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________________ June-2003 राग मल्हार सामेरी ॥ श्रीविजयसेनसूरि कहि, जगगुर प्रति कर जोडि ललनां । अब कहिणा यूगता नही, हम शिर तुम कर छोरि ललनां वि. १॥ क्हत हीर मुनिहंसकुं तुम कब न रहे दूरि ।। 'जाउ' कहुं किम आ मुखिइं, हृदय प्रेम जल पूरि ललनां ॥२॥ मेरे बालवइरागी लाडिले तपगच्छध(धु?)र धोरी धीर ललनां । कहां लाहुर गूजर कहां किउं याउगे वीर ललनां ॥३॥ तुम प्रतापि जिहां तीहां दिन दिन हुइ रंगरोल ललनां । माहि(टि?) आदेस दीउ गुरजी 'मनकापड के वो (बो)ल (?) ललनां ॥४॥ सीख मागि गुर केरीआं महीतलि दिली अवाज ललनां । विजयसेन-शाहा मिलनकी, संघ करि सब साज ललनां ॥५॥ साथि लीए बहु मेवडे, मुनिजन वादी संग ललनां । सा मंडाण जु देखही सबजन होवइ रंग ललनां ॥६॥ हीरविजयसूरि पाए नमी, तेहस्युं मांगइ सीख ल. । मो शिर पणि (एणि?) धरु गुरजी, जिम धरी देतई दीख ललनां ॥७॥ तीन प्रदक्षण देवही, तुम पय मोहि आधार ललनां । वृद्ध भाव वहइ तुमतणा, तुम तन करणी सार ललनां ॥८॥ अंदेसा मनि मत करु झूकी(?)सीस विदेस ललनां । तुम हृदयां भीतर धरूं, हीर सुमंत नरेस ललनां ॥९॥ तुम मेरे माता पिता, तुम मेरे सुलतान ललनां । वेगिइं चरण दिखावयो, तीन भुवन के भाण ललनां ॥१०॥ अनुक्रमि देप(स?) अजूआलता लाहुरि नयरि पहूत ललनां । उच्छ्व हुइ अनेकधा शंकर कहत बहूत ललनां ॥११॥ १. 'मत काएड(र)के बोल ललनां' (?) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520524
Book TitleAnusandhan 2003 06 SrNo 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages128
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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