात ए हईडइ न समाणी ॥९॥ तव मुख ऊघाडी जोइ साद करीनई सरलइ रोइ । रीसाव्यो किंणि गुणि भाई बांधव बांधव विललाई ॥१०॥ पगि लाग्यो दीठो घाय केणि सूर हण्यओ वनमाहिं । बांहि धरी तव बिठो कीधु उपाडी खांधि लीधु ॥११॥ लेई चाल्यो वनह मझारि मुझ सालइ दुःख अपार । हुं वेगि नीर न लाव्यो तेणि तुं खरु रीसाव्यो ॥१२॥ हवि बोलि मया करि मोरी किहां चाकरी चूकुं तोरी । इंम मोहनी नइ वशि चडीओ इमास(?)इंणी परि नडीओ ॥१३।। देवता उपाय करावई शिला उपरि कमलिणी वावइ । पाथरि केम ऊगइ सार पोइणि तुं खरु गमार ॥१४॥ जो मूओ बोलस्यइ भाई तो कमलिणि ऊगस्यइ लाई । चाल्यो सुणी बलभद्र वाणी तिहां वेलू पीलइ घाणी ॥१५॥ तुं तो मूरख जोइ विमासी वेलू ए किम पीलासी । सुणि मूउं मडउं जो जीवइ तो तेल बलइ इंणि दीवइ ॥१५॥ समझाव्यो तडकी बोलइ बलभद्र पड्यो डमडोलइ । जव विणसण लागी काया तव छोडी बलभद्र माया ॥१६॥ मनि जाणी सोइ विचार तिहां कीधुं तेह प्रकार । जूओ कर्म तणी गति जाणी नवि छूटो सारंगपाणी ॥१८॥ बलभद्र चालिओ तिणइ ठाहि वयराग धरी मनमाहि । जइ वंदइ नेमिकुमार तिहां लीधु संयमभार ॥१९।।
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आखडी अ करी अति भारी मुझ रूप ज निरखइ नारी । नहीं जाउं नगर मझारि भिख्या लि वनह मझारि ॥२०॥ रथकार रंगि विहरावइ मृगलो तिहां भावना भावइ । धन धन एहज अवतार जिणइ करी लहीइ भवपार ॥२१॥ भावना भावइ हरिणलो नयणे नीर झरंत । मुनि विहरावत करि करी जो हुं माणस हुंत ॥२२॥ जीवदयानउं यतन करंत मिलतो साधुस्यउं विचरंत । विहरावत पात्र विचारी इंम चिंतवइ चित्त मझारि ॥२३॥ तव वाय वायु असराल अध कापि पडी अतिडाल । त्रिण्यइ तणो तिहां पहुतो काल बलभद्र हरिण रथकार ॥२४॥ पहुता पाचमइ सुरलोकि विलसइ तिहां सुक्ख अशोक । बलभद्र दया प्रतिपाली मद मच्छर माया टाली ॥२५॥ सूतारनी भिक्षा निरखी विहरावइ पात्र ज परखी । तिणि योगि बिहु मनरंगि अवतरीआ पांचमइ सरगि ॥२६॥ तिहां धर्म तणी वात चालइ समकित सूधउं प्रतिपालइ । समकित विण का जन सीझइ सालिग भणि सूधउं कीजइ ॥२७॥
॥ इति बलभद्रर्षि-सज्झाय ॥
(४) श्रीपद्मकुमारमुनि-कृत - संसारस्वरूप-सज्झाय सुणि सुणि जीवडा कहिउं. रे करीजीइ एकज जिनधर्म हईडइ धरीजीइ ।
Jटक
हईडइ धरीजइ एक जैनधर्म अवर सहू अथिर अछइ तुं चेति चेति(त)न चतुर प्राणी करिसि पछतावो पछइ ॥
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घण मोह माया लोभ वाह्यो फरह हा हू तु भमइ दोहिलो लाधो मानुषो भव कांइ आलिं नींगमइ ॥१॥
म करिसि जीवडा माहरूं माहरु
जो न विमासी नथी कांइ ताहरुं ॥
त्रूटक ताहरु कांइ नथी रे प्राणी छंडि ममता अति घणी
खिण एक पूंठि आथि केरो थाइस्यइ कच (व ? ) को धणी ॥ दिन राति रलतो रहिन तूं ही काज न करइ आपणो एक पुण्य पोषइ कहिन किम तूं अंत पामसि भवतणो ॥२॥
आप सवारथ मलीउं छइ सहू
तूं कुण कारणि पाप करि बहू ? |
त्रूटक
बहु पाप करतु संक नाणइ हईइ न जाणइ आंपणउं
कारिमउं सगपण नेह विण जिम छार ऊपरि लींपणउं ॥
अनुसंधान - २४
मन पवननी परि फरि दह दिसि किमइ राख्यउं नवि रहइ एक चित्त अरिहंत ध्यान धरि जिम सास्वतां सुख तुं लहइ ||३||
सीख असीपरि दीजइ छइ घणी पालिन आणा सूधी जिनतणी ॥
त्रूटक
जिनतणी आणा पालि सूधी करिन सेवा खरी
अरिहंत भाख्यो धर्म आदरि अंगि आलस परिहरी ॥
मन शुद्धि समकित शील दृढ धरि सीख असी परिं दीजीइ इम भणि पदमकुमार मुनिवर भवतणां फल लीजीइ ||४||
॥ इति सज्झाय ॥
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(५) हंससाधु-विरचित - हितशिक्षा-बोल सज्झाय सुणि जीव पहिलङ उपशम आणि, मन-शुद्धि सांभलि गुरुवाणि । गुरु विण जीव रलंतु जोइ, गुरु विण धर्म न बूझइ कोइ ॥१॥ लाज आणे हइडइ नरनारि, लाज वडी भणीइ संसारि । लाज ज राखइ रूडी माम, नीलज विणसाडइ सवि काम ॥२॥ जे मूरखनी लज्जा गई, बि भव विणठा तेहना सही । लाज रहित नर हुइ कठोर, जांणो माणसरूपि ढोर ॥३॥ लाजइं आवइ विनय विचार, लाजवंत लहि मुहत अपार । लाजइं पुण्य कराइ बहू, लाज लोपी तिणइ लोपिउं सहू ॥४॥ कलियुगमां पाखंडी घणा, तिहां मन रीझइ मूरखतणां । पाखंडीनइ आदर होइ, साचइ लोक न राचइ कोइ ॥५॥ जिम पारो पारामां भलइ, तिम डंभक डंभकनइ मिलइ । संत साधुनी निंदा करइ, पापी पापिं पिंड ज भरइ ॥६॥ आप वखांणी भामइ पडइ, पच्छइ जाणे यम-करि चडइ । एह वात कहीइ स्युं घणी, परि नवि देखं पुण्य ज तणी ||७|| खुंट खरडनो व्याप्यो व्याप, कोइ न बीहइ करतु पाप । सूधो धरम न दीसइ रती, थोडा थया कलिकालिं यती ॥८॥ माहरां ताहरां करि अपार, श्रावक चूका धरम विचार । पंपल पुहवि थयुं जे जिसिउं, बोल्यउं कोइ न पालि तिसिउं ॥९॥ खिमारहित क्रोधइ धडहडइ, राग द्वेष वाहिओ रडवडइ । वसमसि नवि कीजइ कहि तणी, वात संभारु पाछि घणी ॥१०॥ जूठउं जीव तुं किम्ह इम भाषि, धरम ज कीजइ आतम साखि । लज्जा दया खिमा मनि धरो, निरगुणनी संगति परिहरो ॥११॥
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अनुसंधान-२४ पुहविं कीजइ पर उपगार, साधुहंस कहइ तरीइ संसार । एह वयण मनमां आणस्यइ, ते सास्वतां सुख पामस्यइ ॥१२॥
॥ इति हितशिक्षाबोल-सज्झाय ॥
(६) हेमविजय विरचित - समता-सज्झाय सहि गुरुचरण नमी करीजी समरी सरसति माय । समतारस-सर हंसलाजी वंदी तिम ऋषिराय ॥१॥
सोभागी करी समता स्युं रंग । जो तुझनइ कीधओ रुचइजी मुगतिवधूनओ संग ॥२॥ सोभागी०॥ परिहरि निंदा पारकीजी म करिसि निज गुण ख्याति । इणि परि गिरुयडि पामीइजी एहवी वात विख्यात ॥३॥ सो०॥ निज गुण निज मुख जे लवइ जी निभ परनिंदा ढाल । तस तप जप संयम मुधाजी बोलि उपदेशमाल ||४|| सो०॥ नवि लीजइ अछता छताजी पर अवगुण लव लेस । लेतां जस नवि पामीइजी तेहस्युं वयर निवेस ॥५॥ सो०॥ मासखमणनइ पारणिजी एक सीथ लइ आहार । करतो निंदा नवि त्यजिजी तस दुरगति निरधार ॥६॥ सो०॥ जो दीठा जो सांभल्याजी त्यजि पर अवगुण जाण । पर अवगुण लेतां हुइजी निज गुण केरी हाणि ॥७॥ सो०॥ पुंठिमांस नवि खाईइजी ए दुरगतिनुं बार । दशवैकालिकमाहिं कहीजी शय्यंभव गणधार ॥८॥ सो०॥ जो जस जोईइ निरमलोजी परिहरि निंदा ढाल । निंदकनइ सहुइ कहिजी ए चोथो चंडाल ॥९॥ सो०॥
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माता बालक मलहरिजी लइ ठीकरस्यउं रे दूरि । निंदक निज मुखस्य लीइजी पर अवगुण मल पूर ||१०|| सो० ॥
पर परिवाद करी करइजी जिम जिम वचन उचार | परनिंदक परभवि लहइजी तिम तिम कठिन विकार ॥ ११ ॥ सो० ॥
जिणइ वचनइ पर दूखीइजी जिणइ हुइ प्राणीघात । क्लेश पडइ निज आतमाजी त्यजि उत्तम ते वात ||१२|| सो० ॥
परनिंदा इंम परिहरीजी करि समता निस दीस । कमलविजय पंडिततणोजी हेमविजय कहि सीस ||१३|| सो० ॥ ॥ इति समता - सज्झाय ॥
(७) लावण्यसमय विरचित
जीव भणइ सुणि जीभडली रे पापिं पिंड भरावइ ।
आप सवारथि आघी आवइ अह्मचइ काजि न आवइ ॥१॥
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जीभ - सज्झाय
बापडली जीभडली ढाल पडी छइ एहवि
खारा खाटां खट रस सेवइ, अरिहंत नाम न लेवइ ॥२॥ आंचली ॥
काया पुर पाटण हुं राजा तुं थापी पटराणी ।
हजी लगिं गुरुवचन विहूणी इसी भगति नवि जाणी ॥३॥
नर बत्तीस रहइं रखवाला आगलि पोलि पगारा । तुहइ नीलजपणउं न छंडइ हींडइ छंदाचारा ||४|| ध्यान धरूं जब स्वामी तव सहियर बोलावइ । जपमाली कर थकी पडावइ मुझनइ मांड बोलावइ ॥५॥
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तुं बंधावर तुं छोडावइ तुं जामलि कुण आवइ । नारि भली जे प्रियस्युं भगती घरनो चाल चलाइ ||६||
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अनुसंधान-२४ साव सुलक्षण बहु गुणवंती घणउं कस्युं हवि कहीइ । जीव भणि जिनमारगि लागो तुं सुक्खई निरवहीइ ॥७॥ जीव सीखामणि जीहा जागी जिनगुण गावा लागी । कहि लावण्यसमय वयरागी पाप भ्रांति हवइ भागी ॥८॥
॥ इति जीभ-सज्झाय ॥
★★★ .
(८) निह्नवविचार-सज्झाय वीर जिणेसर थया केवली तेथी वरस चउदमइ(१४) वली । जमालि पहिलो निह्नव थयु कडमाण कड ऊथापयु ॥१॥ सोलस(१६)वरसे बीजो जोइ तिष्यगुपत नामि ते होइ । छेहलो जीवप्रदेशइं जीव ए कीधी थापना सदीव ॥२॥ वीर वरततां थया ए बे वि मुगति गया पछी कहिस्यउं हेव । बारमि(१२) वरसिं पामी मुगति गौतम गणधरनी ए युगति ॥३॥ वीसे(२०) वरसे सोहम सामि वीर पछी जाइ शिवठामि । तेह तणा चाल्या मुनि-पाट जिणइ देखाडी साची वाट ॥४॥ चउसठि(६४) वरसे जंबू सिद्ध बालपणा लगइ शील प्रसिद्ध । अठाणउं (९८) वरसे वीरथी शय्यंभव थयु धर्म सारथी ॥५॥ प्रतिबुद्धो जिन-प्रतिमा देखि शासन दीठउं सर्व विशेष । मनक सीसनइ काजि करिउं श्रीदशवैकालिक उद्धरिउं ॥६॥ वीर थकी एकसो-सत्तर (१७०) भद्रबाहु गुरु गणि अवतरि । उवसग्गहरं तवन करेवि मारि निवारी छइ तिणि खेवि ॥७॥ दस निर्युगति नवी तिणि करी सूत्र अरथ युगति सांभरी । बिसइ-चउद(२१४) वरसे वली जोइ त्रिजो निह्नव जगमाहिं होइ ||८||
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थाप्यो अवगत वाद विशेष आषाढाचारज सुर देखि । बिसइ - पनर वरसे (२१५) थूलभद्र शील प्रमाणि लहइ बहु भद्र ॥९॥
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अरथ थकी पूरव जे च्यार गयां विछेद तेथी निरधार । वरस बिसइ - वीसे (२२०) अवधारि चोथा निह्नव थयु विचारि ||१०||
थाप्यो शून्यवाद तिणि जाणि समुच्छेदनुं सुणी वखाण । वरिस बिसई - अठावीस (२२८) थयां महावीरनई मुगतिं गया ॥ ११॥
पंचम निह्नव थयु इक समइ बि किरिया तेह न इम निगमइ । वीर थकी त्रिणसई - पांत्रीस (३३५) वरसि थयु कालिक सूरीस ||१२||
अविनयवंत सीस परिहरी ग्यओ ऊजेणीपुरि नीसरी । निगोदनो जेणइ कह्यओ विचार हरि फेरव्यउं वसतिनुं बार ||१३|| वरस च्यारसइं-त्रिपन ( ४५३) माण बीजो कालिकसूरि सुजाण । बहिनि सरस्वति वाली जेणि गर्दभिल्ल उच्छेदिओ तेणि ॥१४॥
चिहुं सय सत्तर ( ४७०) विक्रमराय थयु ऊजेणी नयरी ठाय । सिद्धसेन गुरि श्रावक कीध महाप्रभावकनो जस लीध ॥१५॥ वरिस पांचसई चिउंआलीस (५४४) निह्नव छठो जाणि जगीस । जीव अजीव अनइ नोजीव राशि त्रिण्य तिणि कही सदीव ॥ १६ ॥ गुरि समझाव्यो पणि नवि वल्यओ आपमती अभिमानि बल्यओ । वरस चउरासी नइ पांचसइ (५८४) वयरस्वामि सुरलोकिं वसइ ||१७|| वीर थकी वरसे पांचसई चउरासी अधिके (५८४) वली तिसई । निह्नव जाणि थयु सातमो गोष्ठामाहिल ते महातमो ॥१८॥
तेणि थाप्यो ए मत वली जीव कर्मयोगि जो (कर्म जोगो) जिम कांचली । अप्रमाण थाप्यां पचखाण जावजीवनउं लोपी ठाण ॥१९॥
वरिस छसइं श्रीवीरजिनथकी नव अधिके (६०९) जाणो ए थकी । खमणा नामि दिगंबर थया सहसमल्ल पायक थापिया ||२०||
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इम ए साते निह्नव लह्या देशविसंवादी जिन कह्या । सहसमल्लनइ को नहीं समो सर्वविसंवादी आठमो ॥२१॥
जाणी वितणो प्रकार पुण्यवंत कीजइ परिहार । जिनआणा सूधी अणुसरो सुकवि क्रहि शिववनिता वरो ॥२२॥
॥ इति निह्नवविचार - सज्झाय ॥
अनुसंधान-२४
(९) वाचक नयसुंदर विरचित - ३ - मित्र उपनय सज्झाय श्रीजिनशासन पामीइ, गुरुचरणे शिर नामीइ,
धामीइ सेना अंतरिपुतणी ए ॥१॥
सांभलयो सहू धामीइ, मुगतितणा जे कामीइ
खामीइ जीव सवे स्युं हित भणी ए ॥ २ ॥
ढाल
हित भणी कहुं सीख रसाली सांभलि रे तुं प्राणी । हियडा भितरि आंणु अनुदिन श्रीजिनवरनी वाणी ॥३॥ लाख चोरासी जीवा योनि माहिं भम्यो अनंतीवार । जिन दरिसण साचु पाम्या विण नवि छूटो संसार ||४|| एणि जगि सहूइ सवारथ मलीओ ताहरि कुंण हितकारी । श्रीजिनधर्म विना नही कोइ साचुं जोए विचारी ॥५॥ एणि अवसर अधिकार अपूरव जीव जोए तुं जागी । जे दोहलि तुझ अरथि आवि तेहनो होजे रागी ॥ ६ ॥
जिम कोइक मही मंडल नयरि प्रजापाल भूपाल । तेह नइ सुबुद्ध नामि छइ महिंतो बहु बुद्धिवंत दयाल ||७||
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त्रिण मित्र तेणि महिंतइ कीधा नित्य मित्र ते पहिलो । पर्व मित्र ते बीजो बोल्यो जुहार मित्र ते छेहलो ||८|| नित्यमित्र स्युं नेह घणो अति खिण अलगो नवि मेहलइ । तेहनइ जे जोईइ ते आपि तेहy कथन न ठेलइ ॥९॥ लालइ पालइ अनि पखालि संसालि संभालि । संतोषि पोषि सणगारि दूख उपजतुं वारि ॥१०॥ पर्व मित्र साथिं पण पूरो प्रेम हीयासुं आणि । तेहनि जे जोईइ ते आपि करी आंपणो जांणि ॥११॥ जुहारमित्रसुं जुहार लगारेक मासे पाखे दाखि । त्रिणि मित्र साथिं ते महिंतो प्रेम असी परि राखि ॥१२॥
