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घण मोह माया लोभ वाह्यो फरह हा हू तु भमइ दोहिलो लाधो मानुषो भव कांइ आलिं नींगमइ ॥१॥
म करिसि जीवडा माहरूं माहरु
जो न विमासी नथी कांइ ताहरुं ॥
त्रूटक ताहरु कांइ नथी रे प्राणी छंडि ममता अति घणी
खिण एक पूंठि आथि केरो थाइस्यइ कच (व ? ) को धणी ॥ दिन राति रलतो रहिन तूं ही काज न करइ आपणो एक पुण्य पोषइ कहिन किम तूं अंत पामसि भवतणो ॥२॥
आप सवारथ मलीउं छइ सहू
तूं कुण कारणि पाप करि बहू ? |
त्रूटक
बहु पाप करतु संक नाणइ हईइ न जाणइ आंपणउं
कारिमउं सगपण नेह विण जिम छार ऊपरि लींपणउं ॥
अनुसंधान - २४
मन पवननी परि फरि दह दिसि किमइ राख्यउं नवि रहइ एक चित्त अरिहंत ध्यान धरि जिम सास्वतां सुख तुं लहइ ||३||
सीख असीपरि दीजइ छइ घणी पालिन आणा सूधी जिनतणी ॥
त्रूटक
जिनतणी आणा पालि सूधी करिन सेवा खरी
अरिहंत भाख्यो धर्म आदरि अंगि आलस परिहरी ॥
मन शुद्धि समकित शील दृढ धरि सीख असी परिं दीजीइ इम भणि पदमकुमार मुनिवर भवतणां फल लीजीइ ||४||
॥ इति सज्झाय ॥
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