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अनुसंधान-२४ (१५) ॥ सिद्ध स्वरूप-स्वाध्यायः ॥
राग-धन्यासी ऊठि घुटि घणउं चेतना नारि तुं
ज्ञान दीवो करी जो विचारी । एक अनुपम सरूप चिंति तुं सिद्धनुं
जु तुझ जीव छइ सुमति धारी ॥९॥ ऊ०॥ जो न जगदीसरो जो न परमेसरो
जो न अमरेसरो परमपुरुषो ।। जो न रूपं धरइ कर्म कछु नवि करइ
कछु न मुखि उच्चरइ कुंण न सरिखो ॥२॥ऊ०॥ कुंण थकी नवि डरि कछु भी जो नवि चरि
पदथकी नवि गिरइ गौ न चारइ । उदरि नवि अवतरि शस्त्र करि नवि धरइ
हृदय दुखि नवि झरइ नवि करावइ ||३||ऊ०॥ रोस भी नवि करी प्यार भी नवि धरी
ध्यानथी भगतनां दुख हरावइ । त्रिजगमा नवि फिरइ नीदि तनु नवि भरि
नवि मरि सो किस्यइं नो मरावइ ॥४||ऊ०॥ जोहि लोकालोक जेवडउं तनु विना
एक लोचन धरि एक जीवो । दुख हरि सद्ध बुद्धो सदा शिवि वसइ
सकल योगीसरो हृदय दीवो ॥५।।ऊ०।। ॥ इति सिद्धस्वरूप-स्वाध्यायः ॥ ॥ गणिधनवर्द्धनवाचनाय श्रीपत्तननगरे ॥
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