ढाल तेहनि इणि परि चालतां मालतां मंदिरि आप । एक दिन राय रीसावीओ प्रगटीउं तस ते पाप ॥१३॥ मरणांत कष्ट लही करी महिंति विमास्युं मन्नि । हवि जोउं युगतिं गेरख्युं (?) मित्र छई माहरि त्रिनि ॥१४॥ अवसरि आवि आंपणि सही अरथि आवि जेह । पारखि पुहुचि परगडो शुभमित्र कहीइ तेह ॥१५॥ मनस्युं विमासि एहवं नित्य मित्र पूछिओ ताम । सुणि भाई तुझसुं मांहरि एक ऊपर्नु छइ काम ॥१६॥ राजा घणउं रीसावीओ हवि मेहलसि नही आज । मन मानसि तेम पीडसि लोपसि सघली लाज ॥१७॥ तेह भणी नासी तिहां थिकु हुं आविओ तुझ पासि । मुझ राखि बंधव बुद्धि करी पणि बीजं कांइ न विमासि ॥१८॥
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अनुसंधान-२४
कष्ट मांहि पडियां छोडवि ओडवइ आंणी आप । तेह मित्रसुं नेह संडीउ जिम छूटीइ सही पाप ॥१९॥ नित्य मित्र वलतुं बोलिओ खोलीओ मननो भाव । मई तुं तो रखाइ नही मम करसि एवडी राव ॥२०॥ व्यवहार एहनु आकरु कां करो करगर कोडि । नासतां इहां छूटिसि नहीं ए वात सघली छोडि ॥२१॥ मुझनि ति देणुं हतुं ते आपिउं अनिवारि । ताहरु करिउं तइं पामीउं पण न थाइ मइं सार ॥२२॥ हवि इहांथी जा परु मई छोडिओ तुझ नेह । महिंतु सदा जस पोखतु तिणि पणि दीधु छेह ॥२३॥ रायना जणना हाथमां आपवा लागो जाम । महिंतु विमासि मन्नसुं भलि नींबडिओ ए आम ॥२४॥ उतावलो तिहां आवीओ पर्वमित्र पासिं सोइ ।। ते वात सघली तिहां करी मनस्युं धरी दुख होइ ॥२५॥ रे दूख थकी अलगा करु बंधव हवि जस थाउ । राजा रीसाविओ पीडस्यइ वहिला ते बाहरिं धाउ ॥२६॥ मन राखवा महिंता तणुं सो दीइ मुखि संतोस । पण कष्ट कारणिं आवीओ तेह नहीं ताहरु दोस ॥२७॥ रात दिवस रलतु घणुं ते आपतु अह्म सर्व । लेवाइ नहीं दुख ताहाँ स्युं आपाइ तुं गर्व ॥२८॥ अर्जना कीधुं ताहरूं धन भोगवू अह्मे आज । पणि कष्ट ताहरु नवि टलि तुं मिलइ मनसु लाज ॥२९॥ एणी युगति मुखि संतोषीओ महिंता प्रति तेणि ताम । महिंता तणुं पणि तेह थकी नवि सिद्धए को काम ॥३०॥
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दोइ मित्र- लही पारखं ते रहिओ मेहली आस । अतिशोकसागरमाहिं पडिओ मेहलतु मुखि नीसास ॥३१॥ जलहीन मच्छ जिम टलवलि मन नहीं ठाम लगार । इम आरति वेतां आवीओ तस पासिं मित्र जुहार ॥३२॥
ढाल महिंतानई मनि अतिदुख देखी बोल्यो मित्र जुहार । कां बांधव एवडो दुख वेओ कहु मुझनि अधिकार ॥३३॥ तुह्ये एवडं पडीया दुखमाहिं पणि कां मुझ नवि संभार्यु । हुइ ते वात कहु मुझ आगलि कुंणइ दुख न वार्यु ॥३४॥ महिंतु तव बोलिओ गलगलतु स्युं कहुं तुझनि भाई । नित्यमित्रनइ पर्वमित्रनी मिं सवि जोई सगाई ॥३५|| राजा घणउं रिसाव्या माटि लागी बीहक अपार । मित्र बिज पणि घणुं ज विनव्या नवि ठरिया लगार ॥३६।। जन्म लगि जे मि धन अरज्युं ते सवि एहनइ दीधुं । दोहली वेलाइ एक अलारुं एहथी काज न सीधुं ॥३७|| तुझ नि मनशुद्धि नवि मलीओ ते बेहुं तु नेह अटकलीओ । राति दिवस घणुं झलफलीओ पणि तुझस्युं किंपि न मलीओ ॥३८॥ कर्यां अखत्र अनेक अजांणि दूहव्या जीव अनंत । कोडा कोडि गमे वली(अलीक?) भाख्यां नवि संतोष्या संत ॥३९।। ओछां आप्यां अधिकां लीधां कीधा दगा अपार । गाम-सीम पाटि लेई चोल्या पापतणा नहीं पार ॥४०॥ राय तणा मान लही नइ पीड्या परि परि लोक । तोहि मनस्युं दया न ऊपनी जो तेणि पाडी पोक ॥४१॥
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पल्लीपति थई साथ लूटाव्या ऊजाड्या पुर गाम । मारगई पंथी रांक भीषाव्या कीधां कोडि कुकाम ॥४२॥
अनुसंधान-२४
पर प्रांणीनी पीड न जांणी दया लगार न आणी । जिम तिम पर धन कीधां हाणी लक्ष माल लीधा ताणी ॥४३॥
इम अन्याय करी परि परिना मिं धन मेलिउं जेह । नित्य मित्र नइ पर्व मित्र नइ अरथि आपिउं तेह ||४४ ॥
पणि प्रस्ताव पडि ए निसत नवि नींमड्या लगार । माहरु कंपि एणि न जाणिउं कसी न कीधी सार ॥ ४५ ॥ ताहरु एक वार मिं अलवि कांइ न कीधुं काज । तो तुझ आगलि स्युं दुख दाखुं आवि मनस्युं काज || ४६|| जुहार मित्र वलतुं इम बोलि लाज न कीजि भाई । सावधान सही थाजे सुंदर जोजे माहरी सगाई ॥४७॥ प्रेम धरी ते साथिं मत मलयो तेहनुं कहिउं म करजे । लंपट जांणी तुं ओसरजे राजाथी मत डरजे ॥४८॥
ए राजानुं जिहां नवि चालि तिहां हुं तुझनि मेहलउं । आवि बिसि बंधव मुज खंधि ताहरी चिंता ठेलउं ॥ ४९ ॥
जो पणि माहरि खंध चढीनइ वलतुं जोईस साह । तो राजा ततकाल धरी नइ फेरी मागसि नाउं ॥ ५० ॥
तेह भणी सावधान सही थाजे बांधव बहु स्युं कही । संधि न रहि बिहु साथि मलतां दो मारगि किम जईइ ॥ ५१ ॥
महितो कहि एवडुं मत कहिसु तेह नि प्रेमि हुं द्राओ । तेहस्युं नेह हवि स्युं कीजइ भलि मित्र तुं पाओ ॥५२॥ जे तुम्हे कहिस्यु ते परि करस्युं बलिहारी तुझ नामि । ए राजा पीडी जिहां न सकि मुझ मेहलो तेणि ठामि ॥५३॥
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ए थानक जातां ए नृपना जण बहु देखा देसि । जो मुझथी पिण अलगा थास्यु तो सवि लूटी लेसि ॥५४॥ एक-मनो हुं छउं तुह्म उपरि ए मांनजे साचउं । तेहस्युं नेहि हवि स्युं कीजइ काम न कीजइ काचउं ॥५५॥ महिंतानु मन निश्चल जाणी जुहार-मित्र प्रेम आणी । महिंतु खंधि-चढाव्यो जेणी मित्र एहवा करु प्राणी ॥५६॥ जुहार-मित्रइं जे आगन्या दीधी ते सवि महितइ कीधी । आतमराजतणी तेणि पदवी दिन थोडा माहे दीधी ॥५७॥ ए राजा तु किसई न कीजइ दूर टल्या नृप फंद । सोक संताप निवृत्या साथिं पाम्या परमाणंद ॥५८॥ दोहली वेलाई जे अरथिं आवि ते मित्रनी बलिहारी । एहवा स्युं मित्राई कीजि अविचल गुण संभारी ॥५९।। जुहारमित्रनि कथनइ लागु तह ठेल्यां सवि कर्म । मुगति-पंथ निरभय थइ बिठो पाम्यो मुगति सुधर्म ॥६०॥ हवि ए अंतरंग संभारी प्राणी प्रीछे वात । पहिलउं चउद राज ते चिहुं दिसि नगर वडुं विख्यात ॥६१।। कर्मप्रकृति राजा तिहां मोटा जेहनी त्रिभुवनि आण । महिंतु ते आतमा कहीजइ जोई परखयो जाण ॥२॥ ते आतमा महितानि मांनी तुं नित्यमित्र देह । खिण अलगु रही न सकि तेहथी तेहस्युं अतुल सनेह ॥६३|| पुत्र कलत्रादिक पणि बहु कहीइ मित्र ते पर्व । पाप करी अरजी जे लक्ष्मी तेहनि सुंपी सर्व ॥६४|| जुहारमित्र ते धर्म कहीजइ तेहस्युं जीव न राचि । सुखि न मिलइ कदाचित पणि न मिलइ मनस्युं साचि ॥६५॥
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अनुसंधान-२४ इणी परि काल केतलि जातइ कर्म उदय तस आवि । अशुभ कर्म त्रूटति प्राणीनइ एहवं मनस्युं भावि ॥६६॥ काया मि लाली पाली भली परि संभाली । अवसर आवि अरथ न आवी प्रीति करी विसराली ॥६७॥ वेदनी कर्म उदय जो आवि तो राखी न सकि कोइ । तिम महाराय अनाथीनी परि हीइ विमासी जोइ ॥६८॥ ए कोई माहरि अर्थि न आव्यो तव ते धर्म संभारि । जुहार मित्र इणि अवसरि आवी सघली पीड निवारि ॥६९॥ साचो ए अधिकार सुणीनइ तव हीयासुं जागु । जुहार मित्रस्युं प्रेम धरी नि तेहने चरणे लागु ॥७०॥ वडतपगछ मंडण विरागी श्रीदेवसुंदरसूरि । विजयसुंदरसूरि तास पटोधर वंदु आणंद पूरि ७१॥ सकल मनोरथ संघना पूरवि पंडितभानुमेर प्रधान । वडतपगछमंडणवइरागी हुया सुगुणनिधान ॥७२॥ तास सीस नयसुंदर वाचक सीख दीइ अति सारी । आपणा जीव प्रति हितकारी पाप संताप निवारी ॥७३॥ ए आतम प्रतिबोध अनोपम जे भणसि नर नारी । सांभलसि वली तस सुखकारी ते सही तुच्छ संसारी ॥७४॥ ॥ इति ३-मित्रोपनय-सज्झायः ॥श्रीः॥
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(१०) श्रीगुणविजय-विरचित॥ श्रीदशार्णभद्रराजर्षि-श्लोकः ॥
आदरि समरी आदिभवानी हुं गाउं दसारणभद्र मानी । नगरि दसारणि वीर सिधाव्या वनपालकई जइ राय वधाव्या ॥१॥ लाख सोनईआ देइ वधाई वंदन केरी करइ सजाई । जिम कुंणि कहीइं वांद्या न वीर तिम हुं ज वांदुं साहसधीर ॥२॥ गज भद्रजाती सहस अढार चोवीस लाख तरल तुखार । एकवीस सहस सखर सुहाली वहिलि विशेषइ वली छत्रीआली ॥३॥ मुडद्ध महीपति सोल हजार ध्वज सोल सहस अतिहिं उदार । सहस सुखासण सबल वखाणउं पायक पोढा कोडि एकाणउं ॥४॥ पालखी पेखीजइ रंगरोल रथ राजवाहण नइ चकडोल । बंदी ते बोलइ बहु बिरुदाली वाजां ते वाजइ वीण रसाली ॥१(५)॥ सहज सुरंगी सातसई राणी रूपि हरावी रंभ इंद्राणी । चामर चिहुं पखि स्वेत पवित्र मस्तकि मेघाडंबर छत्र ॥४(६)॥ लोकना थोक थाइ हराण गाजइ ते गिरुआं गुहिर नीसाण । इंम आडंबर करीय अमंद पटहस्ति खंध बइठो नरिंद ॥६(७)॥ मन माहिं आव्यउं सबल गुमान महीयलि को नहीं मुज्झ समान । माहरी आगलि सहु तृण तोलइ इंम अभिमानि आकरुं बोलइ ॥७(८)॥ छाह्यो ते खेहई करी खरकिरण दोलति देखि अढारे वरण । महावीर वांदी बइठो नरेश मूरतिवंतो जाणे सुरेश ॥८(९)। तव इंद्रइ प्रजुज्यउं त्रीजउं ज्ञान एहनो गालउं हुं अभिमान । तेड्यो एरावणदेवप्रधान आदेश दीधो थइ सावधान ॥९(१०)।
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अनुसंधान-२४ करु विकूर्वण वंदन काजि वांदस्यउं चउवीसमो जिनराज । आदेश पाम्यइ आव्यो ज हरिस हाथी विकूळ चउसठि सहस ॥१०(११)॥ एकेका कुंजरनइ शिर सार पांचसई ऊपरि अधिकां ज बार । शिर दीठ दंतूसल आठ आठ ए सही साचो आगम पाठ ॥११(१२)। आठ आठ वावि दंत ज दीठ पेखीज विस्मय मनमां पईठ । वावि ज वावं आठ आठ कमल लाख लाख पांखडी तिहां विमल
॥१२(१३)। लाख पांखडीइं नाटक लाख देव देवीनी मधुरी ज भाष ॥ डोडो ज मध्यई एक प्रासाद अठ अग्रमहिषी इंद्र आह्लाद ॥१३(१४)।। जव प्रति कमलई बइठो ज आवइ जम्मक सम्मक नाटक थावइ । श्रीसीहलंछन सुरगिरिधीर इंद्रइ आवीनइ वांद्या ते वीर ॥१४(१५)॥ ऋद्धि तगादो देखी नवेरो मान गली गयो नृप केरो । हुं जो एहनइ पाय नवांडउं भल्लो पोतानो मान भवाडउं ॥१५(१६)॥ इंम विमासी महावीर पासइ संयम लीधउं राइं उल्लासइ । इंद्र कहि मई हवि न चालइ तुं विण कुंण ए भार झालइ ॥१६(१७)॥ महावीर पासिं चारित्र लीधउं माहंत तई बोल्यउंतिम कीधउं । शक्ति घणी छइ मुझ नइ अनेरी करणी न थाइ पणि तुझ केरी ॥१७(१८)॥ इंम प्रसंसी वादी समहुतो आपणइ ठामइ इंद्र पहूतो । श्रीराजऋषिनो वाध्यो ज वान अनुक्रमइ पाम्या केवलज्ञान ॥१८(१९)। भविजन तारी भवदुख वारी मुगतिं पधार्या मुनि जयकारी । कहि गुणविजय कवि मन कोडि वली वली वांदुं हुं कर जोडी ॥१९(२०)॥ शालिभद्र सम कुंण भोगतारी थूलभद्र सम कुंण ब्रह्मचारी । शांति जिणेसर सम कुंण दानी दशारणभद्र सम कुंण मानी ॥२०(२१)।
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ए श्रीदशा[र]णभद्र ऋषिराय - नामइं आनंद थाय । इंद्र हराव्यो पाय नमाव्यो गजगति गामी केवलज्ञान-पामी ।
मुगतिं पधार्या मई मनि धार्या ॥२१(२२)।। ॥ इति दशार्णभद्रराजर्षि-श्लोकः ॥
★★★ (११) श्रीगुणविजय-विरचित
॥ श्रीशान्तिनाथ-श्लोकः ॥ पुर हत्थिणाउर कुरु देश माहि
इक्खागवंशी पुण्यप्रवाह । श्रीविश्वसेन कुल गौरकिरण ।
अचिरादेवी वरकूखि ज रयण ॥१॥ सोलमो तित्थंकर संतिनाथ
पांचमो चक्री शिवपुर साथ । मोहन मृगलंछन मनोहार
शिववधू कंठइ नवसर हार ॥२॥ लाख वरसनउं प्रभुतणउं आय
नाम जपंतां नवनिधि थाय । चा(च)रणिं पारेवो जेणि राख्यो
कुंण दयालू ए सम दाख्यो ॥३॥ नगरि रतनपुरि जिन जयवंतो
सलखणपुरि प्रभु गुणवंतो । दहीओद्र नगरई देव दीपंतु
महिमाइ हरिहरब्रह्म जीवंतु ॥४॥
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अनुसंधान-२४ गुणविजय साहिब गुणमणि दरीओ
केवलकमलानिर्मल वरीओ । पावन परिवारइ परवरीओ
पुण्य प्रसादिं भवजल तरीओ ॥५॥ एहवो एक श्रीसांतिनाथ
अनाथनो नाथ मोक्षमार्गनो साथ । सोलमो तित्थंकर
पांचमो चक्रवर्ती । अम्हारि कुलगोत्रई
मानीइ पूजीइ अरचीइ ॥६॥ ॥ इति श्रीशान्तिनाथ-श्लोकः ॥
★★★
