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निवेदन
हमणां श्रीकृष्णनी पुरातन, समुद्रमां गरक थयेली द्वारकानी शोध, आपणा पुरातत्त्वविदो अद्यतन विज्ञाननां साधनो तथा माध्यमोनी सहायथी, करी रह्या छे. द्वारकाना अवशेषो शोधी काढवामां तेमने धारी सफलता पण मळी रही होवाना हेवाल वृत्तपत्रमां वांचवा मळतां कहे छे.
आ सन्दर्भमां, जैन परंपराने अनुसरता कृष्ण - कथानकमां अमुक उल्लेखो मळे छे, ते प्रत्ये ध्यान दोखुं छे. आ उल्लेखो रसप्रद छे. जैन कथा अनुसार, श्रीकृष्ण अने यादवो मथुरा-प्रदेश छोडीने सौराष्ट्रमां दरियाकांठे आव्या, अने ते भूमिमां वसवानो निश्चय कर्यो. तेथी स्वयं कृष्णे समुद्रदेव-नामे सुस्थित-ने उद्देशीने अट्ठम तप कर्यो, जेना प्रत्युत्तररूपे ते देव हाजर थतां अने कामकाज बताववानुं कहेतां श्रीकृष्ण आ प्रमाणे कह्युं :
“उवाच कृष्णः तं देवं या पूर्वं पूर्वशार्ङ्गिणाम् ।
पुत्र द्वारकेत्यासीत् पिहिता या त्वयाऽम्भसा ||३९७|| ममाऽपि हि निवासाय तस्याः स्थानं प्रकाशय ॥ "
(हेमचन्द्राचार्यरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते पर्व ८/५) अर्थात्, “कृष्णे कह्युं के पूर्वना वासुदेवोनी नगरी 'द्वारका' अहीं हती, जेने तमे तमारा जलमा ढांकी दीधी छे, ते मारा निवासार्थे पुनः प्रगट करो. "
कथानक प्रमाणे ते देवे इन्द्रनी मंजूरी मेळवीने ते प्रमाणे कर्तुं अने सोनानी द्वारका बनावी आपी. परन्तु आपणो मूळ मुद्दो समुद्रमां गरक थयेल द्वारकाने पुनः बहार आणवानो छे. शुं आ उल्लेखने ते समयना सामुद्रिक पुरा- अन्वेषणना नामे न ओळखी शकाय ?
आ कथाग्रन्थमां आगळ जतां एक बीजो उल्लेख पण मळे छे, जेमां द्वारका बळी गया बाद ते समुद्रमां गरक थई होवानो निर्देश छे. जुओ :
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" षण्मास्येवं पुरी दग्धा प्लाविता चाऽब्धिना ततः ॥ ८ / ११ / १०६” अर्थात्, “द्वारका-दाह छ मास सुधी चालतो रह्यो, अने पछी ते समुद्रमां समाई गई. आजे थई रहेला पुरातात्त्विक शोधकार्यने संपूर्ण टेको आपे तेवो आ सन्दर्भ स्वयंस्पष्ट छे.
आपणे आशा सेवीए के आ शोधकार्य सुपेरे अने शीघ्र पूर्ण थाय, अने आपणी समक्ष रोमांचकारी तथ्यो उजागर थाय.
शी.
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