Book Title: Anusandhan 2003 06 SrNo 24
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
June-2003
51
आखडी अ करी अति भारी मुझ रूप ज निरखइ नारी । नहीं जाउं नगर मझारि भिख्या लि वनह मझारि ॥२०॥ रथकार रंगि विहरावइ मृगलो तिहां भावना भावइ । धन धन एहज अवतार जिणइ करी लहीइ भवपार ॥२१॥ भावना भावइ हरिणलो नयणे नीर झरंत । मुनि विहरावत करि करी जो हुं माणस हुंत ॥२२॥ जीवदयानउं यतन करंत मिलतो साधुस्यउं विचरंत । विहरावत पात्र विचारी इंम चिंतवइ चित्त मझारि ॥२३॥ तव वाय वायु असराल अध कापि पडी अतिडाल । त्रिण्यइ तणो तिहां पहुतो काल बलभद्र हरिण रथकार ॥२४॥ पहुता पाचमइ सुरलोकि विलसइ तिहां सुक्ख अशोक । बलभद्र दया प्रतिपाली मद मच्छर माया टाली ॥२५॥ सूतारनी भिक्षा निरखी विहरावइ पात्र ज परखी । तिणि योगि बिहु मनरंगि अवतरीआ पांचमइ सरगि ॥२६॥ तिहां धर्म तणी वात चालइ समकित सूधउं प्रतिपालइ । समकित विण का जन सीझइ सालिग भणि सूधउं कीजइ ॥२७॥
॥ इति बलभद्रर्षि-सज्झाय ॥
(४) श्रीपद्मकुमारमुनि-कृत - संसारस्वरूप-सज्झाय सुणि सुणि जीवडा कहिउं. रे करीजीइ एकज जिनधर्म हईडइ धरीजीइ ।
Jटक
हईडइ धरीजइ एक जैनधर्म अवर सहू अथिर अछइ तुं चेति चेति(त)न चतुर प्राणी करिसि पछतावो पछइ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128