(१२) श्रीगुणविजय-विरचित ।। श्लोकबन्धेन श्रीशद्वेश्वरपार्श्वनाथ-स्तवनम् ॥ ब्रह्मानी धूआ देवी ब्रह्माणी करि गुणग्राम केवलनाणी । सुर नर किन्नर राय वखाणी अपछरा गाइ ऊलट आणी ॥१॥ रायहंस बिठी सुर ठकुराणी वाणी ते बोलइ अमीय समाणी । गाजइ ते गोरी गुणमणि खाणी जागती ज्योति जगमाहि जाणी ॥२॥ पुस्तक पातक-वल्ली-कृपाणी कमल कमंडलनी अहिनाणी । कच्छपी वीणा शोभित पाणी वेद पुराणि प्रगट गवाणी ॥३॥ कासमीर मंडलमां राजधानी धीरज ध्याइ धरी सावधानी । तूसइ ज तेहना दालिद्र कापइ अद्भुत वरु वाणी ज आपइ ॥४॥ जिहां दृष्टि पडी तिहां किणि सार केसर थाइ मणना हजार । विण दृष्टि हुइ कसुबमाल ए वात जाणइ बाल गोपाल ॥५॥
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एहज त्रिपुरा तोतला बाली एहज काजी(ली) ए महाकाली । एहज कालागिणि हरसिद्धि एहज अंबा ए सिद्धि बुद्धि ॥६॥ सोपारा-पाटण माहिं मंडाण अज्झारी गामि वली अहिगण । रंगि ज रही त्रिभुवन्नि व्यापी भगतनई भावि भल बुद्धि आपइ ॥७॥ एहज माता धरीय उल्लास मुझ मुखकमलिं करु निवास । हुँ गाउं प्रेमि पासकुमार श्रीआससेन कुलसिणगार ||८|| सघला ते मंडलमां सिरताज अधिकी ज गूजर खंडनी काज । तेह माहिं वारु. वढीआर सोहइ मोहन मानवनां मन मोहइ ॥९॥ नगर संखेसर निरमल नूर प्रगट्यउं ज पुहविं पुण्यि पडूर । जिनहर मंदिर अति सुविसाल बावन्न देहरी झाकझमाल ॥१०॥ पासजी बइठा संकट चूरइ प्रगटप्रभावि परता ज पूरइ । यादव दलनी जरा निवारी सबल समहुतु कीध मुरारी ॥११॥ नमि विनमीइं एहज आराध्यो साजण सेठ एथी ज वाध्यो । रवि शशि सोहम नई धरणिंद सेवइ विशेषई पासजिणिंद ॥१२॥ को छत्रीआली चड्या चोसाल घम घम घमकइ घूघरमाल । जोतर्या धोरी तुरंगमताजी रेवत रविना जाइ ज लाजी ॥१३॥ को चडी आवइ जन चकडोल पालखी बइठा करइ कलोल । गजरथ घोडा फोज बनाई सार सुखासण सबल सजाई ॥१४॥ भेरी नफेरी नींसाण वाजइ नादि करी नइ अंबर गाजइ । वीणा तंबूरो ताल मृदंग गंधर्व गाइ हुइ उछरंग ॥१४॥ तंबू विराजइ तिहां पंच वरणी सहुइ प्रसंसइ ए भली करणी । थानक थानकना बहु संघ इंम आडंबरइ आवि उतंग ॥१५॥ वर्ण अढारइं लाभइ न पार सहु भरइ पूजी पुण्य भंडार । माणस हेजम कुंण करइ मान सहज सुरंगा द(दे) घण दान ॥१६॥
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अनुसंधान-२४ के करइ जासक जम्मणवार अन्न अवारी मन्न उदार । जम्माडी आपइ तंबोल ताजा निति निति एहवा नवल दवाजा ॥१७॥ को झाझो आणी अगर उखेवइ को वली देहरु ज भरइ मेवइ । को वानी वानीनां फल ढोइ पातग पोतानां पणि धोइ ॥१८॥ लाखीणी पूजा कोइ करावइ फूलनो कोइ पगर भरावइ । चंपकलीनो हार पहिरावइ अंगद बांहिं कोइ बनावइ ॥१९॥ चंग चंद्रुओ कोइ चडावइ कोइक बाजू-बंध घडावइ । हीरानइ चुंनीमाहि जडावइ मस्तकि कोइ मुगट सुहावइ ॥२०॥ केसर सूकडिना रंगरोल कपूरमाहिं छाकमछोल । दीप झलामलि जाणे दीवाली निसदिन मइ ते नयनि निहाली ॥२१॥
खेला ते खेलइ छयल छबीला फूटरा रूडा रूपरंगीला । पात्र प्रपंचइ निरूपम नाचइ राग आलापइ रंगि ज राचइ ॥२२॥ एक संघ आवइ एक सिधारइ पंन्यास वाचक सूरि पधारइ । तिल पडवानो नहीं पणि माग पासजी ऊपरि अति घण राग ॥२३।। सुंदरि सारइ सवि सिणगार कंठि ज ठवइ नवसर हार । वेणी ते सोहइ जिम शेषनाग देखी ते खोभइ जेह नीराग ॥२४॥ नाकइ ते लटकइ छइ नाकफूली मूल न थाइ अति बहुमूली । झब झब काने झबकइ झालि आवी नइ अडकइ गोरइ गालि ॥१५॥ राखडी राती लाल गुलाल अष्टमी समी सुंदर भाल । अलविं ते बहू आंखडी अंजइ वेधक रसियां मन रंजइ ॥२६॥ दाडिमकली दंतनो वृंद जीह ते जाणे अमीयनो कंद । अधर ज ओपइ विद्रुम रंग युव मधुकरनो जिहां किणि बंग ॥२७॥ पीन पयोधर कंचन कुंभ सदली ते साथलि कदली ज थंभ । कडि अति झीणी मुंठि ज माइ केसरी हार्यो वनमाहि जाइ ॥२८॥
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सखर सोनारिं घड्यो ज रूडो हाथइ ते दीपइ कनकनो चूडो । कंकण जमली सार कारेली बइसती वींटी पासइ ज बेली ॥२९।। कटि कटिमेखल खल खल खलकइ चोखी ज चुंनी तेजइं ते सकलइ । चरणे ते झांझर झमझमकार वींछीयडानो ठमठमकार ॥३०॥ पहिर्यउं ते नारी कुंजर चीर चोली चरणा जिहां मसूल हीर । घाटडी कोमल कलगयकेरी फूलनी हार्थि चंग चंगेरी ॥३१॥ पातली जाणे चंपक छोड चमकती चालइ मोडा ज मोड । सांमटी सरखी सहीयर टोली भाव भलेरो भांभर भोली ॥३२॥ केसर चंदन घन घसी घोली सुभर भरी ते कनक कचोली । पासजी पूजइ मनि धरी प्रेम द्रुपदी पूज्या जिनवर जेम ॥३३।। पास संखेसर परम दयाल वामा उअर सर राजमराल । राणी प्रभावतीनो भरतार गुणविजय गाइ गुण वारोवार ||३४|| एवं ए श्रीसंखेसर पार्श्वनाथ अनाथनो नाथ मोक्षमार्गनो निर्भय साथ । अनि ए छंडी अवर देवनि आराधि ते लि (दिए?) वाओलि बाथ । एहवउं जाणी भव्य प्राणी भाव धरी भगवंतनइं मनमाहिं धरीइ । सहजइ दुःखमा दुःख समुद्र तरीइ निश्चय केवलश्री वरीइ ॥३५॥ ॥ इति श्लोकबन्धेन श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथ-स्तवनम् ॥ श्रीपत्तननगरे॥
★★★
(१३) श्री गुणविजयविरचित ॥ श्रीवीशस्थानक-नाम-स्वाध्याय ॥
सुगुरु नमी सुररयण समान थानक वीस तणां अभिधान । पभणउं अति ऊलट मन धरि सुणयो भवियण भावि करी ॥१॥
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अनुसंधान-२४ पहिलि पदि जपीइ अरिहंत बीजि सिद्ध भजो भगवंत । त्रीजि नमो पवयण संधारि चोथि आयरियाणं सार ॥२॥ पंचम पदि थेराणं सुणो छठि उवझायाणं गणो । निपुण नमो लोए[साहूणं] सातमि जपो नमो नाणस आठमि ॥३॥ नमो दंसणस नुमि धन्न दसमि नमो विनय संपन्न । इग्यारमइ नमो चारित्त बंभव्वय बारमि सुपत्त ॥४॥ किरियाणं तेरसमि जाणि नमो तवस्स चउदमि ठाणि । गणो नमो गोयम पनरमि नमो जिणाणं जपो सोलमि ॥५॥ गणि चारित्त नमो सतरमि नाणस्सय पद अट्ठारमि । नमो सुयस्स य ओगणीसमि तिम तित्थस्स नमो वीसमि ॥६।। एक(एम) वीसइ थांनकनां नाम जिनपद वशीकरण अभिराम । श्रीगुरु कनकविजयबुधसीस कहि गुणविजय जपो निसदिस ॥७॥
॥ वीस थानिक नाम सझाय ॥
(१४) श्रीगुणविजयविरचित ॥ श्रावकना पांत्रीस गुणनी सज्झाय ॥
सरसति चरणि नमाडी सीस पभणउं श्रावक गुण पांत्रीस । 'न्याय सहित संपति घरि भरइ शिष्टाचार प्रशंसा करइ ॥१॥
सरिखि धरमि वसि वीवाह करि धरी निज मन उच्छाह । "पाप थकी बीहइ निज हदइ ५अयशवाद नवि कहिनो वदइ ॥२॥ 'जे जे जिणि जिणि देशि उदार करि सदा ते ते आचार । "रूडा पडोसी नइ पासि भलि ठामि जस घरनो वास ॥३॥
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'सदाचार नरनो जस संग मात-पिता पूजानो रंग । ११त्यजइ उपद्रवनो जे ठाम १२न करि जननिंदित तिम काम ॥४॥ १२लाभ सरिस धननो व्यय करइ वेष१५ वित्त अणुसारिं धरइ । १५मतिगुण आठ न मुंकइ कदा १६सूधो धरम सुणइ सर्वदा ॥५॥ १७अजरइ जस जिमवू नवि गमइ १८भोजन उचितसमय जे जिमइ । १९धरमादिक पुरुषारथ जेह अवसरि अवसरि सेवइ तेह ॥६॥ २०अतिथि साधु भिक्षाचर तणी युगति यथोचित मंडइ घणी । २१अभिनिवेश नवि मनमां धरइ २२पासउं जे गुण आदरइ ॥७॥ २३अनुचित ठामि २४अकालिं वली नवि विचरइ निज मननी रुलि । २५जाणि ठाम बलाबल तणउं २६गुणगिरुआनो भगतु घणउं ॥८॥ २७जे हुइ सदा पोषवा योग तेहना सवे पूरवइ भोग । २८दीरघ दृष्टि लहइ सुविसेस २'कीधुं नवि लोपइ लवलेस ॥९॥ ३°सदा लोकनइ वाहलो सही "लाज चित्तथी मूंकइ नही । ३२अविहड करुणा रस भुंगार ३२सोमसभाव करइ उपगार ॥१०॥ ३४अंतरंग छह रिपु परिहरइ ३५पांचइ इंद्रिय नियवसि करइ । श्रावकना ए गुण पांत्रीस हितकारणि बोल्या जगदीसि ॥११॥ श्रावकधर्म मुगतिनो पंथ इंम भासइ पूरव निग्रंथ । ज्ञातपुत्र सेवाथी लह्यो श्रीगौतमि गुणविवरो कह्यो ॥१२॥
॥ इति सझायः॥
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अनुसंधान-२४ (१५) ॥ सिद्ध स्वरूप-स्वाध्यायः ॥
राग-धन्यासी ऊठि घुटि घणउं चेतना नारि तुं
ज्ञान दीवो करी जो विचारी । एक अनुपम सरूप चिंति तुं सिद्धनुं
जु तुझ जीव छइ सुमति धारी ॥९॥ ऊ०॥ जो न जगदीसरो जो न परमेसरो
जो न अमरेसरो परमपुरुषो ।। जो न रूपं धरइ कर्म कछु नवि करइ
कछु न मुखि उच्चरइ कुंण न सरिखो ॥२॥ऊ०॥ कुंण थकी नवि डरि कछु भी जो नवि चरि
पदथकी नवि गिरइ गौ न चारइ । उदरि नवि अवतरि शस्त्र करि नवि धरइ
हृदय दुखि नवि झरइ नवि करावइ ||३||ऊ०॥ रोस भी नवि करी प्यार भी नवि धरी
ध्यानथी भगतनां दुख हरावइ । त्रिजगमा नवि फिरइ नीदि तनु नवि भरि
नवि मरि सो किस्यइं नो मरावइ ॥४||ऊ०॥ जोहि लोकालोक जेवडउं तनु विना
एक लोचन धरि एक जीवो । दुख हरि सद्ध बुद्धो सदा शिवि वसइ
सकल योगीसरो हृदय दीवो ॥५।।ऊ०।। ॥ इति सिद्धस्वरूप-स्वाध्यायः ॥ ॥ गणिधनवर्द्धनवाचनाय श्रीपत्तननगरे ॥
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कठिन तथा पारिभाषिक शब्दोना अर्थ
कृति १. खिमा पंचावन्नी
कडी शब्द
अर्थ १ खेडं खेटक-शस्त्रविशेष(?)
पेडुं पेटक-सैन्य पर-दल शत्रुसैन्य दुरगतिनां दल दुर्गति योग्य कर्म जष्य
जक्ष-यक्ष अंतगडा अंतकृत-संसारनो अंत करनार थविरई स्थविरे वढतो झघडतो तरुउं सीसुं अहियासी
सहन करी कुकठ कुकाष्ठ खालि
खाल-खाई आलि फोकट-वृथा-अलीक वाधरि चामडानी रज्जु-पट्टो थूभ स्तूप
खेंचे दार्यो खेडी रह्यो नलिनीगुलम- सौधर्म नामे प्रथम देवलोकनुं
विमानि एक विमान उपसरग उपसर्ग-उपद्रव फाल्यओ फाड्यो-करडी खाधो हईआर्नु हृदयराणोराणि मोटा राणाओ
पांतर्यो १५ छांनोमींनी छानोमानो
ठेले
४६
२. नारी स्वरूप
प्ररूपण स्वाध्याय
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मुंसी मनोभव
कमलाणी
आहेडी
धणुहडी
करलीनइ
५,१० विललाई
२२
विहरावत
४. संसारस्वरूप - सज्झाय २
आथि केरो
३
३. श्रीबलभद्रऋषि
सज्झाय
५.
हितशिक्षाबोल -
सज्झाय
६. समता सज्झाय
७. जीभ - सज्झाय
३ मित्र- उपनय सज्झाय
४
६
९
१०
८
४
७
१०
१४
or ov
१९
२१
छार
नीलज
डंभक
खुंट
खरड
सूधो
पंपल
वसमसि
सीथ
पुंठि मांस
पोलि
पगारा
जामलि
महिंतो
संसालि
रख्यं
ओडवइ
करगर
लूंटी
कामदेव
करमाणी
आखेट - शिकार
धनुष्य
चीस पाडीने
कणसवुं / विलाप करवो.
वहोरावतो - भिक्षा आपतो अर्थनो-धननो
राख
निर्लज्ज
दंभी (?)
आखलो
ऊंट/गर्दभ
शुद्ध
?
?
अनुसंधान - २४
दाणो-सिक्थ
पृष्ठमांस- पाछळथी निंदवुं
वगोववुं
पोळ
प्रकारा-किल्लो
यमल-
महतो- महामात्य
-जोड (तोले)
?
?
?
विनंति, करगरवुं
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२४
६७
१०. श्रीदशार्णभद्रराजर्षि- ३
श्लोक
नींबडिओ ? रलतु रळतो-कमातो आरति वेतो पीडातो अखत्र
अखतरां-अक्षत्र भीषाव्यां डराव्या निसत निःसत्त्व नीमड्या नीवड्या-काम लाग्या द्राओ द्रवी गयो आगन्या
आज्ञा दोहली
दुःखनी परखयो
परखजो-परीक्षा करजो विसराली विनश्वर-भंगुर सखर
उत्तम सुंहाली सुंवाळी-सुकुमाल वहिलि वेलढुं-वहेल छत्रीआली छत्रवाळी मुडद्ध मुकुटबद्ध गुहिर
गंभीर खेहई धूळथी प्रजुंज्यउं
प्रयोज्यु-उपयोग मूक्यो त्रीजुं ज्ञान
अवधिज्ञान विकूर्वण विकुर्वणा करवी
वैक्रियलब्धिथी बनावq जम्मक सम्मक जमक शमक
(चमक दमक)
देखाडो-आडंबर नवेरो नवलो-नवो नवांडर्ड नमा
१५
तगादो
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अनुसंधान-२४
भमाडं-वधाएं
११. श्रीशान्तिनाथश्लोक १ । १२. श्लोकबन्धेन १ श्रीपार्श्वनाथस्तवनम् ४
१३
चन्द्र दुहिता-दीकरी वरदान ? सूर्यना रथना अश्वो
भवाडउं समहुतो गौरकिरण धूआ वरु चोसाल रेवत रविना हेजम जासक अवारी ढोइ सूकडि फूटरा कारेली माल बाओलि अजरइ
याचक रोकटोक विना धरे छे सुखड-चंदन फुटडा-रूपाळा
कोमळ-मसृण बावळे पाचन थया विना-जर्या विना
६
१४. श्रावकना पांत्रीस
गुणनी सज्झाय
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट, पालडी,
अमदावाद-३८०००७
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श्रीब्रह्म विरचित उपदेशकुशलकुलक
सं. सा. दीप्तिप्रज्ञाश्री
धर्मनो उपदेश केवा पात्रने आपवो अने कोने न आपवो ते विषयनुं प्रतिपादन करनारी आ लघु रचना गुजराती भाषामां चोपईनी ढाळमां श्रीब्रह्मनामना कविए रचेली छे. अयोग्य आत्माने हितकारक उपदेश आपवानां केवां परिणाम आवे अने ते केवो निष्फल जाय ते वात समजाववा माटे पहेली १४ कडीमां लौकिक दृष्टान्तो तथा १५ थी २७ कडीओमां जैन शास्त्रीय दृष्टान्तो समजाव्यां छे, तथा तेवा जीवोने भारेकर्मी कह्या छे. २८मी गाथामा हलुकर्मी जीवोनां नामो छे, अने २९मी गाथामां पर्षदानी परख करीने धर्म-कथन करवा योग्य छे एवं सूचन आचारांगसूत्र - नन्दीसूत्र जेवां आगमोना हवाला साथे जणाव्युं छे.
