Book Title: Anusandhan 2003 01 SrNo 22
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 18
________________ समुद्रबन्ध आशीर्वचन सं. मुनि जिनसेनविजय विभाग प्रथम. (चित्रनी उपरना भागनुं लखाण) श्रीजालंधरनाथोर्जयति । ॐ नमः सिद्धम् ॥ श्री वरदाई नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ।। श्रीमानधाता ११। सेतबंध रामेसर ।२। धीरासर पत्तन ।३। कनोज ।४। पाली ।५। खेड ।६। मंडोवर ।७। जोधपुररत्नघढ ।८। अष्टमतखत श्री मरुधर महापुन्यदेसे । अगंजगंजन रिपुराजानमानमर्दक मार्तंडावतार पुन्यपात्र वाचाअविचल, गुनगंगाजलनिर्मल संग्रामांगनधीर दानैकसौंडीर परदुःखभंजनविक्रम, दानोपमा-करणनृपसम प्रजाजनआधार न्याई श्रीरामचंद्रावतार समद्धिपुन्यप्राग्भार सर्व धर्मार्थकुशल नरोत्कृष्ट नरसिंह सर्वविद्याप्रणित(वीण) सर्वभूपतिसिरोमणि सर्वाभवद्भपतिमौलिहीर श्रीविक्रमसदृशबलवीर औदार्या सौंदर्य धीर्य गांभीर्य सर्वगुणालंकृत सर्वशास्त्रार्थपारकोविद सर्वसंस्कृतभाषाग्रंथनिपुन सर्वकलाप्रणित(वीण) धर्माधिष्ट श्रीहिंदूपति-पादसाह निकंटकराजधारक मलेच्छदुर्जयवारक राजभारधुरंधर लक्ष्मीभंडारअभरभर, अनेकनृपसेवित चरन, दुखदीनअसरनसरन, श्रीसूर्यवंशउद्योतकारक, श्रीराठोडकुलसोभाकारक, श्रीगुमाननृपकुलगगनभास्कर, निजमातृकुक्षिरतनागर, गौब्राह्मणप्रतिपाल, पुन्यविशालभाल, अखंडयसकीर्तिप्रनाल, अरिकालकरवाल, प्रचंड भुजाल, इत्यादि अनेक सुभ कोटि उपमा बिराजमान : पुनः श्रीराजाहरचंद सत्यवादी, जयचंदवत् दलपांगुल, श्रीसीहाजीवत् भाग्यवान, श्रीजोधाजीवत् प्रतापवान, श्रीवजमालसदृश एकच्छत्र वा(धा)रक श्रीहिंदन-भान, श्री १०८ श्री श्री श्री महाराजाधिराज महाराज श्रीमानसिंहजी ताकुं पुत्रार्थे, राज्यार्थे, लाभार्थे, क्षेमार्थे, जयार्थे, धनार्थे, शत्रुमर्दनार्थे, प्रतापवर्धनार्थे, श्री श्री समुद्रबंध-आसिर्वचन लिख्यते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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