Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ June-2003 53 (५) हंससाधु-विरचित - हितशिक्षा-बोल सज्झाय सुणि जीव पहिलङ उपशम आणि, मन-शुद्धि सांभलि गुरुवाणि । गुरु विण जीव रलंतु जोइ, गुरु विण धर्म न बूझइ कोइ ॥१॥ लाज आणे हइडइ नरनारि, लाज वडी भणीइ संसारि । लाज ज राखइ रूडी माम, नीलज विणसाडइ सवि काम ॥२॥ जे मूरखनी लज्जा गई, बि भव विणठा तेहना सही । लाज रहित नर हुइ कठोर, जांणो माणसरूपि ढोर ॥३॥ लाजइं आवइ विनय विचार, लाजवंत लहि मुहत अपार । लाजइं पुण्य कराइ बहू, लाज लोपी तिणइ लोपिउं सहू ॥४॥ कलियुगमां पाखंडी घणा, तिहां मन रीझइ मूरखतणां । पाखंडीनइ आदर होइ, साचइ लोक न राचइ कोइ ॥५॥ जिम पारो पारामां भलइ, तिम डंभक डंभकनइ मिलइ । संत साधुनी निंदा करइ, पापी पापिं पिंड ज भरइ ॥६॥ आप वखांणी भामइ पडइ, पच्छइ जाणे यम-करि चडइ । एह वात कहीइ स्युं घणी, परि नवि देखं पुण्य ज तणी ||७|| खुंट खरडनो व्याप्यो व्याप, कोइ न बीहइ करतु पाप । सूधो धरम न दीसइ रती, थोडा थया कलिकालिं यती ॥८॥ माहरां ताहरां करि अपार, श्रावक चूका धरम विचार । पंपल पुहवि थयुं जे जिसिउं, बोल्यउं कोइ न पालि तिसिउं ॥९॥ खिमारहित क्रोधइ धडहडइ, राग द्वेष वाहिओ रडवडइ । वसमसि नवि कीजइ कहि तणी, वात संभारु पाछि घणी ॥१०॥ जूठउं जीव तुं किम्ह इम भाषि, धरम ज कीजइ आतम साखि । लज्जा दया खिमा मनि धरो, निरगुणनी संगति परिहरो ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128