उपदेशकुशलकुलकनी आ प्रत ला. द. विद्यामन्दिरना ग्रन्थागारमां ला.द.भे.सू. १४६६३ ए क्रमांके नोंधायेली छे. त्यांना संचालकोए २ पानांनी आ प्रतनो उपयोग करवा दीधो ते बदल तेमनो आभार मानुं छं.
प्रतनुं मूळ लखाण पूरुं थयुं पछी एक गुजराती सुभाषित रूपे चोपई छे, ते यथावत् अत्रे आपवामां आवी छे. परन्तु ते पछी बीजा पत्रनी B. साईडमां, लेखके स्वहस्ते एक ऐतिहासिक गणाय तेवी पोताना जीवनमां बनेली घटनानुं संक्षिप्त वर्णन गुजरातीमां ज आलेख्युं छे, ते पण परिशिष्टरूपे ज आ साथे मूकेल छे. कुलकनी नकल ऊतार्या पछी आगळनुं लखाण जोईने 'शुं हशे' तेवा कुतूहलथी ते उकेलवानी महेनत करतां आ ऐतिहासिक वात सांपडी छे.
ए लखाण तथा कुलकना लखाणना अक्षरो एक सरखा छे, तेथी आ प्रति सं. १६८२मां लखाई हशे तेम लाग्युं छे. कुलकना कर्ता श्रीब्रह्म नामना साधुमहाराज छे, अने प्रतना लेखक लाल.... एवा नामना छे. ते लेखकनुं नाम त्रुटी गयुं होवाथी उकेली शकातुं नथी.
हवे पेली ऐतिहासिक वात अंगे- सं. १६८२ना फागण वदि ६ने
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अनुसंधान-२४ बुधवारे राते (नशा-निशा) घडी ५ तथा ६ नी वच्चे गुजरात देशमां धरतीकंप थयो हतो, अने प्रतना लेखके तेनो स्वानुभव को हतो तेनुं संक्षेपमां पण सुस्पष्ट वर्णन तेमणे लख्युं छे. ते समये पोते अहमदाबाद नगरमां बीबीपुर (सरसपुर)मां धातरीवाडानी पोळमां बेठा हता, अने 'शील रास' नो स्वाध्याय करता हता अने श्रावक साह महावजी तेनुं श्रवण करता उपाश्रयमां ज बेठा हता, ते समये अचानक धरती हाली, ते पळे तेमणे केवी कल्पनाओ करी तेनुं सरस वर्णन कर्यु छे.
प्रथम तो तेमने भ्रम थयो के कोईक जाणी करीने हलावे छे. पछी थोडीवारे लाग्युं के कोई देवता उत्पात करी रह्या छे. त्यां तो घर घरना लोको बहार आव्या अने 'अमारां घर पडे'नां बूमराण मची गयां, त्यारे ख्याल आव्यो के आ तो धरतीकंप हशे.परन्तु तेओ तेने 'देवचरित्र' ना नामथी ज ओळखावे छे.
छेवटे तेओ नोंधे छे के (अमदावादनी जेम) पाटणमां पण घणा घर पडी गया, केटलाक माणसो पण मृत्यु पाम्या, अने नर्मदा (रेवा) नदीना पाणीमां सोनो उपद्रव पण थयो. (धरतीकंपने लीधे भूमिगत तथा पाणीगत सर्पो व्याकुल थईने नदीना जळमां फसाया होय ते संभवित छे.)
आमां शीलरासना कडवानो उल्लेख छे, ते पार्श्वचन्द्रगच्छीय विजयदेवसूरिए रचेला शीलरासना पहेला कडवानी १०मी कडी छे, ते पण तपास करतां जाणवा मळ्युं छे.
आशा छे के आ लखाण इतिहासरसिको माटे उपयोगी नीवडशे. आ प्रतनुं सम्पादन करवामां गुंच आवी त्यारे ते उकेलवामां श्रीचेतनभाई भोजके मदद करी छे तेनो ऋणस्वीकार करुं छु.
आ उपदेशकुशलकुलकना कर्ता विशे जैन गूर्जर कविओ-भाग १ (पृ. ३२१-२२)मां नोंधायेली विगत प्रमाणे ब्रह्ममुनि पार्श्वचन्द्रगच्छना साधु हता, पछीथी तेओ आचार्य विनयदेवसूरि तरीके ओळखाया, अने तेमणे सुधर्मगच्छनी स्थापना करी हती. तेमनो सत्तासमय सं. १५६८ थी १६४६ छे. तेमनी विविध रचनाओ विषे ते सन्दर्भमां नोंध छे, जेमां आ रचना विषे नोंध
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जोवा मळती नथी. गुजराती साहित्य कोश (मध्यकाल) पृ. २७०मां पण तेमना विषेना अधिकरणमां आ रचनानी नोंध नथी. अलबत्त, तेमां आ प्रमाणे नोंध छे : "उपरांत तेमनां केटलांक स्तवनो, सज्झायो, कुलको अने प्रासंगिक काव्यो पण मळे छे."
उपदेस कुशल कुलक वरसइ पुक्खरावरं तसु मेहा । तव पृथिवी भेदाइ नीरि । पुण इक मगसेल्यउ न भेदाइं अति नान्हउ अनइ कठिन सरीरि ॥१॥ तिम गुरु वचनई किमइ न भेदइ । जे हुइ प्राणी भारीकर्म । चूंक शोक जउ अति घण कीजइ । तउ नवि बूझइ साचउ मर्म ।२। आकणी ॥ बावन चंदन गंध तजीनइं कसमल ऊपरि माखी जाइ परिमल कमल तणु छंडीनइं । डेडकडूं नित कादव खाइ ।३। तिम गुरु व. । कालई कांबलि गलीयलि कापडि । चोलतणु नवि बइसइ रंग । वायसवान न थाइ धुलउ । जउ नितु डोहइ यमुना गंग ।३(४)। तिम नि. । चीगटइ कुंभई जल नवि भेदइ । न रहइ काणइ भाजनि नीर । रवि देखी घूअड हुइ अंधउ । पान न लइ वसंति करीर ५। तिम गु.वि. ।
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अनुसंधान-२४
मूंग कांगडू कणमाहि जेहवउ । पाणी अगनि न छीपइ अंस । जल केलव्या न थाइ तंदुल । बग सीखव्यउ न होवइ हंस ।६। तिम गुरु. । मृगमद अगर कपुरइं वास्यु लसण न पांमइ रूडउ ग(गं)ध । सूरि जस सिहर दीवा योतिइ । किमही नवि देखइ जाचंध ७। तिम गुरु. । ऊग्यु चंद चोरनंइ गमइ । मेहिई जवासउ सूकी जाइ । खीर खंड घृत मीठउं भोजन । पेटि कूतिरा नइ न संमाइ ।८। तिम गुरु. । मीठी द्राख न वायस चाखइ । श्वांनन पूंछडी समी न थाइ । आंबानूं वन करहउ न चरइ । अन्याइनइं न गमइ न्याय ।९। तिम गुरु व. । खाइ नर सनेपातियउ साकरा । पापीनइ धरमी न सुहाइ । रुचइ नही पापउ मधुकरनई घुण नितु सुकउ लाकड खाइ ।१०।तिम गुरु. । गाम समीपि नदी सूंकी निइ रासभ राखइ घरडसू अंग कुलवंती कामनी तजीनई नीच करइ पर रमणी संग ।११।तिम गुरु व. ।
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नल फीटी सेलडी न होवइ ईख तणइं जउ वाधइ संगि दूध गुलई जउ लीब सीचाइ तउ मीठउ न वि थाइ प्रसंगि ।१२। तिम गुरु व. । खीर सर पमुखि न हुवइ अमृत काच कमायउ रतन न होइ खारउ न टलइ समुद्र नदीयइ मोटइ वडि फल नीरस जोइ ।१३। तिम गु. । माथइ मणि निलु वहइ भुयंगम तउ हइ ते नवि निरविष हुति राम तणी सेवा करइ हणमंत लंगोटी अधिकुठं न लहंति ।१४। तिम गुरु. । इम लोकिक संबंध विचारी लोकोत्तरनी सुणजो वात चित्रई ब्रह्मदत्त समजाव्यउ विरति तणी नवि आणी धात ।१५॥ तिम गुरु. । महावीरनउ सीस जमाली तिहनइ नवि लागउ उपदेस । कालगसूरिउ कपिला दासी गोसालउ पामस्यइ क्लेश ।१६। तिम गुरु. । विष्णुकुमरना वचन सुणीनई नमुचि न मानी कांइ सीख मारणहार उदायी नृपनु बार वरस लगि पालइ दीख ।१७। तिम गुरु. ।
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84.
अनुसंधान-२४ सीस पंचसय केरउ नायक अंगारमरदक नामि सूरि श्रावकि परख्यउ अभव्य दया विणु निरगुण जाणी कीधउ दूरि ।१८। तिम गुरु. । महाशतक श्रावकनी घरणी नामि रेवती निरगुण नारि । परदेशी घरि सूरीकंता कर्यउ कंतनई विष संचार ।१९। तिम गुरु. । संवेगी सावद्याचारिज सूत्र विरुध तिणि काउ विचार । नागिल बंधवि बहु समजावीउ सुमतिइं कुगुरु न त्यज़्या लगार ।२०। तिम गुरु. । सीलसनाह रिषिई प्रतिबोधी रुषीयिं नवि काढ्यउ साल । वरस पंचास तपइ तप लखणा तसु फल न थयउं एकइ वाल ।२१। तिम गुरु. । ईसरनइ मनि धरम न भेद्यउ रजा महासतीनई थ्यउ रोग । फासूजलथी काया विसणइ ईम भामइ घाल्यउ बहुलोग ।२२। तिम गुरु. । पालक कुमरि नेमि जइ वंद्या कंडरीकई पाल्यउं चारित्र कृष्ण साथि कीयउं वीरइ वंदण फलई फेर अति थयउ विचित्र ।२३। तिम गुरु. ।
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संगति एहनई हूती रूडी पुण नवि प्रीछउ सार विचार । कर्म निकाचित जेहनइ पोतइ ते प्रतिबोध न लहइ लगार ।२४। तिम गु. । दृष्टिरागि नर जे हुइ रातउ जे हुइ द्वेषी अति घणघोर मूढ वचन परमारथ न लहइ विग्रहइ पाड्यउ वेदइ कठोर ।२५। तिम गुरु. । ए चिहुनिइं धरम कहिवा बिसइ ते नवि जाणइ आगम रीति । कूकर वदनि कपूर जि घालइ ते डाहपणूं न धरइ चीति ।२६। तिम गुरु. । लोहवणिक जिम करइ कदाग्रह सूत्र न साचूं प्रीछइ जेह । लोक प्रवाहइं मूंड मेलावइ राचइ धर्म न जाणइ तेह ।२७। तिम. । भारीकर्म घणानीं ए परिं हलूकर्मी प्रीछइ ततकाल । संनुतकुमार चिलाती नंदन थावच्चासुत गयसुकुमाल ।२८। तिम गुरु व. । परिषद पुरुष जोइनई कहिवउ । धर्म काउ इम आचारंगि नंदीसूत्रि ए साखि सकारी । श्रीब्रह्म कहइ जोड्यो मनरंगि ।२९।।
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अनुसंधान-२४ इति उपदेश कुशल कुलं (कुलकं) समाप्तं । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु लेखकपाठकयोः ॥ काल दकालि जे नर सती, भरयौवन वय जे नर यती अल्प आहारमा जे द्यइ ग्रास, कहि कृष्णजी तेह घरि मोरु वास ॥१॥
उपदेशकुशलकुलक, परिशिष्ट
एक ऐतिहासिक प्रसंगनी नोंध
संवत १६८२ वर्षे फागुण वदि ६ बुधे । जंबूदीपे भरतखंडे । गुजरदेशे । फागुण वदि ६ नशा घडी ५ तथा ६ निः माझनि भूमिकंप हूउ धरती हाली तेहनु कालमान घटिका १ प्रमा आश्रिइ अहमदावादि श्री नगरि विचि बीबीपुर मध्ये । बठां । उत्तरदिशि सन्मुख उष्णि धातरीवाडानी पोलि माहिं बिठा तिकां शीलनु रास ते भणतां उआश्रजिनु श्रावक महावजी साहा सांभलता हूता "पणि वनि चीत्तनी चोरणहार । काम कटक माहि नायका नारि ।" ए कडवु भणीइ छइ एत पूठि घरनी छापरु हालुं मन माहि भ्राति उपनी जेए कुण हलावइ छइ । पूठिवाली जोउं को दीठू नही पछि बिठा हूता जे उष्णइ ते हालु एहवु जे जाणू विहिसीनि पडसि मनसूं विगर थया एतलि तु घरनी भीति हाली तिहारि जांणूउ जे काई उतपात काई देवतानुं प्राकम शास्त्र न्याइ निरधारूं एतलइ तु घर घर प्रति डूहालु थयु लोक घर बाहरि नीकला सहू इंमज कहि जे अह्मारूं घर पडइ छइ पडइ छइ । घर उपरि नलीआ हालां एहवू देवचरित्र हूउ । पाटणमा पणि घर घणा पड्या । माणसनी पणि केतलाएकनी उपघात थई। रेवा नदी माहि तु पाणीमा शाप उपना सांभल्या लखितं लाल०साध से (लालचंद साधसेवक ?) ||
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कडी
१.
२.
३.
४.
७. ९.
१०.
१६.
२२.
पुक्खरावर मगसेल्य
यूंक
कसमल
डेडकडूं
stee
जाचंध
करहउ
चापउ
कालगसूरिउ
फासू भामइ
शब्दार्थ
पुष्करावर्त्तते नामनो एक मेघ मगरोलियो पत्थर - मुद्रशैल
कश्मल-गंदकी
देडको
धूओ
जात्यन्ध-जन्मान्ध
ऊंट
चंपो
कालसौकरिक नामनो कसाई
अचित्त, निर्दोष-प्रासुक
भ्रममां
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C/o. देवी कमल स्वाध्याय मन्दिर ओपेरा, नवा विकासगृह, अमदावाद - ३८०००७
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षट्प्राभृतमां दन्त्य नकारना प्रयोग
- डॉ. शोभना आर. शाह
दिगम्बर परंपरामां आचार्य कुन्दकुन्द सौथी प्रसिद्ध अने सर्वाधिक पूजनीय आचार्य मानवामां आवे छे. भगवान गौतमस्वामी पछी तरत ज कुन्दकुन्दाचार्य- स्थान आवे छे. कुन्दकुन्दाचार्यना नामथी प्रचलित षट्प्राभृत' (दर्शन, चारित्र, सूत्र, बोध, भाव अने मोक्षप्राभृत) उपरांत लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, रयणसार अने बारहअणुवेक्खा आ पांच ग्रन्थ प्रकाशित करवामां आव्या छे. तेमना रचित दर्शनप्राभृतमां २९ गाथाओ, चारित्र प्राभृतमा २६ गाथाओ, सूत्रप्राभृतमा २१ गाथाओ, बोधप्राभृतमा ५६ गाथाओ, भावप्राभृतमां १७५ गाथाओ अने मोक्षप्राभृतमा ७५ गाथाओ आपवामां आवी छे.
षट्प्राभृतमां प्रारंभिक दन्त्य नकार अने (सामासिक') मध्यवर्ती दन्त्य नकार मळे छे. शौरसेनी अने महाराष्ट्री प्राकृतमां दन्त्य नकारनो प्रयोग सामान्य रीते जोवा मळतो नथी. श्वेताम्बरोना अर्धमागधी आगम ग्रन्थोमां प्रारंभमां दन्त्य नकारनो प्रयोग बहुलताथी मळे छे, अने क्यारेक क्यारेक मध्यवर्ती नकारनो प्रयोग पण मळे छे. दिगम्बर जैनोना शौरसेनी भाषाना ग्रन्थोमां प्रारंभमां अने मध्यमां दन्त्य नकारना बदलामा प्रायः मूर्धन्य णकार ज मळे छे. परंतु षट्प्राभृतमां केटलाक एवा प्रयोग पण मळे छे जेमा प्रारंभमां अने (सामासिक) मध्यवर्ती दन्त्य नकारना माटे दन्त्य नकार मळे छे. पालि त्रिपिटक, प्राचीन शिलालेख अने अर्धमागधी भाषाना प्रयोगोने जोतां ए स्पष्ट छे के प्राचीनतम प्राकृत रचनाओमां दन्त्य नकार यथावत रहेतो हतो. परंतु पाछळथी प्राकृत व्याकरणना नियमोना प्रभावमां आवीने दन्त्य नकारने मूर्धन्य णकारमां बदली देवामां आव्यो. आ दृष्टिथी षट्प्राभृतमां दन्त्य नकारवाळा प्रयोग ध्यान आपवा योग्य छे जे प्राचीन परंपराथी प्रभावित छे अने आ प्रमाणे छे.
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अध्यायनुं नाम
दर्शनप्राभृत
चारित्र प्राभृत
सूत्र प्राभृत
बोधप्रभृत
भावप्राभृत
पृष्ठनं.
