Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ June-2003 माता बालक मलहरिजी लइ ठीकरस्यउं रे दूरि । निंदक निज मुखस्य लीइजी पर अवगुण मल पूर ||१०|| सो० ॥ पर परिवाद करी करइजी जिम जिम वचन उचार | परनिंदक परभवि लहइजी तिम तिम कठिन विकार ॥ ११ ॥ सो० ॥ जिणइ वचनइ पर दूखीइजी जिणइ हुइ प्राणीघात । क्लेश पडइ निज आतमाजी त्यजि उत्तम ते वात ||१२|| सो० ॥ परनिंदा इंम परिहरीजी करि समता निस दीस । कमलविजय पंडिततणोजी हेमविजय कहि सीस ||१३|| सो० ॥ ॥ इति समता - सज्झाय ॥ (७) लावण्यसमय विरचित जीव भणइ सुणि जीभडली रे पापिं पिंड भरावइ । आप सवारथि आघी आवइ अह्मचइ काजि न आवइ ॥१॥ - जीभ - सज्झाय बापडली जीभडली ढाल पडी छइ एहवि खारा खाटां खट रस सेवइ, अरिहंत नाम न लेवइ ॥२॥ आंचली ॥ काया पुर पाटण हुं राजा तुं थापी पटराणी । हजी लगिं गुरुवचन विहूणी इसी भगति नवि जाणी ॥३॥ नर बत्तीस रहइं रखवाला आगलि पोलि पगारा । तुहइ नीलजपणउं न छंडइ हींडइ छंदाचारा ||४|| ध्यान धरूं जब स्वामी तव सहियर बोलावइ । जपमाली कर थकी पडावइ मुझनइ मांड बोलावइ ॥५॥ Jain Education International 55 तुं बंधावर तुं छोडावइ तुं जामलि कुण आवइ । नारि भली जे प्रियस्युं भगती घरनो चाल चलाइ ||६|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128