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________________ June-2003 43 उपशमथी अरिहंतनी पदवी होइ खिणमांहि रे । मुगतितणां सुख ते लहइ जे उपशम अवगाहि रे ॥३|| उप० ॥ खिमावंत जिणवर कह्या त्रीजा अंग मि जलपइ रे । उपशमसार संयम कहिउं श्रीपजूसण कलपइ रे ॥४॥ उप० ॥ क्रोधतणइ परवश थया बंधी कोडि कुकरमो रे । नरगि गया बहु जीवडा ए जिन आगम मरमो रे ॥५॥ उप० ॥ कुंण खमयाथी उद्धर्या कुंण क्रोधई भव भमिआ रे । हुं बलिहारी तेहनी जीणइ आतम दमिआ रे ||६|| उप० ॥ भरतराय अन्यायथी बाहुबलि बलवंतइ रे । मुंठि उपाडी मारवा क्रोध धरी निय चिंत(चित्त)इ रे ॥७॥ उप० ॥ एहवइ उपशम आवीओ संयम ल्यइ सवि मुंकी रे । भरत दीउं कांइ नवि लीइ नर कोन गिलइ थुकी रे ||८|| उप० ॥ क्रोध थकी परदल हण्यु दुरगतिनां दल मेल्यां रे । पंच महाव्रत मूलथी नियम नथी अवहेल्यां रे ॥९॥ उप० ॥ है है संयम मुझ गयुं उपशम आव्यो अनंतो रे । प्रसन्नचंद्र रिषिराजीओ केवललां झलकंतो रे ॥१०॥ उप० ॥ अन्न संपूरण पातरामाहिं चिहुं मुनिइ धुंक्यु रे । कूरगडू उपशम थकी जांणइ मुझ घृत मुंक्युं रे ॥११॥ उप० ॥ कूरगडू केवल लघु अनुक्रमि च्यार सुसाधो रे । केवल लही मुगतिं गया उपशमथी निरबाधो रे ॥१२॥ उप० ॥ एक नारी नित प्रति हणइ तिम षट नर अतिक्रोधइ रे । नरगतणां दल मेलियां जष्य तणइ अनुरोधइ रे ॥१३।। उप० ॥ छट्ठ छट्टि छम्मास जां खमयाथी मन रंग्यो रे । अरजुणमाली मुनि वडो मुगतिवधूई आलिंग्यो रे ॥१४॥ उप० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520524
Book TitleAnusandhan 2003 06 SrNo 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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