२३
३६
४१
४२
४९
६१
६२
६३
६४
६५
७०
७८
८२
८२
९२
१०८
११२
११९
१३०
१३०
१३१
१३३
१३५
१४५
श्लोकनं. प्रारंभिक मध्यवर्ती
( सामासिक ) नकार
२९
९
१८
२०, २०, २७
३३
१०
१२
१५
१८
१९
2 2 m x 2
२७
१०
१३
१४
२७
४४
४८
५५
३
४
20
१)
९
१२
२८
- निमित्ते
निव्वाणं
नियगुण
निरायारं
- निवासो
निच्चेल
निज्जरा
निरवसेसाइं
न
निरायारो
नियत्ता, नियत्ताइं
निग्गंथ
निरुवममं, निम्मिविय
निग्गंथ
निम्मवं
निराक्खा
निरावेक्खा
- निमित्तं
- निमित्तं
न
-निग्गंथ
निरंतरं, - नरय
- निलएसु नियोग
89
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________________
90
१५३
१७१
१८३
२०१
२०४
२०५
२१०
२११
२१४
२१५
२१६
२१९
३९
४६
४९
५४
२५६
२६१
२८०
२८२
२८२
५७
६०
६७.
६८
७१
3 3 3 3 3 w 3 or
७२
७३
७७
२३३
२३४
२३५
२३७
२४०
२४७
२५४ १०२
२५६
१०५
१०६
१०८
१११
१३०
१३३
१३४
८२
८४
८६
८७
९१
९८
नवदसमासेहिं नियाण-, न
नरयं
नग्गेण
निम्ममति
-- निम्मलं
नारय-,
नग्गा
नग्गो (३ बार), न
निप्पवासो, निष्फल-, निगुण,
नलसवणो, नग्गरूवेण
न, - निग्गंथा
नग्गो
-नाम
- निमित्तं (२बार) निरवसेसाई
- नरयं
निरत्थओ
निम्मह
नर
न
निठुर
-निमित्तं
नराणं
नईहिंतो
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न
निरंतरं
- निमित्तं
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मोक्षप्राभृत
my
निम्ममो, निरारम्भो निरइ निस्सरिढुं
m
mm
निम्मल
mr
mm
३१२ ३२०
३२१ • ३२९
३३२ ३३३ ३४० ३६१ ३६५ ३६६ ३६७ ३८६ ३९०
m m
१२ २५ २६ ३९ ४५ ४६ ४७ ८० ८६ ८८ ९० ८ ३०
Mr
नियमेण निग्गंथनिक्कंप, सुनिम्मलं नरवरा निग्गंथे
m
mr
mr
शीपाभृत
mm
नरयं
मध्यवर्ती दन्त्य नकार भावप्राभृत
२७३ १२१ -अनिल___ उपर्युक्त तारणथी ए फलित थाय छे के प्राचीनकाळमां शौरसेनी भाषाना ग्रंथोमां दन्त्य नकारना बदलामां मूर्धन्य ‘णकार' ना प्रयोग रूढ न
हता.
संदर्भ ग्रन्थ : १. श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः षट्प्राभृतादि संग्रहः ।
श्री माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति । १९७७ २. समासना बीजा शब्दनो प्रारंभिक नकार लेवामां आव्यो छे. जेनी
आगळ डेस (-) मूकवामां आवी छे.
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षट्प्राभृतमां विभक्तिरहित शब्दरूप
कुन्दकुन्दाचार्यना नामथी प्रचलित षट्प्राभृत' ग्रन्थमां दर्शनप्राभृतमां २९ गाथाओ, चारित्रप्राभृत २६ गाथाओ, सूत्र प्राभृतमा २१ गाथाओ, बोधप्राभृतमा ५६ गाथाओ, भावप्राभृतमा १७५ गाथाओ, अनो मोक्ष प्राभृतमां ७५ गाथाओ आपवामां आवेली छे. जेमां केटलाक विभक्तिरहित प्रयोगो उपलब्ध थाय छे. छन्द जाळववा माटे विभक्तिनो लोप करवामां आव्यो छे. आवी प्रवृत्ति अपभ्रंश भाषामां वधारे जोवा मळे छे. तेथी अनुमान करी शकाय के तेना उपर अपभ्रंशनो प्रभाव जोवा मळे छे. आथी एम कही शकाय के आ कृतिओ कुन्दकुन्दाचार्यना समयनी होय तेम जणातुं नथी, अने तेमना समयनी होय ज, तो तेमनो समय घणो पाछळ लाववो पडे. आनां उदाहरण नीचे मुजब छे. अध्याय- पृ.नं. श्लोक शब्द प्रयोग प्राकृत मूळ रूप नाम दर्शन प्राभृत ७ ९ दोस(दोषान्)
दोसा परिवार (परिवारस्य) परिवारस्स तच्च(तत्वानि)
तच्चाणि पढम (प्रथमम्)
पढमं दंसण (दर्शनम्)
दंसणं चारित्र प्राभृत
दुविह (द्विविधम्) दुविहं -दोस (दोषान्)
दोसा णिस्संकिय (निःशंकितम्) णिस्संकियं णिकंखिय (निःकांक्षितम्) णिकंखियं उवगृहण(उपगूहनम्) उवगृहणं
वच्छल्ल (वात्सल्यम्) वच्छल्लं ३६ १० अवगृहण (उपगूहनम्)
अवगृहणं ३८ १५ पव्वज्ज(प्रव्रज्यायाम्)
पव्वज्जाए ३८ १७ -दंसण(दर्शनेन)
दंसणेण
Mrm w ,
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सूत्र प्राभृत
बोधप्राभृत
४२
४२
४५
४५
४७
७७
८५
८९
१५
१००
2
२०
२१
१०३
५०
५१
५५
५६ २
६६
६८ २४
≈ I ∞ I w 30 ~ o x & 2
२४
२५
२९
३५
३६
४४
२१
१७
२३
२९
३३
३७
रहिय ( रहिते)
दंसण ( दर्शनम्)
वय (व्रतम्)
सामाइय (सामायिकम्) पोसह (प्रोषधम्)
सचित्त (सचित्तम्)
- परिम (परिमाणम्)
चउत्थ (चतुर्थम्)
पंचम (पञ्चमम्)
अपरिग्गह (अपरिग्गहे)
आदाण (आदाणम्)
फुडु (स्फुटम् ) सिवमग्ग (शिवमार्गे)
वुत्त (उक्तम्)
कह (कथम्) चेइय (चैत्यम्)
विणय (विनयम् )
दंसण (दर्शनम्)
सुदगुण (श्रुतगुण:)
दंसण (दर्शने)
इंदिय (इन्द्रिये)
कसाय (कषाये)
संजम ( संजमे)
लेसा (लेश्यायाम्)
सम्मत्त (सम्यक्त्वे)
सण्णि (संज्ञिनि)
सिंहाण (सिंहाण:)
खेल (खेलः)
रहिए
दसणं
वयं
सामइयं
पोसहं
सचित्तं
परिमाणं
चउत्थं
पंचमं
अपरिग्गहे
आदाणं
फुडं (अपभ्रंश शब्द)
सिवमग्गे
वुत्तं
कहं
चेइयं
विणयं
दंसणं
सदगुणो
दंसणे
इंदिये
सा
संजमे
लेसाए
सम्मत्ते
93
सण्णिम्मि
सिंहाणो
खेलो
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________________
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भावप्राभूत
१४५
३८
२०१
अनुसंधान-२४ १२० ५६ सिल (शिलायाम्) सिलाए १३२ ८
जिणभावणा (जिनभावनाम्) जिणभावणं १३४
आगंतुक (आगंतुकम्) आगंतुकं १३८ १५ इड्डि (ऋद्धिम्)
इढेि माहप्प (माहात्म्यम्) माहप्पं बहुविह (बहुविधम्) बहुविहं
पंचिंदिय (पञ्चेन्द्रियाणाम्) पंचिंदियाणं १४६
फुडु (स्फुटम्) फुडं (अपभ्रंश) १५३
महाजस (महायशः) महाजसो ५४ कम्मपयडीण (कर्मप्रकृतीनाम्)कम्मपयडीणं २०१ ५५ -रहिय- (रहितम्) -रहियं २१६ ७३ दोस (दोषान्)
दोसा २१७७५ २१९ ७६ बोहि (बोधिम्)
बोहिं २५५ १०४ गारव (गारवम्)
गारवं २६९ ११९ अट्ट (आर्तम्)
अट्ट झाण (ध्यानम्)
झाणं २८२ १३३ महाजस (महायशः) महाजसो
असियसय (अशीतिशतम्) असियसयं २८४ १३७ जिणपण्णत्त (जिनप्रज्ञप्तम्) जिणपण्णत्तं २८६ १४० उमग्ग (उन्मार्गम्)
उमग्गं २८८ १४४ भाविय (भावितम्) भावियं २८९ १४५ पढम (प्रथमम्)
पढमं २९१ १४८ -दसण (दर्शनम्) -दंसणं २९२ १४९ सिव (शिवः)
सिवो २९९
आरूढा (आरूढाम्) आरूढं २९९ १५६ -फुल्लिय(-पुष्पिताम्) --फुल्लियं २९९ १५६ मायावेल्लि (मायावल्लीम्) मायावेल्लिं
१३५
भावप्राभृत
१५६
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मोक्ष प्राभृत
संदर्भ ग्रन्थ :
१.
३७०
९४
३७२ ९७
सावय ( श्रावक: )
-भाव ( - भावेन)
श्री मत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः षट्प्राभृतादिसंग्रहः । श्री माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति • १९७७
सावयो
-भावेण
95
C/o आन्तरराष्ट्रीय जैन विद्या अध्ययन केन्द्र
गूजरात विद्यापीठ अमदावाद - ३८००१४
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पं. केसर-कृत स्तवन
सं. रसीला कडीआ प्रस्तुत स्तवननी नकल ला.द. भा.विद्यामंदिर, अमदावादना त्रूटक पुस्तक परथी करी छे. ते सारी स्थितिमा छे. पत्र-१ छे.
सौराष्ट्रना हालार देशमां एटले जामनगर पासे आवेला भाणवडनगरमां श्रीआदीश्वर जिनेश्वरनी प्रतिष्ठाना प्रसंगने अनुलक्षीने आ कृतिनी रचना थयेल छे. पोताना भाईनी विनंतिने ध्यानमां लईने पंडित केसरे आ स्तवननी प्रतिष्ठा महोत्सव वखते रचना करी छे.
आ प्रतिष्ठामहोत्सव तपागच्छना नायक श्री क्षिमासूरिजी, एमनी पाटे शोभता श्री दयासूरि तथा पंडितोमां शिरोमणि (सेहरा-कलगी) समा श्री हेमसागर तथा पंडित केसरनी निश्रामां उजवायेल छे.
सं. १७९५मां वैशाख वद पांचमना रोज श्री संघ द्वारा निर्मित जिनालयमां श्री आदीश्वर जिनेश्वरनी स्थापना करी अने ते निमित्ते जे प्रतिष्ठा महोत्सव थयो तेमां स्नात्रमहोत्सव थयो, बहुविध संघोने आमंत्री स्वामिवात्सल्य थयुं, भगवाननी अति सुंदर आंगी रचाई तथा सुंदर गीतो गवायां अने घणी ज प्रभावना थई.
आ समये जादवकुळना राजा रणमल राज्य करता हता. वळी, आ महोत्सवमां मं. कानजी पंचाअण, मं. वलभजी डुंगर, मं. डुंगरसुत तथा मं. हदु सुते अनेक प्रकारे सारो एवो लाभ लीधो होवानो उल्लेख पण मळे छे.
आम प्रस्तुत स्तवनमां भाणवडनगरना जिनालयनी प्रतिष्ठा महोत्सवनी ते समयना राजा अने मंत्रीओनी प्रतिष्ठा संवतनी तथा तपागच्छना श्री क्षिमाविजयनी पाट परंपरानी अमूल्य ऐतिहासिक सामग्री सांपडे छे.
स्तवन
नणदलनी देसी सरसती सामनि वीनवु, सद्गुरु लागु पाअ- भवियणः हलार देस मनभावतो, भाणवडनगर सूख थाअ ॥१॥ भ०
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। भ०
सेवो रे मरुदेवीनंदन, पातीक दूरे जाय भ० श्री संघे हरखे करी, कीधो जीनप्रासाद त्रीलोकदीपक देहरो, जात्रा करो सूखसंवाद ॥२॥ भ०पा० प्रतीमा थापना ते करे, उछव हरख अपार ल० वृषभ लांछन पाअ सोलतो, रीषभ जीणंद सूखकार भ० ॥३॥५॥ मं. कानजी पंचाअण ते सही, कीधो सफल अवतार भ० मं. वलभजी डु(९)गर ते वलि, लाहो लीधो सूखकार भ० से० ॥४॥५॥० म. डु(डु)गर सूत लाल ए, धरम तणा कीधा काज, भ० मं. हदुसूत जगे सही, एणे पुण्य क(के)री बांधी पाज. ॥५॥ भ० प्रभावना उछव अति घणा, गाओ गीत सू रंग भ० सनात्र मोछव ते करी, कीधी प्रतिष्ठा सूचंग भ० ॥त्र।। से० पा० सामि रे वछल बहुविध संघ सअल सुजाण भ० । मनना मनोरथ सवि फल्या, हुआ ते कोड कल्याण भ० से० ॥७॥ पा० आंगि रचि मन उछळे, सीधा वंछित काज धन ते वेला ते घडी, पबासण बेठा जीनराज. भ० से०|८|| पा० सवंत सतर पंचाणुओ वैशाख विद पांचम जेह भ० संघ सहु मन हरखीओ, सफल दिवस मुझ अह भ० से०॥९॥ पा० राज्य करे रणमल राजउ, जाडव तणे अधिकरा भाणवडनगर ते छाहिओ, वड जीम साखे वीसतार भ०से०॥१०॥पा० तपगछ नाअक गुणभरो, श्री विजय क्षिमा गणधार भ० तस पाटे प्रतपे सदा, विजय दयासूरी सूखकार भ०से० ॥११॥ पा० पंडित माहे सेहरो, हेमसागर सूखकार पंडित केसर सूखवरु, भ्राता जअवंत जअकार भ०से० ॥१२॥ पा०
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तस भ्राता ईम विनवे, तवन रचो मन उलास ल०
आदि जिणेसर नरखता, मोजी सफल फली आस भ० से० || १३ || पा०
इति तवन संपूर्ण ।
कृष्ण-बलभद्र गीत
प्रस्तुत गीतनी नकल ला. द. भा. विद्या मंदिर, अमदावादना त्रूटक पुस्तक परथी करी छे. ते सारी स्थितिमां छे.
प्रस्तुत कृतिना कर्ताओ पोतानुं नाम के रचना संवतनो उल्लेख कर्यो नथी. भाषा अने लेखन परथी कृति १९मा शतकनी कही शकाय .
'अनुसन्धान - २३" मां आ पहेलां 'बलभद्रनी सज्झाय प्रगट थई हती तेज कथावस्तुने अति विस्तृतपणे तथा बलभद्रमुनिना वैराग्यनुं कारण विगते जणावी रचना करी छे. दुहा तथा चाल (चोपाई) बद्ध आ रचना खरे ज, वांचवी गमे तेवी छे.
