Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 124
________________ June-2003 119 ___ (१४) वराहमिहिर अने भद्रबाहुनी वातो प्रसिद्ध छे. तेमां सामान्य परंपरा एवी छे के निस्तेज बनेल वराहमिहिर छेवटे तापस बने छे, मरीने व्यन्तर थाय छे, संघने उपद्रवो करे छे अने गुरु तेना निवारण माटे 'उवसग्गहरं स्तोत्र' रचे छे. प्रबन्धकोश (पृ.४)मां आवी ज वात छे. प्र.चि. आ मुद्दे जरा जुदी ज वात आपे छे, जे जरा विशेष प्रतीतिकर के बुद्धिगम्य लागे छे, प्र.चि. प्रमाणे : "इत्युक्तियुक्तिभ्यां प्रबोध्य ते महर्षयः स्वं पदं भेजुः । इत्थं बोधितस्यापि तस्य (वराहमिहिरस्य) मिथ्यात्वधत्तूरितस्य कनकभ्रान्तिरिव तेषु मत्सरोच्छेकात् तद्भक्तानुपासकान् अभिचारकर्मणा कांश्चन पीडयन् कांश्चन व्यापादयन् तवृत्तान्तं तेभ्यो ज्ञानातिशयादवधार्य उपसर्गशान्तये 'उवसग्गहरं पासं' इति नूतनं स्तोत्रं रचयांचक्रुः ।" (पृ. ११९) । अर्थात् वराहमिहिर मरीने व्यन्तरदेव थया पछी नहि, पण त्यां ज, वराहमिहिर तरीके ज ते, द्वेषवृत्तिप्रेरित ऊंधा रस्ते चडीने मारणउच्चाटनादि क्रियाओ करवा द्वारा लोकोने उपद्रव करे छे, अने तेनुं वारण गुरु 'उवसग्गहरं' बनावीने आपे छे. बहु ज गंभीरताथी विचारवायोग्य आ प्रतिपादन लागे छे. -शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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