हूंती - मांथी आडी शिकारी सिंहार संहार कुलखंपण कुलमां कलंक सूरे - शूराओ वहिलो वहेलो
शिल्हा
शिला / पथ्थर
विणसण
विनाश
दुयारी द्वारे वसे
असराल
पदम
-
-
—
-
·
बदले
अघरा शब्दोनी यादी
त्रिषा
करडीने
घणो
एक प्रकारनुं चिह्न
-
—
-
-
वनह
घाय
खंधोले शेवा सेवा वेलू - रेती
बावना चंदन चंदननी उत्तम जात
कूया कूवा
सूत्रकार योडी
-
-
तृषा, तरस
कणसीने
-
वनमां
अनुसंधान-२४
घा
खभा उपर
-
सुथार
जोडी
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कृष्ण बलभद्र गीत श्री गुरुभ्यो नमः
दुहा द्वारिका हूंती नीकल्या, एक दिवस दोय भाय त्रिषा उपनी कृष्णने, बलभद्र पांणी पाय ॥१॥
राग सोरठा जई लावे बलभद्र नीर, तुमे थाओ साहसधीर पोढी वृक्ष शीतल छाया, करमांणी कोमल काया ॥२॥
ओहेडी जराकुमार सिंहां, खेले वनह मझारि कृष्ण पाओ पदम ज दीठो, जाणे कर सावज बेठो ॥३॥ लेइ धनुष ने करीय प्रमाण, षां(खां)चीने मुक्यो बाण कृष्ण पाओ पदम ज लागो, करडीने कांनड जाग्यो ॥४॥ जइ जोवे जराकुमार, तुने करसें बंधव सिंहार. माहरा हाथनो बाण ज लेजे, पांडवनें संदेशो कहेजे. तिहाथी चाल्यो जराकुमार, करतो अति दुक्ख अपार ॥५॥ हुं कलषं(ख)पण थयो बाल, श्रीकृष्णनो पोहतो काल यादवकुला हूता अनेक, तेमांथी तूंहि ज एक ? ॥६॥
दुहा
बलभद्र जल लेइ आवीओ, बंधव सूतो देखि. किम जगावू नींद्रमों, इम चिंतवे विशेषि ॥७॥
ढाल इम चितवी बलभद्र बेठो, मुज बंधव हजीय न ऊठ्यो मुझने थई घणी वार, नवि जागे कांनकुमार ॥८॥
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बोलावे सुललित वाणी, नवि बोले सारंगपाणि जब मुख ऊघाडी जोवें, साद करीने सरलें रोवें ॥९॥ बोल बोल ते (ने) माहरा भाई, बंधवनें रह्यो गल लाई पगे दीठो लागो घाय, किंणे सूरे हण्यो वन माय ॥१०॥ बांहि झालीने बेंठो कीधो, उपाडी षंधोले लीधो तिहांथी चाल्यो वनह मझारि, श्रीकृष्णनो दुख अपार ॥११॥ हूं वहिलो नीर न लायो, तिणि कारणें खरो रे रीसायो हवे बोलो कृष्ण कृपा करी मोरी, हूं शेवा चूको तमारी ॥ १२ ॥
बहू वयण प्रकासी बोले, तोही बंधव बोल न बोलें, विलखांणो वदन विमासी, कुण कुबुद्धि थई वनवासी ॥१३॥
अनुसंधान - २४
दुख दीधा यादव वीर, मधु माखण गालण धीर देवता य उपाय करावें, शिल्हा ऊपरि पोयण वावें ॥ १४ ॥
दुहा शिल्हा उपरि पोयणी, किम उगसें गमार
मूओ मडो जो जीवसों, तो उगसें अपार ॥१५॥
चालि
इम चिंती मनमें जाणी, एक वेलू पीलावें घांणी तूं मूरिख जोइ विमासी, आ वेलू केम पीलासी ? ॥१६॥
मूओ मडो जो जीवें तो तेल बलें एणे दीवें बोलाव्यो त्रटकी बोलें, बलभद्र पड्यो डमडोलें ॥१७॥
जब विणसण लागी काया, तव बलभद्रे छांडी माया. बावना चंदन सूकड लीधां, संसार तणा कारज कीधां ॥ १८॥ जीव जोईनें विमासी जोई, धर्म विना सगो नहीं कोइ जइ वंद्या नेमकुमार, तिहां संयम लीधो सार ||१९||
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गुरुनें मुखि तप जप लीधो, मासखमणनो पारणो की धो पारणानो दिवस ते आवें, साधु गोचरीइं सिधावें ॥२०॥
तिहांथी चाल्यो नगर दुयारी, कूया कं ( कां) ठे ऊभी घणी नारी ॥२१॥
दुहा
कूया कांठे कामिनी, रूप निहाले जोइ
घडा वसें पुत्र पास्यो, मुनीवर दीठो तेह ||२२||
चालि
ऋषि देखीने मनमें चिंत्यो, हुं तो कर्म घणें अति भेट्यो आंखडलिउं अति सारी, मुझ रूप निहालें अति भारी ||२३|| नवि पेंसु नगर दुयारी, भिक्षा लिउं वनह मझारी, सुत्तकार एक विहरावें, तिहां मृगलो भावना भावें ॥२४॥
दुहा
भावना भावें मृगलो, नयणे नीर झरंत,
मुनी विहरावत कर करी, जो हूं माणस हूंत ॥२५॥ चालि
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वली जो हूं मांणस हूंत, जीवदया जतन करंत,
मुझ मिलतो शुद्ध अणगार, तो विहरावत पात्र बिच्यार ॥ २६ ॥
इम चिंतें छें तिणे काल, तिहां वायो असराल, अधकापी भागी डालि तिहां पोहतो त्रिहूंनो काल ॥२७॥
सुत्र कारें दांन ज दीधो, बलभद्र तप जप कीधो मृगले तिहां भावना भावी, पांचमा देवलोक तणा सुख पावी ॥२८॥
ए त्रिहूं प्रकारे धर्म ज कीधो, पांचमा देवलोक तणो सुख लीधो कर जोडी कवि इम बोलें, धर्म विना सगो कोई नहीं तोले ॥२९॥
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अनुसंधान - २४
( नोंध : आ 'कृष्ण बलभद्र गीत'ने आ अंकमां प्रकाशित 'सालिग विरचित श्रीबलभद्रऋषि सज्झाय नी साथै सरखावी जोवा जेवुं छे. बन्ने एक ज रचनानां नोखां नोखां रूपो जणाय छे. 'सालिग' नामक कविनी रचनानुं मूळ रूप केवुं छे, अने वखतनो घसारो लागीने तेनुं ते मूळ रूप केवुं तो विकृत बनी बेसे छे, अरे, कर्तानुं नाम सुध्धां लुप्त थई जाय छे, ते खास जोवा - जाणवा जेवुं छे. बन्नेनी वाचनामां पण खासो तफावत नजरे पडे छे. आ बधुं विद्वानो तथा वाचकोना ख्यालमां आवे ते हेतुथी ज बन्ने कृतिओ अत्रे मूकवामां आवी छे. शी.)
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन
प्रस्तुत स्तवननी नकल ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर, अमदावादना त्रूटक पुस्तक परथी करी छे.
अमदावादना (कोठारीपोळ) झवेरीवाड विस्तारमां आजे वाघणपोळ तरीके ओळखाता स्थानमां श्रीचिन्तामणी पार्श्वनाथ भगवाननुं प्राचीन सुंदर जिनालय आवेलुं छे. आ जिनालयनी प्रतिष्ठानी विगत आ कृतिमां मळे छे. श्रीचिन्तामणी पार्श्वनाथनुं एक अन्य स्तवन 'अनुसन्धान - २३' मां प्रकट थयुं छे तेमां आ कृति उमेरणरूप छे.
कृतिना रचयिताओ पोतानुं नाम आप्युं नथी, पण पोतानी गुरु परंपरानो निर्देश कर्यो छे. वाचक रामविजयना शिष्य प्रतापविजयना शिष्य विवेकविजय रचनाकारना गुरु छे. तेथी विवेकविजयशिष्य तरीके रचयिताने ओळखी शकाय कृतिनी भाषामां संस्कृत शब्दो विशेष छे.
श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथना जिनालयनी प्रतिष्ठा संवत १८४५ मां महावद चोथ अने रविवारना रोज थई हती. जोके, सागरगच्छना शान्तिसागरना पंन्यास प्रमोदमुनिना शिष्य मुनिचन्द्रे आ ज जिनालयनी साल सं. १८४५ महावद चोथ अने गुरुवारनी जणावी छे. १
प्रतिष्ठा करावनार छे जाणीता नगरशेठ श्रीशान्तिदास झवेरीना कुटुंबीजन शेठ खुशालचंदना पुत्र शेठ श्रीनथुशाह श्रीनथुशाहना भाई श्रीजेठमल्ल शाहे आ प्रतिष्ठा महोत्सवमां खूब ज उद्यम करेल तथा श्री नथुशाहना पुत्र दीपचंद
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शाहे पण श्रीचिन्तामणी काजे द्रव्यव्यय खूब करेल तेनी माहिती प्रस्तुत कृतिमांथी मळे छे.
'जैन परंपराना 'इतिहास' ने वांचतां अमने ए माहिती मळी के शेठ वखतचंदना छठ्ठा पुत्र सूरजमले सं. १८६८मां चिन्तामणी पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठा करावी छे. आ देरासरनी (श्रीशान्तिनाथना) बाजुमां आवेला देरासरनी भींत उपरनो लेख सं. १८७२मां शेठ इच्छाचंद वखतचंद तथा शेठाणी झवेरीबाईओ करावी होवानुं जणावे छे. मने लागे छे के सं. १८४५नी प्रतिष्ठा बाद सं. १८६८ तथा सं. १८७२मां वखतचंद शेठना बन्ने पुत्रोओ (इच्छाचंद अने सूरजमले ) जीर्णोद्धार करावी बाजुना शान्तिनाथ जिनालयनुं निर्माण कराव्युं हशे.
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आम, प्रस्तुत कृति ऐतिहासिक महत्त्व धरावनारी छे अने श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथना जिनालयनी प्रतिष्ठा बाबते अन्य उपलब्ध माहितीनी खूटती कडीओ आपी पूरक बने छे.
टिप्पण :
१. 'अनुसन्धान - २३ 'मां प्रगट
२. जैन परंपरानो इतिहास भा. ४, पृ. १५२ त्रिपुटी महाराज, श्रीचारित्र - स्मारक ग्रन्थमाला भावनगरथी प्रकाशित, ई.स. १९८३
३. पृ. १५४, जैन परंपरानो इतिहास, भा. ४ मां आवी नोंध छे : सं. १८६८मां शेठ वखतचंदना छठ्ठा पुत्र सूरजमले बनावेल श्रीचिन्तामणि जिनप्रासादमां श्रीसंभवनाथ अने श्रीशान्तिनाथनां नानां नानां जिनालयो बनाव्यां.
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चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तवन
श्री गुरुभ्यो नमः
॥१॥
॥२॥
श्रीचिन्तामणि स्वामि सुणो एक माहरी: रात दिवस ध्याउं देव तुमारी चाकरी जगबंधव जगभ्रात तुमे गुण आगरा आपो वंछित ठांम भर्या सुखसागरा अलख अगोचर दीसें अनंतगुण ताहरा रूपातीत स्वरूप सविस्तर भास्वरा अजर अमर अकलंक निरंजन तुमे वस्या ज्ञान दरिसण अनंत आतम गुण उलस्या नवि जाणे कोइ आदि अनंत ताहरी तुम दरीसण देखवा हुंस्य थई माहरी तेज झलामल भाण दीसे अति दीपता तुम आगल निस्तेज बीजा सवि देवता राजनगर मांहि पास जिणंद विराजतां सुरनर किन्नर राज चरणने सेवतां पूरे मनोरथ कामना जेह सेवा करें दोलत वाधे तांम दुरीत दुरे हरें पुन्य विशाल उदार चित छे जेहनुं साह श्री शांतिदासे धरम कर्यु तेहवू तेह तणा कुल मांहि अतीसे सोभत नगरशेठ नथु साह घणुं तुमे दीपता प्रासाद एक कराव्यो तेणे अभिनवो जाणे स्वर्गवीमांन इहां आवी ठव्यो
॥३॥
॥४॥
॥५॥
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साह श्री जेठमल्लजी उद्यम करे भलो. परिवार सवें इण ठाम तिहां धर्मि मल्यो
कुलमां दीप समान दीपचंद साहजी द्रव्य व्यय बहुं कीध चिन्तामणि काजजी मनना मनोरथ आज फल्या सवि तेहना धर्मे हती जे बुद्धि विघन नहीं केहना संवत अढार पिस्तालिस मांहे सही महा वदी चोथ सार रविवारे लही तखत विराजे श्री अश्वसेन नरिंदनो वामा राणी - जात दरिसण करो तेहनो
॥६॥
॥७॥
वाचक रामविजय गुरु गुरु समो तास सीस प्रतापविजयने नमो गुणविवेकी वीवेकविजय मुझ गुरु हरखें करो नित सेव जयकमला वरू इतिश्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ स्तवन
॥८॥
॥९॥
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Clo. जैन बोर्डिंग थलतेज रोड, अमदावाद - ३८००५४
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ट्रॅक नोंध
युग भिन्नः कर्ता भिन्नः कल्पना तुल्य बे रसप्रद उदाहरणो
(१) जगप्रसिद्ध कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुरनी एक कवितानो 'कोडियु' एवा शीर्षक तळे थयेलो गुजराती अनुवाद आवो मळे छे :
अस्त थातां रवि पूछता अवनिने सारशे कोण कर्तव्य मारा ? सांभळी प्रश्न ए स्तब्ध ऊभां सहु मों पड्यां सर्वनां साव काळां ते समे कोडियुं एक माटीतj भीडने को'क खूणेथी बोल्युं : 'मामूली जेटली मारी बेवड प्रभु !
एटलुं सोंपशो तो करीश हुँ'.... अने हवे जुओ श्री हेमचन्द्राचार्यनो रचेलो एक नानकडो श्लोक :
अस्तकाले त्विषामीशो निजं तेजो हविर्भुजे । राजेव युवराजाय राज्यसम्पदमार्पयत् ॥
(त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्ये पर्व ७, ६/२८९) बन्ने महाकविओनी कल्पनाना केन्द्रबिन्दुमां केटलीबधी समानता छे !
(२) व्रजभाषी कवि परमानन्ददासनुं एक मधुर मधुर पद आq छ :
"क्यों न भये हम मोर वृन्दावन करत निवास गोवरधन ऊपर, निरखत नन्दकिशोर क्यों न भये बंसी कुलसजनी, अधर पिबत घनघोर
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क्यों न भये गुंजा-वन-वेली, रहत श्याम ज्युंकी ओर क्यों न भये मकराकृत कुंडल, श्याम श्रवन झकझोर
परमानन्ददास के ठाकुर, गोपीन के चित्तचोर ..." हवे आ ज कल्पनाना दोर पर रचायेलुं कवि समयसुन्दरनुं जैन पद जोईए :
"क्युं न भये हम मोर विमलगिरि, क्युं न भये हम शीतल पानी, सिंचत तरुवर छोर अहनिश जिनजीके अंग पखालत, तोरत करम कठोर १ क्युं न भये हम बावनाचन्दन और केसरकी छोर क्युं न भये हम मोगरमालती रहते जिनजीके मौर २ क्युं न भये हम मृदंग झालरिया, करत मधुर ध्वनि घोर जिनजीके आगल नृत्य सुहावत, पावत शिवपुर ठौर ३ जगमंडल साचो ए जिनजी और न देखा राखत मोर
समयसुन्दर कहे ए प्रभु सेवो, जन्म जरा नहीं और" ४
अने आ ज कल्पनाने पकडतुं कवि श्रावक ऋषभदासर्नु पद पण जुओ :
क्युं न भये हम मोर विमलगिरि सिद्धवड रायण रूखकी शाखा, झूलत करत झकोर...
आवत संघ रचावत अंगियां, गावत गुन घनघोर... हम भी छत्रकला करि निरखत, कटने करम कठोर... मूरत देख सदा मन हरखे, जैसे चंद चकोर....
श्रीरिसहेसरदास तिहारो, अरज करत कर जोर...
अने कवि ऋषभदासथी पूर्वे प्रायः तेमना समकालीन कवि शंकरे रचेला (आ अंकमां ज प्रकाशित) विजयवल्ली रासमांनी आ कडी पण आ संदर्भ मां ध्यान आपवा योग्य छ :
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अनुसंधान-२४
धिन विमलाचल रूखडी रे धिन ते सरस मोरो रे रात दिवस तुम्ह देखही रे
लेखइ सोरासोरो रे ॥ ढाल १३/७।। लगभग समकालीन के पछी थोडा थोडा समयगाळे थयेला भक्तकविओनी कल्पना तेमज रचनामां केवी समानता अनुभवाय छे ! आमां समयसुन्दरजी उपर तो परमानन्ददासनी छाप होवानुं स्पष्टतया वरताय छे. पण ऋषभदास पर तेमनी छाप-छाया नथी तेम मानवं वधारे सुसंगत लागे छे. ऋषभदास सामे मंत्री वस्तुपाल (१३मो शतक) कृत आ श्लोक हतो, अने तेमां वर्णित कल्पना तेमणे पोताना पदमां उछेरी होय, तेम वधु उचित जणाय छे :
"त्वत्प्रासादकृते नीडे वसन् श्रृण्वन् गुणांस्तव । सङ्घदर्शनतुष्टात्मा भूयासं विहगोऽप्यहम् ॥"
(प्रबन्धकोशे पृ. ११६, वस्तुपालप्रबन्ध)
-शी.
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स्वाध्याय : श्रीमेरुतुङ्गसूरिना 'प्रबन्धचिन्तामणि'मां वर्णित
केटलीक ध्यानपात्र बाबतो
प्रबन्धसंग्रहो ए गुजरातना इतिहासनी जाणकारी पामवा माटेनां अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अने उवेखवां न पालवे तेवां साधनो छे. जैन मुनिओए लखेला आ प्रबन्ध-ग्रन्थो न होत तो गुजरातनो इतिहास घोर अन्धकारमा ज अटवातो होत - एम कहेवामां कोई अतिशयोक्ति नथी ज.
आ संग्रहोमां 'प्रबन्धचिन्तामणि'- स्थान आगq छे. पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजीए आ ग्रन्थ- श्रेष्ठ संपादित संस्करण सिंघी ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करीने बहु मोटुं प्रदान कर्यु छे. जो के 'प्रबन्धचिन्तामणि' माटे तेओए एक प्रकल्प आयोज्यो हतो, अने तदनुसार, आ ग्रन्थनुं सर्वाङ्गी अध्ययन कुल पांच भागोमां आपवानी तेमनी अभिलाषा हती, जेनो निर्देश प्रकाशित प्र.चिं. नां प्रारंभनां पृष्ठोमां प्राप्त छे. दुर्भाग्ये, आ प्रकल्प पूरो नथी थयो जणातो. जो थयो होत. तो काईक नवं ज नवनीत मळ्युं होत.
___अत्रे, मुद्रित प्र.चिं. नो स्वाध्याय करतां केटलीक वातो ध्यानार्ह तथा ममळाववा जेवी तथा सहुने चखाडवा जेवी लागी, तेवी वातो विषे नोंध करवामां आवे छे :
(१) श्री सिद्धसेन दिवाकरजीए ३२ बत्रीशी रच्यानुं प्रसिद्ध छे. श्री हेमचन्द्राचार्ये पण त्रणेक बत्रीशी बनावी छे, जेमां एक छे महादेवबत्रीशी : जे अत्यारे प्रक्षेपो साथे ४५ पद्यप्रमाण प्रचलित छे. आ महादेवबत्रीशीनुं प्रथम पद्य 'प्रशान्तं दर्शनं यस्य" ए छे. हवे प्र.चिं. मां जोवा मळती एक पादटीप वांच्या पछी मनमां सहज प्रश्न ऊभो थाय छे के आ पद्य हेमाचार्यहशे के दिवाकरजीनुं हशे ?
मने, दिवाकरजीनी उपलब्ध १९ बत्रीशीमां महादेव द्वात्रिंशिका छे के नहि ?- छे तो ते आजे पूरेपूरी उपलब्ध छे के केम ? आ अंगे आ
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अनुसंधान-२४ क्षणे स्मरण नथी, एटली चोखवट कर्या पछी ज आ वात आगळ वधारूं. प्र.चिं. मां 'विक्रमार्कप्रबन्ध' वर्णनमां मुनिजीए एक टिप्पणीमां नोंघेल पाठान्तरमां निम्नांकित पाठ जोवामां आवे छे :
"तेन सकललोकसमक्षंप्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥
इति द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका कृता ।" (पृ. ७) आना आधारे मने प्रश्न उद्भव्यो के मूळे दिवाकरजीना आ श्लोकने ज हेमचन्द्राचार्ये महादेव बत्रीशीना प्रथम पद्य तरीके अपनावी लीधो होय तेवू न होय ? केम के दिवाकरजीनी जेम ज तेओने पण महादेव-शिवलिङ्ग साथे प्रयोजन पार पाडवा, हतुं; अने बीजुं तेओ तेमनी रचनामां असन्दिग्ध भाषामां दिवाकरजीने बिरदावतां लखे छे के
'क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था
अशिक्षितालापकला क्व चैषा ? ।' अलबत्त, दिवाकरजीनी क्लिष्ट पदावली अने प्रस्तुतिनी तुलनामां आ पद्यनी रचना अत्यन्त सरल-प्रांजल जणाय छे, अने जो दिवाकरकृत महादेवद्वात्रिशिका यथावत् उपलब्ध होय तो मारो उठावेलो आ सवाल स्वयमेव निर्मूल थई जाय छे, ते पण नोंधी लेवू रह्यु.
(२) प्र.चिं. मां सामुद्री पुरातत्त्वनी एक विलक्षण वात आवे छे : भोज राजानी सभामा एकवार कोई वहाणवटी आव्यो, तेणे राजा सामे एक मीणनी पट्टी रजू करी, जेमां केटलांक काव्योनी छाप देखाती हती. तेणे कर्दा के "समुद्रमा एक स्थळे अकस्मात् मारुं वहाण स्खलित थतां में खलासीओने समुद्रमां ऊतार्या; तेमणे करेली तपासमां एवं जाणवा मळ्युं के ते स्थळे एक डूबेलुं शिवमन्दिर हतुं, अने तेनी साथे अथडायाथी वहाण स्खलना पामेलं. मध्यसमुद्रमा होवा छतां तेमां पाणी भरायां नथी- एवं अनुभवावाथी माणसो मन्दिरमां अंदर गया. त्यां एक भींत उपर अक्षरो कोतरेला देखातां आ मीणपट्टिका उपर ते उपसावीने अमे लई आव्या छीए."
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राजाए तरत माटीनी बीजी पट्टिका मंगावी, ते मीणपट्टी उपर चडावीने ते ऊलटा अक्षरो पंडितो पासे वंचावराव्या तो केटलांक संपूर्ण पद्यो उपरांत एक अरधुं पद्य उकेली शकायुं. राजानी सूचनाथी ए अरधुं पद्य स्वमतिकल्पनाथी पूरुं करवानो अनेक पंडितोए यत्न कर्यो, पण राजानुं मन न मान्यु. तेणे धनपालकविने पूर्ति करवा सूचवतां तेमणे जे उत्तरार्ध बनाव्युं तेती राजा खूब तुष्ट थयो, तो धनपाले कां के "आ रामेश्वर(महादेव)ना मंदिरनी भीत परनी प्रशस्तिनां काव्यो लागे छे. हवे में जे श्लोकार्ध रच्यो छे ते शब्दो अने अर्थ वडे मूल रचना साथे बिलकुल मळती ज होवा विषे मने श्रद्धा छे; पण आमां जो फेरफार नीकळे तो हवे पछी मारे यावज्जीव काव्यरचना न करवी."
राजाए धननुं प्रलोभन आपी ते वहाणवटीने फरी समुद्रमां मोकल्यो. छ महिनानी महेनत बाद ते शिवालयने शोधी, तेनी भीत परनुं बधुं ज लखाण मीणपट्टी पर उपसावी लावी तेणे राजाने सोंप्युं. राजाए ते काव्य जोयुं तो धनपालनी रचना साथे ते शब्दशः मळतुं आवतुं हतुं. आ काव्यो 'खण्डप्रशस्ति' तरीके प्रसिद्ध थयां.
दसमा सैकामां थयेली सामुद्री पुरातात्तिक शोधनी आ केवी अद्भुत वात छे ! आजे जेने अक्षरोनी छाप लेवी के 'रबींग' कहेवामां आवे छे, ते माटे साव अनभिज्ञ नाविकोए मीणपट्टिकानी केवी श्रेष्ठ प्रयुक्ति प्रयोजी छे ! (पृ. ४०)
(३) भोजराजा-सम्बन्धित ज एक प्रसंग छे- मानतुङ्गसूरिनो. बाण अने मयूर जेवा कविओनी चमत्कारसभर इष्टोपासना जोया पछी, गमे तेनी प्रेरणाथी राजाए जैनाचार्य मानतुङ्गसूरिने बोलावीने चमत्कार बताडवानी मागणी करी, जेना जवाबमां भक्तामर स्तोत्रनी रचना वगेरे घटना बनी होवानुं प्रसिद्ध छे. परन्तु आ वार्तालाप दरम्यान जैनाचार्य राजाने जे जवाब आप्यो छे, ते अत्यन्त मार्मिक अने मननीय छे. तेमणे कह्यु के- "मुक्तानामस्मद्देवतानामत्र कोऽतिशयः सम्भवति ? तथापि तत्किङ्कराणां सुराणां प्रभावाविर्भावः कोऽपि विश्वचमत्कारकारी दर्श्यते" (पृ. ४५). अर्थात् अमारा देव तो मुक्त छे,
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अनुसंधान-२४ वीतराग छे; तेमनो कोई चमत्कार संसारमा न संभवे. हा, तेमना सेवक एवा संसारी देवोनो प्रभाव जरूर जोवा मळे. चमत्कारप्रेमी वीतराग-भक्तो माटे मनन योग्य जवाब छे.
(४) सिद्धराज जयसिंहे मालवा पर जीत प्राप्त कर्या पछी यशोवर्मा राजाने ते पाटण लावेलो. तेनुं आतिथ्य करतां करतां ते तेने सहस्रलिंग सरोवर, त्रिपुरुष प्रासाद इत्यादि धर्मस्थानो जोवा लई गयो अने दर वर्षे पोते ते बधांना निर्वाहार्थे क्रोड रूपियानो सद्व्यय करतो होवानुं जणावीने पूछ्युं के मारी आ प्रवृत्ति बराबर गणाय के नहि ?
जवाबमां यशोवर्माए कह्यु : हुं महान मालवदेशनो धणी, छतां तमाराथी पराजय केम पाम्यो ? तेनुं एक ज कारण छे - देवना धननुं भक्षण. अमारा वडवाओए भगवान महाकालेश्वरने माटे जे देवद्रव्य समपैलुं छे, तेनुं अमे लोकोए सतत भक्षण कर्या कर्यु; तेना कारणे अमे अमारो पराजय नोतर्यो छे. माटे हुं तमने भलामण करूं छु के ज्यां सुधी तमारी गादी पर आवनारा राजाओ आ (एक क्रोड) देवद्रव्य देवखाते अर्पण करी देवानी प्रणालिका जाळवी राखशे त्यां सुधी वांधो नथी; पण तेनो लोप थशे के भक्षण करशे, तो विपत्तिओ तमारां मूळ उखेडी नाखशे. (पृ. ६१)
देवद्रव्य-रक्षण-भक्षणना विषयमां केवु मार्मिक निरीक्षण !
(५) रुद्रमहालयनी प्रतिष्ठा पछी तेना पर ध्वजारोपण थयुं त्यारे सिद्धराजे तमाम जैन मन्दिरो परथी ध्वजा ऊतरावी लीधी. तेणे आदेश को के जेम मालवदेशे महाकालेश्वरना मन्दिर पर ध्वजा फरकती होय त्यारे जैन मन्दिरो ध्वजारहित राखवामां आवे छे, ते प्रमाणे अहीं पण राखवानुं छे.
आ पछी ते कोईक प्रसंगवश श्रीनगर महास्थाने (वडनगर) गयो तो त्यां जिनालयो पर पण ध्वजा जोई. तेने न रुच्यु. तेणे ब्राह्मणोने आ विषे पृच्छा करी, तो तेमणे कडं के "महाराज ! स्वयं महादेवे कृतयुगमां आ महास्थाननी स्थापना करी छे. तेमणे जाते ज अहीं ऋषभदेव अने ब्रह्माना प्रासादो निर्मावीने ते पर त्यारे ध्वजारोपण कर्यु हतुं. आ प्रासादोनी ने ध्वजानी परंपरा ४ युग जेटली पुराणी छे. वळी 'नगरपुराण' ना निर्देश प्रमाणे
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आ क्षेत्र शत्रुजयतीर्थनी तळेटी गणायुं छे." आम कही तेमणे पुराणना श्लोको टांक्या (पृ. ६२-६३).
पण राजाना मननो खटको हजी मटतो नथी तेम जोईने तेने वधु प्रतीति कराववा माटे ते लोकोए, ऋषभदेवना देरासरना भंडारमांथी, भरत चक्रवर्तीना नामवाळं अने पांच मनुष्यो भेगा थाय तो ज उपाडी शकाय तेवू एक 'कांस्यताल' (कांसीजोडु) अणाव्यु, अने राजाने देखाड्युं. आ पछी राजाने समाधान थयुं, अने एक वर्ष पछी पाटण आदि क्षेत्रोनां जिनालयोमां पुनः ध्वजा चढाववानी छूट आपी. (पृ. ६३). .. आमां ध्वजा न चडाववानो आदेश, पछी चडाववानी छूट ते ऐतिहासिक व्यवहार होवान समजाय छे. 'कांस्यताल'नी वात शुं हशे ? ते कल्पनानो विषय छे. आटला आटला युगो पछी पण आवी वस्तु तथा ते प्रासादो ९००-१००० वर्षों पूर्वे सुधी जळवायां होय तेवी कल्पना जरा वधु पडती लागे. जो के त्यार पछी विधर्मी मूर्तिभंजकोए आ धरती पर स्थापत्य, इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व, संस्कृति वगेरेना सन्दर्भोमां जे विनाश वेर्यो छे, तेनी तो कल्पना पण थीजवी मूके तेवी छे. एवं बनी पण शके के घj घणु पौराणिक, हजारेक वर्ष अगाऊ लगी, क्यांक क्यांक सचवायुं होय, अने आक्रमणोना युगमां ते ध्वंस पाम्युं होय.
(६) 'कामलता' नामक स्त्री-राजराणी, गणिका, महियारणनी करुण कथा आपणा कथासाहित्यमां खूब जाणीती छे. तेना पर रास के ढाळियां प्रकारनी मोटी तथा सज्झाय जेवी नानी गुर्जर रचनाओ बनी होवानुं ध्यानमां आवे छे. ते स्त्रीनो प्रबन्ध पण अहीं भोजप्रबन्धमां वर्णवायो छे. राजा रजवाडीथी वेगपूर्वक पाछो फरतो हतो, त्यारे भीडमां मचेली नासभागने लीधे महियारणनी छाशभरेली माटलीओ फूटी जतां रेलायेला छाशना रेलाने निरखीने खडखडाट हसती ते महियारणने राजा 'रडवाने टाणे हसवानुं प्रयोजन' पूछे छे, तेना जवाबमां ते स्त्री एक ज श्लोकमां पोतानी वीतककथा आम वर्णवे छे :
हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदष्टं देशान्तरे विधिवशाद् गणिकाऽस्मि जाता ।
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अनुसंधान-२४ पुत्रं भुजङ्गमधिगम्य चितां प्रविष्टा
शोचामि गोपगृहिणी कथमद्य तक्रम् ? ॥ (पृ. ४९)
आ वांचतां मने सोरठी लोकसाहित्यनो एक चारणी छंद सांभरी आव्यो, जे उपरना श्लोक, ज लोकसाहित्यिक रूप छे :
"नृप मार चली अपने पियु पे पियु नाग डस्यो दुःखमें परि हुं गनिकाघर वास वसी करी हुं सुत संग भयो 'जरबेकुं चली नदी पूर बढ्यो निकसी तरी हं महाराज अब तो आहीर भई
छाछको शोक कहा करी हुं ?" लोकसाहित्यनां आवां कवित्तोमां केटलुं बधुं भरवामां आव्युं छे ! अने एक मजानी वात, प्र.चि.कहे छे तेम, ते महियारणनां मही ते दहाडे वेरायां, तेनो रेलो नदीमां गयो, तेथी ते दिवसथी ते नदी 'मही' नदी एवा नामे प्रसिद्ध थई गई.
लोककथाओ, प्रसिद्ध पात्रोने तथा प्रसंगोने जोडती रहीने पण, केटलुं बधुं आपणने आपती रहे छे !
(७) एक दिगम्बर आचार्य श्वेताम्बरोने जीती लेवा माटे गुजरातमांपाटण आवेला. सिद्धराजनां राजमाता मयणल्लादेवी पितृपक्षे कर्णाटकनां दिगम्बर मतानुयायी होवाथी तेमणे विचित्र ने विषम शरत राखेलीः श्वेताम्बरो हारे तो बधा दिगम्बर बने, अने दिगम्बरो हारे तो देशनिकाल पामे. आ पछी पण, पोतानो ज पक्ष लेवा माटे तेमणे राजमाता पर भरपूर दबाण-लागवग चलावेला, तेना प्रत्याघातरूपे श्वेताम्बरोए केटली ठावकाईथी काम लीधुं, तेनुं ट्रॅकुं पण स्पष्ट बयान प्र.चि.मां मळे छे :
"अथ श्रीमयणल्लदेवी कुमुदचन्द्रपक्षपातिनी, अभ्यासवर्तिनः सभ्यांस्तज्जयाय नित्यमुपरोधयन्तीं श्रुत्वा श्रीहेमचन्द्राचार्येण 'वादस्थले दिगम्बराः स्त्रीकृतं १. बळी मरवा
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सुकृतमप्रमाणीकरिष्यन्ति सिताम्बरास्तं स्थापयिष्यन्ती' ति तेषामेव पार्वात् तवृत्तान्ते निवेदिते राज्ञी व्यवहारबहिर्मुखे दिगम्बरे पक्षपातमुज्झांचकार"। (पृ. ६७)
____ तत्कालीन धार्मिक राजखटपटोनो आ उपरथी अंदाज मळी रहे छे. (८) केटलीक रस पडे तेवी विगतो जाणवा लायक छ :
अमदावादमा आजनो कोचरब विस्तार, मूळे 'कोछरब' नामे देवी, तेनुं मन्दिर त्यां (आशापल्लीमां) सिद्धराजे बनावेलुं, तेम प्र.चि. मां नध छे. आजे कोचरब' विस्तारमा ते देवी- स्थान छे के केम ? ते तपासनो विषय गणाय. (पृ. ५५) सौराष्ट्र-गोहिलवाडना वलभीपुर पछीना 'वालाक' प्रदेशनी पहाडी भूमिमां सिंहपुर (आजनुं सिहोर)नी स्थापना, ब्राह्मणो माटे थईने सिद्धराजे करी हती, तेना शासनमा १०६ ग्राम पण आपेलां. (पृ. ७१) 'निरन्न' शब्द प्रयोज्यो छे, ते परथी 'नरणां' शब्द बन्यो जणाय छे. (पृ. ७२) कोल्लापुरनो अने त्यांना महालक्ष्मीदेवीना मन्दिरनो आमां पण उल्लेख मळे छे. (पृ. ७३) 'सोरठियो दूहो भलो' एवी उक्ति सौराष्ट्रना दूहा माटे आवे छे. झवेरचंद मेघाणीए नोंध्युं छे तेम भवनाथ (जूनागढ)ना मेळामां रातोनी रातो सुधी अस्खलित दूहाओनी रमझट बोलती. आ वात १४मा सैकामां पण प्रवर्तती होवानी संभावना जणावे तेवो एक उल्लेख प्र.चि.मां आ रीते छे : "अथ कदाचित् चारणौ द्वौ सुराष्ट्रामण्डलविषयौ दूहा-विद्यया मिथः स्पर्धामानौ" (पृ. ९२). तत्कालीन अपभ्रंश-मण्डित गुजराती भाषामां ते चारणो द्वारा कहेवायेला बे दूहा पण आ ज प्रसंगमां वांचवा मळे छे. गुजरात-सौराष्ट्रमां आजे 'सगर' नामे ज्ञाति छे. तेनुं पगेलं आ ग्रन्थमां
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अनुसंधान-२४ आ प्रमाणे जडी आवे छे : "तदनु चौलुक्यराज्ञा कृतज्ञचक्रवर्तिना आलिगकुलालाय सप्तशतीग्राममिता विचित्रा चित्रकूटपट्टिका ददे । ते तु निजान्वयेन लज्जमाना अद्यापि सगरा इत्युच्यन्ते ।" (पृ. ८०)
(९) संगीतना इतिहासमां हरणने आकर्षवं, तेना गळे हार पहेराववो - ए प्रसंग प्रसिद्ध छे. कुमारपाल राजानी सभामां पण आवो ज प्रसंग बन्यानुं प्र.चि. नोंधे छे. एक परदेशी संगीतज्ञे सभामां राव करी के मारा संगीतथी आकर्षाई आवेला हरणनी डोकमां में मारो सुवर्ण-दोरो नाख्यो, तो ते लईने ते जतुं रह्यु; मने पाछु मेळवी आपो. सभामां 'सोल'नामे गायक गन्धर्व हतो, तेने राजाए आ माटे सूचव्यु. ते वनमा गयो, गीतगान वडे हरणवृन्दने आकर्षीने गातो गातो नगर सुधी तेने खेंची लाव्यो. तेमां पेखें सोनानो दोरो पहेरेलु मृग पण हतुं.
आ कला जोईने हेमाचार्ये खूब चमत्कृति अनुभवी. तेमणे 'संगीतकलाना प्रभाव' विषे ते गायकने पूछतां, तेणे कयं के वृक्षना सूका अने कपायेला ढुंठा पर पांदडां उगाडवानी ताकात संगीतमां छे. तेमणे तेम करी देखाडवा सूचवतां, आबुपर्वत परथी एक खास वृक्ष मंगाववामां आव्यु अने तेनी एक शाखाना ठुठाने राजगढीना आंगणे ज कोरी माटीना क्यारडामां वाववामां आव्यु. पछी तेणे पोतानी संगीतकलानो प्रयोग आरंभ्यो, तेना परिणामे ते शाखा पर ताजां कोमल कोमल पान बेठेलां सौए नजरे जोयां. (पृ. ८०)
आवो प्रसंग बैजु बावरा अने संत हरिदास स्वामीना जीवनमा घट्यो होवानी वात सांभळवा मळी छे.
(१०) हेमाचार्यना निमित्तज्ञाननी पण आ प्रकारनी ज एक घटना आमां नोंधाई छे. पूर्वावस्थामां कुमारपाळ रजळतो रजळतो स्तंभतीर्थे आवे छे त्यारे आ माणस भविष्यनो राजा होवानी तेमणे करेली, ते आ प्रमाणे :
"तत्रागते तस्मिन्नुदयनेन पृष्टः श्रीहेमचन्द्राचार्यः प्राह-लोकोत्तराण्यस्याङ्गलक्षणानि । सार्वभौमोऽयं नृपतिर्भावीति । आजन्म दरिद्रोपद्रुततया तां वाचं
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यथार्थाममन्यमानेन तेन क्षत्रियेणासम्भाव्यमेतदिति विज्ञप्ते, "सं. ११९९ वर्षे कार्तिकवदि २ रवौ हस्तनक्षत्रे यदि भवतः पट्टाभिषेको न भवति तदाऽतः परं निमित्तावलोकनसन्न्यासः" इति पत्रकमालिख्यैकं मन्त्रिणेऽपरं तस्मै समार्पयत् । (पृ. ७८)
विद्या अने कलाना ए युगमां, आq बनवू काई अशक्य नथी लागतुं.
(११) अलबत्त, केटलीक कल्पित चमत्कारिक वातो पण आ प्रबन्धोमां छे ज. दा.त. कुमारपाल तथा हेमाचार्यनी गिरनार-यात्रानी वात. बन्ने महानुभावो ज्यारे गिरनार पहोंचे छे, त्यारे ‘बन्ने जणा उपर जशे तो मृत्यु थशे' - एम कहीने गुरु राजाने समजावे छे, ते वातनुं वर्णन आ प्रमाणे छे :
"तदनन्तरमुज्जयन्तसन्निधौ गते तस्मिन्नकस्मादेव पर्वतकम्पे सञ्जायमाने श्रीहेमचन्द्राचार्या नृपं प्राहुः- 'इयं छत्रशिला युगपदुपेतयोरुभयोः पुण्यवतोरुपरि निपतिष्यतीति वृद्धपरम्परा । तदावां पुण्यवन्तौ, यदियं गी: सत्या भवति तदा लोकापवादः । नृपतिरेवातो देवं नमस्करोतु न वयमित्युक्ते नृपतिनोपरुध्य प्रभव एव सङ्घन सहिताः प्रहिताः, न स्वयम् ।" (पृ. ८३)
____ आ आखीये वात नितान्त कल्पना छे. 'कुमारपाल प्रतिबोध तथा 'प्रबन्धकोश'मां आ वातनुं तथ्य प्राप्त छे. वात एम छे के ते समये पहाड चडवा माटे पाज-पद्या न होवाथी राजा चडी शके तेवी स्थिति न हती. राजा चडवा जाय अने पडे के वागे तो अजैनो हांसी करे अने भंभेरणी करे, आवा कारणे स्वयं आचार्ये ज राजाने ऊपर जवानी ना कही हती, जेनो राजाए स्वीकार को हतो. आमां छत्रशिला कंपवासमेतना चमत्कारनी कोई ज वात नथी. छतां लोकरंजन खातर आq तत्त्व प्रबन्धकारो द्वारा उमेरायु होय के पछी लोकोमां आ वात आ रीते ज चलणी बनी होय तो ते बनवाजोग छे. बाकी तो राजाए ते ज वखते त्यां नवी पाज बांधवानो आदेश आप्यो होवानी हकीकत पण प्र.चि. ज आपे छ :
"छत्रशिलामार्ग परिहत्य परस्मिन् जीर्णप्राकारपक्षे नव्यपद्याकरणाय _श्रीवाग्भटदेव आदिष्टः । पद्योपक्षये व्ययीकृतास्त्रिषष्टिलक्षाः ।" (पृ. ९३)
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अनुसंधान-२४ आनो संकेत स्पष्ट छ : पाज न होवाथी ज राजाने ऊपर चडवानी गुरुए ना कही हती.
(१२) हेमाचार्यना स्वर्गगमन पछी, तेमना देहनो अन्तिम संस्कार थयो ते स्थानने प्र.चि. 'हेमखड्ड'ना नामे ओळखावे छे. "तत्र हेमखड्ड इत्यद्यापि प्रसिद्धिः ।" (पृ. ९५) ।
आ 'हेमखाड' आजे क्यां छे, ते जग्यानुं शुं थयुं, कोना कबजामां छे, ते विषे अंधारपट ज प्रवर्ते छे.
हमणां एक प्रमाण एवं जाणवा मळ्युं छे के आ स्थाने पौषधशाला के तेवू कोई धर्मस्थान हतुं, जे पछीथी विधर्मीओना हाथमां जतां नष्ट थईने आजे त्यां दरगाह जोवा मळे छे. एक वृत्तपत्रे आ अंगे ऐतिहासिक विगतो भेगी करीने प्रकाशित करतां, तेने हुल्लड प्रकारना आक्रमणनो भोग बनवू पड्युं अने अंक पाछो खेंचवा साथे जाहेरमां माफी मागवी पडी होवानुं पण आधारभूत रीते जाणवा मळे छे.
आपणे कोई साथे क्लेश न करीए, परंतु आपणा ज ऐतिहासिक स्थानादिनी आ स्थिति थयेली जोवानुं पण आपणने ज फावे, ते पण स्वीकारQ ज पडे - खेदपूर्वक.
(१३) एक अत्यन्त रसप्रद वात प्र.चि.मां एवी मळे छे के सं. १२७७-७८मां वस्तुपाल मंत्री संघ साथे तीर्थयात्राए गया, त्यारे प्रभासपाटण क्षेत्रमा तेमने 'सोमनाथ महादेव'नो एक ११५ वर्षनी उमर धरावतो ब्राह्मण पूजारी मळेलो, अने तेणे मंत्रीने कहेलुं के 'अहीं हेमाचार्ये सोमेश्वरनां प्रत्यक्ष दर्शन करावेलां.' "प्रभु श्रीहेमाचार्यैः श्री कुमारपालनृपतये जगद्विदितं श्रीसोमेश्वरः प्रत्यक्षीकृत इति पञ्चदशाधिकवर्षशतदेश्यधार्मिकपूजाकारकमुखादाकर्ण्य तच्चरित्रचित्रितमनाः" (पृ. १०१).
आ पूजारी संवत् ११६३ लगभग जन्मेलो होय तो हेमाचार्यवाळा प्रसंगे ते ५० थी ६५ वर्षनो आशरे होय, अने वस्तुपाल गया त्यारे ११५नो होय. जे होय ते, पण सोमेश्वरना साक्षात्कारनी वातने- तेनी सत्यताने आ एक सबळ आधार मळी रहे छे ते चोक्कस.
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___ (१४) वराहमिहिर अने भद्रबाहुनी वातो प्रसिद्ध छे. तेमां सामान्य परंपरा एवी छे के निस्तेज बनेल वराहमिहिर छेवटे तापस बने छे, मरीने व्यन्तर थाय छे, संघने उपद्रवो करे छे अने गुरु तेना निवारण माटे 'उवसग्गहरं स्तोत्र' रचे छे. प्रबन्धकोश (पृ.४)मां आवी ज वात छे.
प्र.चि. आ मुद्दे जरा जुदी ज वात आपे छे, जे जरा विशेष प्रतीतिकर के बुद्धिगम्य लागे छे, प्र.चि. प्रमाणे :
"इत्युक्तियुक्तिभ्यां प्रबोध्य ते महर्षयः स्वं पदं भेजुः । इत्थं बोधितस्यापि तस्य (वराहमिहिरस्य) मिथ्यात्वधत्तूरितस्य कनकभ्रान्तिरिव तेषु मत्सरोच्छेकात् तद्भक्तानुपासकान् अभिचारकर्मणा कांश्चन पीडयन् कांश्चन व्यापादयन् तवृत्तान्तं तेभ्यो ज्ञानातिशयादवधार्य उपसर्गशान्तये 'उवसग्गहरं पासं' इति नूतनं स्तोत्रं रचयांचक्रुः ।" (पृ. ११९) ।
अर्थात् वराहमिहिर मरीने व्यन्तरदेव थया पछी नहि, पण त्यां ज, वराहमिहिर तरीके ज ते, द्वेषवृत्तिप्रेरित ऊंधा रस्ते चडीने मारणउच्चाटनादि क्रियाओ करवा द्वारा लोकोने उपद्रव करे छे, अने तेनुं वारण गुरु 'उवसग्गहरं' बनावीने आपे छे.
बहु ज गंभीरताथी विचारवायोग्य आ प्रतिपादन लागे छे.
-शी.
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माहिती
नवां प्रकाशनो
श्रीज्ञानविमल सझायसंग्रह : सं. कीर्तिदा शाह, अभय दोशी, विनोदचन्द्र रमणलाल शाह, प्रकाशक : श्रीज्ञानविमल भक्तिप्रकाश प्रकाशन समिति, मुंबई, ई. २००३
श्री ज्ञानविमलसरि महाराज ए मध्यकालना एक सुख्यात अने सिद्धहस्त साधु-कवि छे. तेमनी सेंकडो रचनाओ उपलब्ध छे, अने तेमनी रचनाओ जैन भाविको भावपूर्वक गाय छे. आवी रचनाओनो एक संग्रह ई. १९९८मां आ ज समितिए छाप्यो हतो, 'श्रीज्ञानविमल भक्ति प्रकाश' ए नामे. प्रस्तुत पुस्तक ते तेनो बीजो विभाग छे एम मानी शकाय. एक कविनी घणीबधी रचनाओ एक ज स्थळेथी उपलब्ध कराववानो प्रयास प्रशंसापात्र छे.
सं. शब्द जेम 'संपादन' सूचवे, तेम 'संकलन' पण सूचवतो होय छे. प्रस्तुत पुस्तक माटे 'संकलन' अर्थ वधु अनुरूप गणाय. जोके संपादकोनी मध्यकालीन साहित्य विषयक सज्जतानो ख्याल करतां, आ प्रकाशन एक सरस अने अभ्यासपूर्ण संपादन बनी शक्युं होत, तेवी अपेक्षा जागे खरी. परंतु, आ एक संकलन के संग्रह ग्रन्थ मात्र छे, ते स्वीकारी लेवू ज पडेतेम छे. आम छता,आ संग्रहने संपादकोनी चीवटनो थोडो वधु लाभ मळ्यो होत तो घणी बधी अशुद्धिओ, मार्जन थई शक्युं होत, तेम कह्या विना रही न ज शकाय.
सर्व प्रथम तो पुस्तकना नाममां 'सझाय' शब्दनो अयोग्य प्रयोग ज वागे तेवो छे. 'सज्झाय' ए शुद्ध, मान्य, योग्य तथा प्रचलित प्रयोग छे. 'स्वाध्याय'- प्राकृत रूपान्तर छे 'सज्झाय'. ते आ प्रकाशनमां सर्वत्र 'सझाय' कई रीते बनी गयुं ते समजातुं नथी. धोळ, गरबी, फागु, रास, लावणी वगेरे काव्यप्रकारो जेवो ज 'सज्झाय' एक काव्यप्रकार होवामुं, हवे, मध्यकालीन साहित्यना कोई पण अभ्यासुने विदित होवू ज घटे, अने तेवा अभ्यासी आवा अजुगता परिवर्तनने क्षम्य के सह्य न ज गणी शके.
भूलो के अशुद्धिओ पण अगणित होवानुं प्रथम दर्शने ज जणाई
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योहरि अकहः थोरन
अने 'घूणाक्षर', 'पोतमा एटला बधा की
आवे. आ सज्झायो महदंशे जैन परंपरा अने सिद्धान्तना विषयोने लईने रचायेल होई तेना ज्ञाता एवा कोईनी नजर जो आ समग्र संकलन पर फरी होत तो घणी भूलोनुं मार्जन अनायास थयुं ज होत. दा.त.
___ 'अहो भवाभिनंदी च निष्कलारम्भासाधकः' (पृ. ७) छे त्यां, 'अज्ञो भवाभिनंदी च निष्फलारम्भसाधकः' होत तो घणो अनर्थ अटकी जाय. तो पृ. ४५मां 'पणि भवा भिष्वंगइथी' ने बदले 'पणि भवाभिष्वंगइथी' तथा 'आसनसिद्धिता'ने बदले 'आसन्नसिद्धिता' होवू जोईए. पाछळ मूकेल नानकडो शब्दकोश पण पृष्ठ-पंक्ति-निर्देशरहित होवा उपरांत क्षतिग्रस्त जणाय छे. दा.त. 'अंगधन' छे त्यां 'अगंधन' होय, 'उपलः माटी', त्यां 'उपल:पत्थर'; 'थोहरि अक्कहः थोरनुं दूध', त्यां 'थोहरि अक्कहः थोर तथा आकडामुं, 'धूक' अने धूणाक्षर', त्यां 'घूक' अने 'घूणाक्षर', 'पोत: काफलो', त्यां 'पोत:वहाण' होय, वगेरे. खरेखर तो आ पुस्तकनी रचनाओमां एटला बधा कठिन अने परंपरामां ज प्रचलित शब्दो छे, के तेनो एक सरस विस्तृत कोश अहीं आपी शकायो होत तो मजार्नु थात. परन्तु बे पृष्ठनो अपूरतो कोश वास्तवमां अप्रस्तुत ज बने.
बीजो महत्त्वनो मुद्दो ए के केटलीक, अन्य संप्रदायोना कविओकृत रचनाओ, तेमनी लोकप्रियताने कारणे, ज्ञानविमलजीना नामे चडी गई होवानुं जोवा मळे छे. दरेक प्रसिद्ध कवि परत्वे आq थाय ज छे. परंतु तेवी रचनाओनी शोध तथा नोंध करीने 'आ ज्ञानविमलकृत नथी' एवी जाणकारी आवा संपादनमां आपी शकाई होत तो ते प्रासंगिक बनत. जेमके - 'तुं प्रभु मारो, हुं प्रभु त्हारो' - ए रचना आजे जैनोमां अतिप्रिय-प्रचलित छे, अने तेमां नामाचरण 'ज्ञानविमल' ज छे. परंतु ते ढाल तथा रचनानुं शैथिल्य तथा नावीन्य जोतां ज ख्याल आवे के आ तेमनी रचना नथी ज. प्रस्तुत प्रकाशनमां ज एक 'सत्संगनी सझाय' (पृ. ७८) छे, जे अन्यत्र 'कबीरा' ना नामाचरण साथे प्रसिद्ध छे. अने खरेखर तो आ कृति ज्ञानविमलकृत होवाने बदले, अजैन कृति पसंद पडी जवाथी, अमुक फेरफार साथे जैन आकार आपवापूर्वक, कोईके तेने 'ज्ञानविमल'ना नामे चलणी बनावी होय, ते वधु संगत लागे छे. आ थई शक्युं होत आमां.
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अनुसंधान-२४
'पर्युषण पर्व- सज्झाय'नी ढाळोमां ढाल १मां ने १२मां तो 'गुरु' शब्द विना ज 'ज्ञानविमल' एवं स्पष्ट नामाचरण छे, जे आ तेमनी ज रचना होवानुं पुरवार करी आपे छे. आम छतां संपादकीय निवेदनमां आना कर्तृत्व विषे सन्देह ऊभो करवानुं जोखम उठाववामां आव्युं छे ते समजातुं नथी. खरेखर तो आ विषे सन्देह उठाववानुं कोई वाजबी कारण ज जडतुं नथी. आटलुं संपादन-परत्वे. बाकी परंपरानी रीते धर्मध्यान करनार सर्व कोईने, धर्मक्रियामां खूब उपकारक आ पुस्तक बनशे तेमां शंकाने स्थान नथी.
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२. उपदेशमाला बालावबोध : अनुवाद सहित सं. प्रद्युम्नसूरि, प्रा. कान्तिभाई बी. शाह, प्रकाशक : श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अमदावाद, ई. २००३
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धर्मदासगणिकृत उपदेशमाला खूब प्रसिद्ध ग्रन्थ छे. तेना पर सं. १५८३मां श्रीनन्नसूरिए बालावबोध रचेलो, जे अहीं प्रथम वखत मुद्रित थाय छे. मजानी वात ए छे के संपादक श्रीए नोंध्या मुजब आ बालावबोधनी हाथपोथी छेक ब्रिटिश लायब्रेरी लंडनथी ज मळी, ने ते परथी संपादन करवामां आव्युं छे. गुजराती अनुवाद, शब्दकोश सहितनां मूल्यवान परिशिष्टोने कारणे ग्रन्थ खूब उपयोगी बनी रहेशे ते निःशंक छे.
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________________ अनुरोध सद्गत हरिवल्लभ भायाणीनी खेवना के प्राकृत अने जैन साहित्य परत्वे जैनो द्वारा कांईक थर्बु घटे, तेनी कार्यपरिणति अनुसंधान' सामयिक रूपे थई. परमकृपालु श्रीपरमात्मानी कृपाथी आ तेनो 24 मो अंक आप सर्वना हाथमा छे. हवे पछीनो अंक २५मो अंक हy. २५मा अंकने विशेषे समृद्ध बनाववानी इच्छा छे. ते माटे आप सहु उत्तम संशोधनात्मक लेख, कृतिसंपादन इत्यादि वेलासर अवश्य मोकलो तेवो हार्दिक अनुरोध छे.